Wednesday, September 14, 2011

एक शराबी का अपराधबोध

: मेरी भोपाल यात्रा (1) : भोपाल से आज लौटा. एयरपोर्ट से घर आते आते रात के बारह बज गए. सोने की इच्छा नहीं है. वैसे भी जब पीता नहीं तो नींद भी कम आती है. और आज वही हाल है. सोच रहा हूं छोड़ देने की.
कल रात भोपाल में पीकर जो कुछ हुआ, उसके बाद से तो मैं हिल गया हूं. मैंने होटल में ज्यादा पी ली और अपना मोबाइल तोड़ डाला, शर्ट फाड़ दिए, गिलास वगैरह तोड़ डाले, पुलिस आ गई और बवाल न करने को समझा गई, बहुत ड्रामा हुआ... इतनी पी ली कि बेचैनी के मारे वोमिटिंग होने लगी.. सुबह 11 बजे जगा... आज दिन भर अपराधबोध और ग्लानि से जूझता रहा.. उसी कारण ज्यादा काम कर रहा हूं ताकि वह प्रकरण भूल सकूं, अपराधबोध और ग्लानि से मुक्त हो सकूं... पीने के बाद आत्महंता आस्था जग जाती है और सेल्फ किलिंग एट्टीट्यूड डेवलप हो जाता है.. बिन पिए भी संसार की निस्सारता और जीवन के रुटीनी होने का भाव बना रहता है पर पीने के बाद तो सब साफ साफ समझ में आने लगता है और तब कई बार खुद पर और कुछ एक बार दूसरों पर गाज गिराता हूं... दुआ करें और संबल दें कि इस बार छोड़ दूं...
अपने प्रिय पत्रकार अवधेश बजाज का लंबा इंटरव्यू कर पाया और उनके साथ बैठकर जमकर दारू पी सका... ह्विस्पर्स इन दो कारिडोर डाट काम के संस्थापक सुरेश जी से मिल आया... आलोक तोमर जी के नाम पर 25 हजार रुपये का एवार्ड घोषित हो सका... यह सब उपलब्धि है भोपाल यात्रा की. भोपाल के पत्रकार बहुत प्यारे और मेहनती हैं. कई साथियों से मिला. सबने सम्मान-प्यार दिया. लगा नहीं कि मैं सबसे पहली बार मिला. सभी पत्रकार साथियों का आभारी हूं. एसपी त्रिपाठी, अनुराग अमिताभ, प्रवीण, अनुराग उपाध्याय, लोकेंद्र, सत्यनारायण विश्वकर्मा, पुष्पेंद्र सोलंकी, अरशद भाई, विनय डेविड... दर्जनों लोगों से मिला. भोपाल यात्रा पर विस्तार से लिखूंगा..
कल ही क्षमावाणी पर्व बीता है. अपनी गल्तियों को मान लेने और कह देने से मन हलका हो जाता है और आत्मा शुद्ध रहती है. सो, अपने दिल की बात लिख रहा हूं. पत्रकार अवधेश बजाज से मिलकर संसार और समाज से दुखी मेरा मन और ज्यादा दुखी हो गया था क्योंकि अवधेश बजाज उस पत्रकार का नाम है जिसने भ्रष्ट सिस्टम और भ्रष्ट पत्रकारिता से सौदा-समझौता नहीं किया, सो धीरे धीरे सबसे कटता गया और दारू पी पीकर खुद को नष्ट करते गए. दुनिया की नजर में यह नष्ट होना होता है लेकिन अवधेश बजाज जैसों की नजर में यह सहज होना है. इतना सड़ांध है पूरी व्यवस्था में कि अगर आप ज्यादा संवेदनशील हैं और चीजों को बहुत गहरे तक पकड़ देख पा रहे हैं तो आपका जीना मुहाल हो जाएगा. हार्ट फेल हो जाएगा या दिमाग की नस फट जाएगी. अगर आप कीचड़ के पार्ट नहीं हैं तो आपको उसके खतरे उठाने पड़ेंगे. अवधेश बजाज बहुत शराब पीते हैं, यह दुनिया जानता है. कई बार अस्पताल में रह आए. अब वो कहते हैं कि दो साल से ज्यादा उम्र नहीं बची है.
45 साल का यह जवान इतना सैडिस्ट हो गया है कि उनकी बातें सुन सुनकर मुझे अंदर से लगता रहा कि बिलकुल सच कह रहे हैं बजाज साहब. अवधेश बजाज सच्चाई और ईमानदारी को कहते ही नहीं, उसे जीते भी हैं. इसी कारण अवधेश बजाज से लोग डरते हैं क्योंकि जो खरा, खांटी, सच्चा होता है उसका वाइब्रेशन कम लोग झेल पाते हैं. लंबे इंटरव्यू के बाद उसी शाम अवधेश बजाज जी के साथ जमकर मदिरा पान किया. वे पूरी बोतल लेकर मेरे होटल चले आए. मैंने उन्हें खूब प्यार किया. किस किया. पैर पकड़े. जीवन की निस्सारता पर बतियाते रहे. खूब भजन गाए.
किसी बात पर वो भी रोए और मैं भी. जीने की इच्छा खत्म होने का भाव पैदा हुआ. और इसी सब के दौरान जाने कब अचानक चीजों को तोड़ने फोड़ने लगा, समझ में ही नहीं आ रहा. बजाज साहब सब देखते झेलते रहे. मैंने जिद की कि पान खाऊंगा, वे अपनी गाड़ी से ले गए और पान खिलाकर होटल छोड़ा. बड़े भाई सा प्यार दिया और एक दिन की मुलाकात ने हम दोनों के दिलों को इस कदर जोड़ दिया कि लग ही नहीं रहा कि मैं बजाज साहब से पहली बार मिला हूं. पर सोकर सुबह उठा तो टूटा मोबाइल फटे शर्ट देखे तो खुद से पूछता रहा कि ऐसा क्यों किया मैंने, तो जवाब आया... अंदर कोई चीज बहुत गहरे फंसी है.. सामान्य अवस्था का छिपा रहने वाला सतत कायम डिप्रेशन मदिरापान के बाद उग्रता में बदल जाता है. शायद मन में यह भी भाव था कि बजाज साहब, आप अकेले नहीं मर रहे हैं, हम सब धीरे धीरे मर रहे हैं, आप साहसी हो जो खुलकर पीते हो और मजे से जीते हो, साथ ही, मरने की तारीख तय कर रखे हो पर हम लोग डरपोक हैं, न ठीक से पी पाते हैं और न सही से जी पाते हैं और मौत से हर पल घबराते हैं. ज्यादातर लोगों का यही हाल है.
भोपाल के कुछ पत्रकार साथियों के साथ यह ग्रुप फोटो पत्रकार साथी अनुराग अमिताभ ने क्लिक किया. किसी ने इसे फेसबुक पर अपलोड किया. वहीं से साभार.
ब्यूरोक्रेसी और कारपोरेट जगत में बेहद चर्चित वेबसाइट ह्विस्पर्स इन द कारीडोर डाट काम के संस्थापक और प्रधान संपादक सुरेश मेहरोत्रा  जी से मिलने उनके निवास पहुंचा. बेहद सरल-सहज सुरेश जी दिल खोलकर मिले. चलते चलते मैंने उनके पैर छू लिए. इस शख्स ने कई साल पत्रकारिता करने के बाद अपना काम शुरू करने की हिम्मत की और चार साल तक बिना किसी लाभ के डटा रहा. अब दुनिया इन्हें सलाम करती है.
ह्विस्पर्स इन द कारीडोर डाट काम की सफलता का सारा श्रेय सुरेश मेहरोत्रा जी साईं बाबा को देते हैं. अपनी कुर्सी के ठीक उपर टंगे साईं बाबा को मेहरोत्रा जी अपना सीएमडी बताते हैं और कहते हैं कि जो कुछ भी होता है, सब उनके आदेश से होता है.
तेजस्वी पत्रकार अवधेश बजाज से मैंने लंबा इंटरव्यू किया. तरह तरह तरह के सवाल पूछे. यह तस्वीर खींची भोपाल के मेरे पत्रकार मित्र अरशद ने. अरशद ही मुझे अपनी गाड़ी में बिठाकर अवधेश बजाज जी के यहां ले गए.
अवधेश बजाज अपने घर के बाहर. साथ में खड़ा है उनका गनमैन. कलम के जरिए भ्रष्ट नौकरशाहों, नेताओं और उद्यमियों की खाल खींच लेने वाले और इन सबों के लिए दहशत के पर्याय अवधेश बजाज को उनकी जान का खतरा मानते हुए सरकार ने गनमैन मुहैया कराया है.
रात को अवधेश बजाज उस होटल आए जहां मैं रुका था. कमरे में शराबखोरी के दौरान ब्लाग-वेब और वर्तमान पत्रकारिता पर भी चर्चा होती रही. रिफरेंस के लिए कई बार इंटरनेट व लैपटाप का सहारा लिया गया. उसी क्रम में लैपटाप पर कुछ पढ़ते अवधेश बजाज.
भोपाल में हुए आयोजन की खबर लखनऊ के डेली न्यूज एक्टिविस्ट हिंदी दैनिक में.
तो संभव है, कहीं मेरे अवचेतन में यह भी रहा होगा कि सेल्फ किलिंग एट्टीट्यूड के जरिए अवधेश बजाज को दिखा सकूं कि देखिए, इधर भी वही हाल है. तोड़फोड़ करने में कांच गड़ गया एक उंगली में और खून बहा. शायद मैंने खून से अवधेश बजाज से अपनी दोस्ती का तिलक किया. उनका मुरीद तो पहले से ही था, उनके बारे में सुन सुन कर, लेकिन मिलकर उनका प्रशंसक बन गया, उसी तरह वाला जैसा आलोक तोमर जी का बना. अपने लंबे इंटरव्यू के दौरान अवधेश बजाज ने दो प्यारी सी कविताएं सुनाईं. उन्हें अपलोड कर रहा हूं. उसे सुनने के लिए क्लिक करें....
शराबखोरी की अपनी बढ़ती लत से परेशान मैं जब पीछे मुड़कर पाता हूं तो समझ में आता है कि शराब पीने के बाद मैं पूरी तरह से अराजक और असामाजिक प्राणी हो जाता हूं. पिछले महीने राजेंद्र यादव के बर्थडे की पार्टी थी. वहां इतनी दारू पी की मुझे कुछ होश नहीं कि मैं क्या कह कर रहा हूं. अचानक मुझे देर रात पार्टी वाले लान में लगा कि सारे लोग गायब हो गए हैं और मैं व कुछ वेटर साथी रह गए. तब समझ में आया कि पार्टी तो खत्म हो गई. अपनी कार में ड्राइविंग सीट पर बैठा तो मेरे थके पैर ब्रेक एक्सीलेटर आदि दबाने से इनकार कर रहे थे, मतलब गाड़ी चलाने की स्थिति में नहीं था. तब आयोजक को फोन किया कि मुझे घर भिजवाएं. कुछ वेटरों ने मुझे पकड़कर नींबू पानी कई गिलास पिलाए. कुछ घंटे बाद मैं अपनी ही कार से इधर उधर भटकते भिड़ते अपने घर पहुंचा. अगले दिन सुबह भी भयंकर अपराधबोध. यह क्यों करता हूं. मुझे समझ में आता है कि मदिरा मैं नियंत्रित करके पी ही नहीं सकता. पीने लगता हूं तो पीता ही चला जाता हूं, सब्र नहीं होता. एक्सट्रीमिस्ट लोगों का स्वभाव होता है कि वे हमेशा अतियों में जीते हैं. या तो इधर या उधर. या तो खूब पिएंगे या फिर पूरी तरह छोड़ देने का ऐलान कर देंगे. मध्यम मार्ग इन्हें स्वीकार नहीं होता. ऐसे लोगों को यह भी लगता है कि वे जीयें तो क्या, मरें तो क्या... न पिएं तो क्या, पीते रहें तो क्या... मतलब, हर चीज के प्रति उदासी. उदासी संप्रदाय के कट्टर सदस्य माफिक दिखते हैं. मैंने कह तो दिया है कि शराब छोड़ रहा हूं पर देखता हूं कितने दिन तक छोड़ पाता हूं. मैंने पिछले दिनों सोचा कि दरअसल छोड़ने पकड़ने का काम करना ही गलत है. आप कैसे कह सकते हैं कि दुख छोड़ रहा हूं, सुख पकड़ रहा हूं. आप कैसे कह सकते हैं कि दिन छोड़ रहा हूं, रात पकड़ रहा हूं. ये सब एक सिस्टम है, क्रम है. शराब आप छोड़ते ही इसीलिए हैं कि आपको फिर से पकड़ना है, और पकड़ते इसलिए हैं कि फिर छोड़ना है. यह सतत चलने वाला क्रम है. इस साइंस को जो नहीं समझता वह मूरख छोड़ने और पकड़ने के अपराधबोध में फंसा रहता है. पर, कई बार मूरख बन जाना तसल्ली देता है, कई बार अपराधबोध करना तपाकर कुंदन बना देता है. यही वो बेसिक भाव हैं, जिसके होने के कारण हम मनुष्य हैं और प्रकृति पृथ्वी में सब पर भारी हैं. जिस दिन ये सारे भाव मर गए, हम रुटीनी व रोबोटिक हो गए तो समझिए कि सब खतम हो गया. भोपाल यात्रा पर बातचीत जारी रहेगी. यह पहला पीस भावावेश में लिख रहा हूं. आगे जो कुछ लिखूंगा, उसमें वाकई भोपाल की रिपोर्टिंग होगी.
उम्मीद है आप लोगों का प्यार, सहयोग, सुझाव और आशीर्वाद मिलता रहेगा.
यशवंत
भड़ास
yashwant@bhadas4media.com


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