भोपाल // आलोक सिंघई (टाइम्स ऑफ क्राइम)
व्यभिचार करते सीडी में कैद होने के बाद ब्लैकमेल होते रहे डॉ. अशोक शर्मा को शासन ने एक बार फिर निलंबित कर दिया है. उनके खिलाफ विभागीय जांच शुरु कर दी गई है.लेकिन इस प्रक्रिया में इतनी खामियां छोड़ी जा रहीं हैं कि जिनका सहारा लेकर यह भ्रष्ट अधिकारी बर्खास्तगी के दंड से बचने की जुगाड़ तलाशने जुट गया है. स्थिति यह है कि प्रशासन उसे दंडित कराने में असहाय महसूस कर रहा है. स्वास्थ्य विभाग में डॉ. योगीराज शर्मा के बाद डॉ. अशोक शर्मा के खिलाफ की गई कार्रवाई के बाद महसूस किया जा रहा था कि गरीबों की दवाई पर डाका डालने वाला गिरोह अब विदा हो गया है. लेकिन डॉ. शर्मा के खिलाफ जिस तरह की कार्रवाई चल रही है उसे देखकर नहीं लगता कि सरकार पर भ्रष्टाचार का धब्बा लगाने वाले इस अधिकारी को उचित दंड देकर बीमारियों से जूझ रहे प्रदेश के आम लोगों के साथ न्याय किया जा सकेगा. ऐसा मानने के कई आधार साफ नजर आ रहे हैं. विभाग के कर्मचारी नेताओं और स्वास्थ्य विभाग को कई सालों से करीब से देखने वालों का मानना है कि विभाग के भ्रष्ट अफसरों को बचाने वाला दवा माफिया अब भी डॉ. अशोक शर्मा को मरा हाथी सवा लाख का मानकर चल रहा है. भ्रष्टाचार की गंगा बहाने वालों के लिए अब यही वह अधिकारी है जो काली कमाई के सारे राज जानता है. विभाग के मंत्री अनूप मिश्रा से लेकर सचिवालय तक के अफसरों से इसकी सीधी पकड़ है और वह किसी भी हद तक जाकर जनता के खजाने की लूटमार कर सकता है. शासन के उच्च अधिकारियों के बीच अश्लील सीडी कांड के बाद हुई मंत्रणा में यह पाया गया कि उच्च न्यायालय के जजों से सांठ गांठ करने में भी डॉ. शर्मा ने काफी हाथ पैर मारे हैं. जो बातचीत सीडी में दर्ज है उसमें उच्च न्यायालय के जजों को दी जाने वाली रिश्वत की रकम का भी हवाला दिया गया है. बताते हैं कि इस अधिकारी को ब्लैकमेल करने वाले दरअसल खुद को हाईकोर्ट का दलाल बताते हैं और उनका दावा है कि उनकी ही मदद के कारण इस अधिकारी को हाईकोर्ट से स्थगन मिल सका है. इस पूरी प्रक्रिया में स्वास्थ्य मंत्री अनूप मिश्रा से लेकर सचिवालय तक के अफसरों की बदनामी हो रही है. क्योंकि इस अधिकारी के खिलाफ जो जांच चालू की गई थी उसका प्रतिवेदन पहले ही तैयार करके सचिवालय भेज दिया गया था. इसके बावजूद एक महीने चार दिनों बाद इस पर सचिवालय ने अपनी सहमति की मुहर लगाई. यह रिपोर्ट हाईकोर्ट मेें जानबूझकर नहीं भेजी गई. यदि एक साथ छह भ्रष्टाचार के प्रकरणों में जांच की असलियत उजागर हो जाती तो हाईकोर्ट को भी स्थगन देना कठिन हो जाता. 26 मार्च को जैसे ही हाईकोर्ट ने स्थगन दिया उसके बाद 28 अप्रैल को जांच प्रतिवेदन संचालनालय भेजा गया. जबकि इस प्रतिवेदन पर 23 मार्च की तारीख अंकित है. यदि 23 मार्च को तैयार किया यह प्रतिवेदन 26 मार्च को हाईकोर्ट में सरकारी वकील तक पहुंचा दिया जाता तो यह भ्रष्ट अफसर शासन के आदेशों को धता नहीं बता सकता था. अब जब शासन के आला अफसरों ने इस अधिकारी पर अपनी जांच का शिकंजा कसा है तब उससे जुड़े कई सूत्र जांच को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं. सूत्रों का कहना है कि जिस सुरेन्द्र उपाध्याय को जांच अधिकारी बनाया जा रहा है वह डिप्टी कलेक्टर स्तर का अधीनस्थ अधिकारी है. उसे डॉ. शर्मा का दुश्मन बताकर जांच अधिकारी इसलिए बनाया जा रहा है ताकि मिलीभगत से जांच को प्रभावित किया जा सके. इसके अलावा डॉ. शर्मा हाईकोर्ट से जांच अधिकारी की नियुक्ति को ही चुनौती दे सकें. यदि शासन स्वास्थ्य महकमे की तबियत वास्तव में ही सुधारना चाहता है तो उसे अपने ही स्वास्थ्य आयुक्त मनोहर अगनानी पर भरोसा करना होगा. यह जांच उन्हें सौंप दी जाए तभी संभव है कि गरीब की दवा के नाम पर घोटाला करने वालों का राज फाश हो सके. इसके बाद विभाग के संचालक डॉ. ए. के. मित्तल, संयुक्त संचालक डॉ. राकेश मुंशी, डॉ. के. के. ठस्सू, या डॉ. के. एल. साहू जैसे जानकार अधिकारियों को प्रस्तुत कर्ता अधिकारी बनाया जाना चाहिए. ये अधिकारी प्रकरणों के बारे में भी जानते हैं और उनका तबादला विभाग से बाहर भी नहीं किया जा सकता. जबकि सुरेन्द्र उपाध्याय का तबादला होते ही जांच की प्रकिया ढप पड़ जाएगी. यदि प्रस्तुत कर्ता अधिकारी मामले की तह तक नहीं जा सकेगा तो फिर उचित दंड का निर्धारण संभव नहीं है और शासन के आला अफसर अंधेरे में ही रहेंगे. मौजूदा जांच प्रक्रिया पर ही कई सवाल उठाए जा रहे हैं. जैसे हाईकोर्ट के 26 मार्च के आदेश के बाद स्वत: समझ लिया गया कि डॉ. शर्मा का निलंबन समाप्त हो गया है जबकि इस संबंध में शासन ने कोई आदेश निकाला ही नहीं था. निलंबन समाप्ति का आदेश निकाले बिना शासन ने भी यह कैसे मान लिया कि डॉ.शर्मा निलंबित नहीं हैं और इसके बाद उनकी छुट्टी भी मंजूर कर दी गई. इस दौरान उनका कमरा भी खाली नहीं कराया गया और गाड़ी भी वापस नहीं मांगी गई.छुट्टी पाकर वे हाईकोर्ट में अपनी जमावट करने के लिए दलालों के चक्कर काटने लगे और इसी दौरान उनकी अश्लील सीडी बना ली गई जिससे छूटने के लिए उन्हें कथित तौर पर तीस लाख रुपए देने पड़े. इसके बाद भी जब ब्लैकमेलर उनसे डेढ़ करोड़ की फिरौती मांगने लगे तो उन्हें एसटीएफ की मदद दिलाई गई और ब्लैकमेलरों को पकड़ा गया. गौरतलब है कि डॉ. शर्मा ने धार में भी ऐसा ही दवा घोटाला किया था.जिसमें जांच अधिकारी कवीन्द्र कियावत और वित्त अधिकारी रहमान ने कथित तौर पर मिलीभगत के बाद उन्हें बेदाग बरी कर दिया था. आज भी यदि उस जांच को किसी सक्षम अधिकारी से कराया जाए तो डॉ. शर्मा के काले कारनामों की कलई उतारी जा सकती है. यदि उस वक्त सही जांच हुई होती तो डॉ. शर्मा तभी बर्खास्त कर दिए गए होते. ऐसे में संचालक के पद पर रहकर उन्होंने सरकारी खजाने को जो करोड़ों रुपयों की चपत लगाई उससे प्रदेश के लोगों के लिए अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकती थीं. जरूरी है कि इस भ्रष्ट अधिकारी को बुलंदियों तक पहुंचाने वाले नेताओं,अफसरों और दलालों की भी तलाश की जाए ताकि भविष्य में कोई संचालक या अन्य अधिकारी ऐसे गुलगपाड़े न कर सके. इस अधिकारी के सीडी कांड की असलियत भी उजागर होनी चाहिए ताकि पद के लिए सुरा और सुंदरी का नंगा नाच रोका जा सके.
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