MANIRAM SHARMA
मैं लम्बे समय से दाम्पत्य सलाहकार के रूप में जरूरतमंदों को अपनी सेवाएँ प्रदान करता रहा हूँ। जिससे प्राप्त अनुभवों को मैं विभिन्न सन्दर्भों में व्यक्त करता रहता हूँ! इसी कड़ी में यहाँ कुछ विचार व्यक्त हैं:-
हमारे देश में आदिकाल से सतीत्व को स्त्री का आभूषण माना जाता रहा है। जबकि इसके विपरीत पुरुषों को अनेक स्त्रियों के साथ सम्बन्ध बनाते देखा, सुना और पढ़ा तो मन में ये सवाल उठता रहा कि आखिर ये सतीत्व का आभूषण सिर्फ स्त्रियों के लिए ही क्यों बनाया गया है?
बाद में अध्ययन और व्यवहार से समझ में आने लगा कि स्त्री के मन को आदिकाल से हम पुरुषों द्वारा जिस चालाकी से प्रोग्रामिंग किया गया, उसमें स्त्री के लिए अपने सतीत्व की रक्षा को उसके सम्मान का पैमाना बना दिया गया। इस कारण स्त्री के लिए सतीत्व की रक्षा, अपरिहार्य बन गयी। जिसके लिये स्त्री को खुशी-खुशी मृत पति के शव के साथ-साथ सती होने या जौहर तक के लिये तैयार कर लिया!
कालांतर में इसके उपरांत भी जिन स्त्रियों को स्त्री-पुरुष के इस विभेद की पीड़ा सालने लगी, उसने इस विभेद का प्रतिकार करने का साहस किया और स्त्री खुद भी पुरुषों की भांति गैर मर्दों से रिश्ते बनाने लगी, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से ऐसी स्त्री को सार्वजानिक रूप से उन स्त्री पुरुषों ने ही सर्वाधिक लांछित और अपमानित किया, जिनका खुद का चरित्र निष्कलंक नहीं था।
ऐसे में स्त्री सतीत्व, स्त्री के लिए आभूषण के बजाय विवशता बन गया! जिसे स्त्री ने लम्बे समय तक ढोंग और झूठ के सहारे ढोया और पुरुष के अहंकार को पुष्ट करने का भरसक प्रयास किया। लेकिन यदाकदा इसमें स्त्री असफल होती रही। स्त्री को अनेक बार विवाह पूर्व या पति के परदेश चले जाने पर भी गर्भवती हो जाने पर सामाजिक तिष्कार के करना मौत तक को गले लगाना पड़ा। जिससे स्त्री को मुक्ति दी विज्ञान ने, क्योंकि विज्ञान ने स्त्री को वो साधन उपलब्ध करवाये, जिनके बल पर स्त्री स्वयं इस बात का निर्णय करने में समर्थ और सक्षम हो गयी कि वो जब तक नहीं चाहेगी, अनचाहे गर्भ के कलंक से मुक्त रहकर पुरुष की ही भांति मनचाहे रिश्ते बना सकेगी। आज तो स्त्री यौनिछिद्र एवं कुमारी की प्रतीक झिल्ली तक को फिर से रिपेयर करवाने लगी हैं!
परिणाम ये हुआ कि न केवल स्त्री भी पुरुष की भांति व्यभिचारिणी हो गयी है, बल्कि अनेक स्त्रियाँ पुरुषों से भी से भी बहुत आगे निकल गयी। हमारा सामाजिक तानाबाना भी इस प्रकार का है कि पुरुष की तुलना में स्त्री के पास पुरुषों को लुभाने के अधिकाधिक अवसर हैं, अधिक उपयुक्त और कड़वा सच तो ये है कि स्त्री के पास मनचाहे अवसर हैं! जिसके चलते आज स्त्री विवाह से पूर्व और विवाह के बाद भी लगातार यौन-साथी बदलती रहती है।
जब ये किसी वजह से सम्बन्ध उजागर होते हैं तो कुछ तो आत्महत्या कर लेती हैं और कुछ तलाक मांग लेती हैं, जबकि अनेक नव विवाहिता दहेज़ उत्पीडन का मामला दर्ज करा देती हैं! आज की पीढी के पुरुषों को, स्त्री के साथ पुरुषों के पूर्वजों द्वारा आदिकाल से किये जाते रहे विभेद की सजा मिल रही है। इसके उपरांत भी ये कतई भी नहीं समझा जाना चाहिए कि आज का पुरुष मासूम या निर्दोष है।
हालाँकि अभी भी समाज में ऐसे स्त्री और पुरुष हैं जो अपने चरित्र और आचरण की पवित्रता को सबकुछ समझते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है!
मैं लम्बे समय से दाम्पत्य सलाहकार के रूप में जरूरतमंदों को अपनी सेवाएँ प्रदान करता रहा हूँ। जिससे प्राप्त अनुभवों को मैं विभिन्न सन्दर्भों में व्यक्त करता रहता हूँ! इसी कड़ी में यहाँ कुछ विचार व्यक्त हैं:-
हमारे देश में आदिकाल से सतीत्व को स्त्री का आभूषण माना जाता रहा है। जबकि इसके विपरीत पुरुषों को अनेक स्त्रियों के साथ सम्बन्ध बनाते देखा, सुना और पढ़ा तो मन में ये सवाल उठता रहा कि आखिर ये सतीत्व का आभूषण सिर्फ स्त्रियों के लिए ही क्यों बनाया गया है?
बाद में अध्ययन और व्यवहार से समझ में आने लगा कि स्त्री के मन को आदिकाल से हम पुरुषों द्वारा जिस चालाकी से प्रोग्रामिंग किया गया, उसमें स्त्री के लिए अपने सतीत्व की रक्षा को उसके सम्मान का पैमाना बना दिया गया। इस कारण स्त्री के लिए सतीत्व की रक्षा, अपरिहार्य बन गयी। जिसके लिये स्त्री को खुशी-खुशी मृत पति के शव के साथ-साथ सती होने या जौहर तक के लिये तैयार कर लिया!
कालांतर में इसके उपरांत भी जिन स्त्रियों को स्त्री-पुरुष के इस विभेद की पीड़ा सालने लगी, उसने इस विभेद का प्रतिकार करने का साहस किया और स्त्री खुद भी पुरुषों की भांति गैर मर्दों से रिश्ते बनाने लगी, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से ऐसी स्त्री को सार्वजानिक रूप से उन स्त्री पुरुषों ने ही सर्वाधिक लांछित और अपमानित किया, जिनका खुद का चरित्र निष्कलंक नहीं था।
ऐसे में स्त्री सतीत्व, स्त्री के लिए आभूषण के बजाय विवशता बन गया! जिसे स्त्री ने लम्बे समय तक ढोंग और झूठ के सहारे ढोया और पुरुष के अहंकार को पुष्ट करने का भरसक प्रयास किया। लेकिन यदाकदा इसमें स्त्री असफल होती रही। स्त्री को अनेक बार विवाह पूर्व या पति के परदेश चले जाने पर भी गर्भवती हो जाने पर सामाजिक तिष्कार के करना मौत तक को गले लगाना पड़ा। जिससे स्त्री को मुक्ति दी विज्ञान ने, क्योंकि विज्ञान ने स्त्री को वो साधन उपलब्ध करवाये, जिनके बल पर स्त्री स्वयं इस बात का निर्णय करने में समर्थ और सक्षम हो गयी कि वो जब तक नहीं चाहेगी, अनचाहे गर्भ के कलंक से मुक्त रहकर पुरुष की ही भांति मनचाहे रिश्ते बना सकेगी। आज तो स्त्री यौनिछिद्र एवं कुमारी की प्रतीक झिल्ली तक को फिर से रिपेयर करवाने लगी हैं!
परिणाम ये हुआ कि न केवल स्त्री भी पुरुष की भांति व्यभिचारिणी हो गयी है, बल्कि अनेक स्त्रियाँ पुरुषों से भी से भी बहुत आगे निकल गयी। हमारा सामाजिक तानाबाना भी इस प्रकार का है कि पुरुष की तुलना में स्त्री के पास पुरुषों को लुभाने के अधिकाधिक अवसर हैं, अधिक उपयुक्त और कड़वा सच तो ये है कि स्त्री के पास मनचाहे अवसर हैं! जिसके चलते आज स्त्री विवाह से पूर्व और विवाह के बाद भी लगातार यौन-साथी बदलती रहती है।
जब ये किसी वजह से सम्बन्ध उजागर होते हैं तो कुछ तो आत्महत्या कर लेती हैं और कुछ तलाक मांग लेती हैं, जबकि अनेक नव विवाहिता दहेज़ उत्पीडन का मामला दर्ज करा देती हैं! आज की पीढी के पुरुषों को, स्त्री के साथ पुरुषों के पूर्वजों द्वारा आदिकाल से किये जाते रहे विभेद की सजा मिल रही है। इसके उपरांत भी ये कतई भी नहीं समझा जाना चाहिए कि आज का पुरुष मासूम या निर्दोष है।
हालाँकि अभी भी समाज में ऐसे स्त्री और पुरुष हैं जो अपने चरित्र और आचरण की पवित्रता को सबकुछ समझते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है!