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गंगा गुस्से में है. उसकी सहोदर नदियां मंदाकिनी और भागीरथी का गुस्सा तो उफान पर ही उतर आया. गंगा, मंदाकिनी या फिर भागीरथी का गुस्सा नाजायज नहीं है. अगर उनके गुस्से का शिकार होकर जन और धन होती है तो इसका दोष गंगा या उनकी सहोदर नदियों को नहीं दिया जा सकता. उत्तराखंड में आयी मौजूदा तबाही के लिए इंसानी लालच ज़िम्मेदार है और गैर ज़िम्मेदार हुक्मरान ने इंसानी लालच को तूल दिया और आज भारत की अस्मिता के प्रतीक, हिमालय और गंगा के अस्तित्व के सामने संकट पैदा हो गया है.
उत्तराखंड के मौजूदा मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के स्वर्गीय पिता हेमवतीनंदन बहुगुणा का वह इंटरव्यू कभी नहीं भूलता जो उन्होंने १९७४ में उस वक़्त की सम्मानित हिंदी समाचार पत्रिका दिनमान को दिया था. टिहरी बाँध की प्रस्तावना बन चुकी थी, स्व बहुगुणा जी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और टिहरी बाँध के बारे में उनका वह इंटरव्यू लिया गया था. हेडलाइन लगी थी कि जब टिहरी का पहाड़ डूबेगा तभी पहाड़ों की तरक्की होगी. उस वक़्त के भूवैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने हेमवतीनंदन बहुगुणा के उस बयान पर सख्त टिप्पणियाँ की थीं और उन टिप्पणियों को भी दिनमान ने बाद के अंकों में छापा था. बात साफ़ हो गयी थी कि गंगा नदी को बांधकर शासक वर्गों के प्रतिनिधि एक भयानक आपदा के लिए निमंत्रण लिख रहे हैं कोई भी चेतावनी काम न आयी और बाद में विकास के नाम पर ऐसा अंधड चला कि इलाके के मूल निवासियों के हितों को नज़रअंदाज़ करके, दिल्ली और लखनऊ में बैठे लोग गंगा के आसपास के हिमालय की प्रलयलीला पर दस्तखत करने के लिए मजबूर हो गए. वे पूंजी के चाकर बन चुके थे.
अपने देश में शोषक वर्गों ने विकास की अजीब परिभाषा प्रचलित कर दी है. ग्रामीण इलाकों को शहर जैसा बना देना विकास माना जाता है. इकनामिक फ्रीडम के सबसे बड़े चिन्तक डॉ मनमोहन सिंह और बीजेपी, कांग्रेस और शासक वर्गों की अन्य पार्टियों में मौजूद उनके ताक़तवर चेले पूंजीपति वर्ग की आर्थिक तरक्की के लिए कुछ भी तबाह कर देने पर आमादा हैं. इसी चक्कर में अब उत्तराखंड की ज़मीन किसी भी तबाही का इंतज़ार करती रहती है. इस बार की भारी बारिश और बादल फटने के कारण आयी तबाही को लोग यह कहकर टालने के चक्कर में हैं कि बाढ़ एकाएक बहुत ज्यादा हो गयी और संभाल पाना मुश्किल हो गया. कोई इनसे पूछे कि हज़ारों वर्षों से बारिश भी तेज होती रही है और बाढ़ भी आती रही है लेकिन इस तरह की तबाही नहीं आती थी.जवाब यह है कि अब हिमालय को निजी और पूंजीपति वर्ग के स्वार्थों के कारण इतना कमज़ोर कर दिया गया है कि वह बारिश को संभाल नहीं पाता. और इसका कारण शुद्ध रूप से बिल्डिंग, राजनीति, खनन और पर्यटन माफिया की ज़बरदस्ती है. पहाडों को खोखला करने का सिलसिला टिहरी बाँध की परिकल्पना के साथ शुरू हुआ था. हेमवती नंदन बहुगुणा ने सपना देखा था कि प्रकृति पर विजय पाने की लड़ाई के बाद जो जीत मिलेगी वह पहाड़ों को भी उतना ही संपन्न बना देगी जितना मैदानी इलाकों के शहर हैं. उनका कहना था कि पहाड़ों पर बाँध बनाकर देश की आर्थिक तरक्की के लिए बिजली पैदा की जायेगी.
आज उत्तरखंड, खासकर गंगा के आसपास के इलाके में पहाड़ नकली तरीके के विकास की साज़िश का शिकार हो चुका है और वह प्रकृति के मामूली गुस्से को भी नहीं झेल पा रहा है. गंगा नदी को उसके उद्गम के पास ही बांध दिया गया है. बड़े बाँध बन गए हैं और भारत की संस्कृति से जुडी यह नदी कई जगह पर अपने रास्ते से हटाकर सुरंगों के ज़रिये बहने को मजबूर कर दी गयी है.
इसी सोच के चलते गंगा को घेरने की साज़िश रची गयी थी. हालांकि हिमालय के पुत्र हेमवती नंदन बहुगुणा को यह बिलकुल अंदाज़ नहीं रहा होगा कि वे किस तरह की तबाही को अपने हिमालय में न्योता दे रहे हैं. उत्तरकाशी और गंगोत्री के 125 किलोमीटर इलाके में पांच बड़ी बिजली परियोजनायें है. जिसके कारण गंगा को अपना रास्ता छोड़ना पड़ा. इस इलाके में बिजली की परियोजनाएं एक दूसरे से लगी हुई हैं. एक परियोजना जहां खत्म होती है वहां से दूसरी परियोजना शुरू हो जाती है. यानी नदी एक सुरंग से निकलती है और फिर दूसरी सुरंग में घुस जाती है. इसका मतलब ये है कि जब ये सारी परियोजनाएं पूरी हों जाएंगी तो इस पूरे क्षेत्र में अधिकांश जगहों पर गंगा अपना स्वाभाविक रास्ता छोड़कर सिर्फ सुरंगों में बह रही होगी. वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने गंगा को दुनिया की उन 10 बड़ी नदियों में रखा है जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. गंगा मछलियों की 140 प्रजातियों को आश्रय देती है. इसमें पांच ऐसे इलाके हैं जिनमें मिलने वाले पक्षियों की किस्में दुनिया के किसी अन्य हिस्से में नहीं मिलतीं. जानकार कहते हैं कि गंगा के पानी में अनूठे बैक्टीरिया प्रतिरोधी गुण हैं. यही वजह है कि दुनिया की किसी भी नदी के मुकाबले इसके पानी में आक्सीजन का स्तर 25 फीसदी ज्यादा होता है. ये अनूठा गुण तब नष्ट हो जाता है जब गंगा को सुरंगों में धकेल दिया जाता है जहां न ऑक्सीजन होती है और न सूरज की रोशनी. इसके बावजूद सरकार बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी देने पर आमादा रहती है.
भागीरथी को सुरंगों और बांधों के जरिये कैद करने का विरोध तो स्थानीय लोग तभी से कर रहे हैं जब इन परियोजनाओं को मंजूरी दी गई थी. लेकिन वहीं पर रहने वाले बहुत से नामी साहित्यकार और बुद्धिजीवी विकास की बात भी करने लगे. उसमें कुछ ऐसे लोग भी शामिल थे जिन्होंने पहले बड़े बांधों के नुक्सान से लोगों को आगाह भी किया था लेकिन बाद में पता नहीं किस लालच में वे सत्ता के पक्षधर बन गए. ऐसा भी नहीं है कि हिमालय और गंगा के साथ हो रहे अन्याय से लोगों ने आगाह नहीं किया था. पर्यावरणविद, सुनीता नारायण, मेधा पाटकर, आईआईटी कानपुर के पूर्व प्रोफेसर जी डी अग्रवाल और बहुत सारे हिमालय प्रेमियों ने इसका विरोध किया . तहलका जैसी पत्रिकाओं ने बाकायदा अभियान चलाया लेकिन सरकारी तंत्र ने कुछ नहीं सुना. सरकार ने जो सबसे बड़ी कृपा की थी वह यह कि प्रोफ़ेसर अग्रवाल का अनशन तुडवाने के लिए उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी दो परियोजनाओं को अस्थाई रूप से रोकने पर सहमत जता दी थी लेकिन बाद में फिर उन परियोजनाओं पर उसी अंधी गति से काम शुरू हो गया. सबसे तकलीफ की बात यह है कि भारत में बड़े बांधों की योजनाओं को आगे बढ़ाया जा रहा है जब दुनिया भर में बड़े बांधों को हटाया जा रहा है. अकेले अमेरिका में ही करीब ७०० बांधों को हटाया जा चुका है.
सेंटर फार साइंस एंड इन्वायरमेंट ने एक रिपोर्ट जारी करके कहा था कि २५ मेगावाट से कम की जिन छोटी पनबिजली परियोजनाओं को सरकार बढ़ावा दे रही है उनसे भी पर्यावरण को बहुत नुक्सान हो रहा है. इस तरह की देश में हज़ारों परियोजनाएं हैं. उत्तराखंड में भी इस तरह की थोक में परियोजनाएं हैं जिनके कारण भी बर्बादी आयी है. उत्तराखंड में करीब १७०० छोटी पनबिजली परियोजनाएं हैं भागीरथी और अलकनंदा के बेसिन में करीब ७० छोटी पनबिजली स्कीमों पर काम चल रहा है. जो हिमालय को अंदर से कमज़ोर कर रही हैं. इन योजनाओं के चक्कर में दोनों ही नदियों के सत्तर फीसदी हिस्से को नुक्सान पंहुचा है. इन योजनाओंको बनने में जंगलों की भारी हुई है. सड़क, बिजली के खंभे आदि बनाने के लिए हिमालय में भारी तोड़फोड़ की गयी है और अभी भी जारी है.मौजूदा कहर इसी गैरजिम्मेदार सोच का नतीजा है.