By नवल किशोर कुमार
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प्रो कांचा आइलैया देश के उन बुद्धिजीवियों में एक हैं जिन्होंने ब्राह्म्णवाद के खिलाफ़ पूरी तैयारी के साथ मोर्चा खोल रखा है। निर्भिक हो अपनी बात पूरे तथ्यों के साथ रखने वाले कांचा आइलैया मूल रुप से आंध्र प्रदेश के हैं और यादव जाति के हैं। वे इसे स्वयं भी स्वीकारते हैं और कहते हैं कि हां मैं हूं ग्वाले का बेटा। मेरे पिता भेड़ गाय पालते थे और मां दूध निकाला करती थी। यह प्रोफ़ेसर आइलैया की निर्भिकता ही थी कि उन्होंने भारत जहां धर्म के नाम पर अंधे हो चुके लोगों की बहुतायत है, हिंदू होते हुए भी “मैं हिंदू क्यों नहीं हूं” नामक पुस्तक लिखा। प्रोफ़ेसर आइलैया की खासियत है कि उन्होंने कभी अपनी जुबां को बंद नहीं रखा। ब्राह्म्णवाद के पाखंड को जड़ से उखाड़ फ़ेंकने की मुहिम में वे अबतक जुटे रहे हैं। देश के समाजशास्त्र को नयी दिशा प्रदान करने वाले प्रो आइलैया, जो अब देश में बाबा साहब डा भीम राव आंबेदकर के बाद दूसरे ऐसे भारतीय हैं जिन्होंने ओबीसी को देश के बौद्धिक जगत में स्थापित किया। भारत में दलित, पिछड़ा वर्ग और ब्राह्मणवाद के जाल जंजाल के साथ ही नरेन्द्र मोदी के उभार पर प्रस्तुत है प्रो आइलैया से हुई महत्वपूर्ण बातचीत के महत्वपूर्ण अंश–
सवाल– आजादी के छह दशक के बाद भी दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के लिए आरक्षण आवश्यक महसूस होता है। जबकि बाबा साहब डा भीम राव आंबेडकर ने केवल दस वर्षों तक आरक्षण के प्रावधान की बात कही थी। आरक्षण को लेकर सवर्ण भी तरह-तरह के सवाल उठा रहे हैं।
जवाब– आरक्षण अधिकार है वंचित वर्गों का। सदियों से जो शोषण किया है ब्राह्मणों ने अबतक उसकी प्रतिपूर्ति के लिए ही आरक्षण का प्रावधान किया गया था। हजारों वर्षों के शोषण की भरपाई 64 वर्षों के आरक्षण से कैसे पूरा हो सकेगा। जो लोग आरक्षण पर सवाल उठा रहे हैं वे यह भी कहते हैं कि आरक्षण के कारण भ्रष्टाचार को बढावा और कथित तौर पर कम योग्यता वाले लोग सामने आ रहे हैं। लेकिन उनका यह तर्क भी बेबुनियाद और मनगढंत है। मैं तो कहता हूं कि 1990 के पहले क्या जो ब्राह्म्ण नियुक्त हुए थे, वे सब के सब योग्य थे? सब के सब अपने भगवान के अवतार थे? देश के समग्र विकास के लिए आरक्षण जरूरी है। इसके अलावा कोई विक्ल्प नहीं है।
सवाल– आपके अनुसार जाति और धर्म की क्या परिभाषा होनी चाहिए?
जवाब– धर्म बड़ा खतरनाक शब्द है। पहले यह समझना आवश्यक है कि ब्राह्म्ण जिस धर्म की बात करते हैं वह न्याय नहीं अन्याय का पर्याय है। “धर्म” शब्द का मूल “वर्ण धर्म” है। हमें ऐसे शब्द की निंदा करनी चाहिए। वहीं महात्मा बुद्ध का “धम्म” न्याय का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें इंसानों के बीच समानता, स्त्रियों के लिए सम्मान है। मैं समझता हूं जाति एक प्रोफ़ेशनल पहचान है जिसे ब्राह्म्णों ने आजतक बरकरार रखा है। एक मजेदार बात बताऊं। एक बार एक मीटिंग में कुछ ब्राह्म्ण बैठे थे। वे मेरे द्वारा ब्राह्म्णवाद पर लिखे गये एक आलेख के संबंध में टिप्प्णी कर रहे थे। मैंने उनसे कहा कि आप देश के सभी ब्राह्म्ण एक दिन नहीं पूरे एक साल तक एक साथ हड़ताल कर दें। एक वर्ष में देश सुखी हो जाएगा और अगर हम शुद्र जो अनाज पैदा करते हैं, बर्तन बनाते हैं, कपड़े धोते हैं, दुध निकालते हैं, हड़ताल कर दें तो देश के सारे ब्राह्म्ण भूख से मर जायें।
सवाल – क्या नवउदारवाद सामंती ब्राह्म्णवाद का आधुनिक विस्तार है?
जवाब – नहीं, मुझे नहीं लगता है। नवउदारवाद एक विश्वस्तरीय परिघटना है जबकि ब्राह्म्णवाद इसका एक छोटा सा हिस्सा है। लेकिन यह भी सच है कि ये पंडित बड़े चालू चीज होते हैं। हर अच्छी चीज में खुद को पहले शामिल कर लेते हैं और फ़िर उसपर अधिकार जमा लेते हैं। जैसे बुद्ध को भी वे ब्राह्म्णवाद का विस्तार साबित करने पर तुले हैं। संभव है कि कल जब मैं दुनिया में ना रहूं तो वे मुझे समाज सुधारक बताकर मेरा हिन्दूकरण कर दें। इसलिए मैं सभी दलितों और पिछड़ों से कहता हूं कि वे हिंदू बनकर न रहें। वे चाहे इस्लाम स्वीकार लें, बौद्ध बन जायें, ईसाई बन जायें। इसकी वजह यह है कि हिन्दू ब्राह्म्ण कभी अपने मूल स्वभाव का परित्याग नहीं कर सकते हैं।
सवाल – आप खाने के अधिकार के पैरोकार रहे हैं। क्या आपको लगता है कि गाय का मांस या फ़िर सुअर खाना ही इस अधिकार का पर्याय है।
जवाब – मैं तो केवल एक बात कहता हूं कि दलितों और पिछड़ों को खूब मांसाहार खाना चाहिए। फ़िर चाहे वे बकरी खायें, मुर्गा खायें, मछली खायें या फ़िर गाय और सुअर का मांस। मैं यह बात इसलिए कहता हूं क्योंकि दलित और पिछड़ों को शारीरिक रुप से स्वस्थ रहना चाहिए। एक स्वस्थ शरीर में ही एक अच्छा दिमाग भी होता है। कई बार लोग कहते हैं मांसाहार अशुद्ध खाना है जबकि शाकाहार शुद्ध। यह ब्राह्म्णों का भ्रमजाल है जिसे वे फ़ैला रहे हैं। अगर मांस में अधिक प्रोटीन है, अधिक पौष्टिक है तो फ़िर वह अशुद्ध कैसे। मुझे तो सचमुच हंसी आती है जब विदेशों में गाय का मांस बड़े चाव से खाने वाले ब्राह्म्ण भारत में आते ही गौ पूजन करने लग जाते हैं। वैसे मूल बात यह है कि खाद्य संस्कृति अब ग्लोबलाइजेशन का हिस्सा हो गया है। मुर्गा भारत के गांवों में रहने वाले दलित और पिछड़े भी खाते हैं और अमेरिका का राष्ट्रपति भी खाता है। नयी खाद्य संस्कृति जो अब पूरे विश्व में विकसित हो रही है, उसमें पौष्टिकता है और वह बदलते वक्त के हिसाब से है।
सवाल – देश की राजनीति में पहली बार राष्ट्रीय स्तर के शुद्र नेता के ताजपोशी की बात कही जा रही है। इसका विरोध भी सामने आ रहा है। क्या आप मानते हैं कि शुद्र राजनीतिक रुप से सशक्त हो रहे हैं।
जवाब – हां, इसमें कहां कोई शक है कि शुद्र सशक्त हो रहे हैं। यह शुद्रों ने अपनी मेहनत और प्रतिभा के बूते हासिल किया है। इसका विरोध तो ब्राह्म्ण करेंगे ही। वे हर तरीके से शुद्र नेताओं का उपहास उड़ायेंगे। एक उदाहरण लालू प्रसाद यादव का है। जब चारा घोटाला में उनका शामिल किया गया तब कार्टूनों में दिखाया गया कि लालू गाय का दूध दुह रहे हैं। दूध दुहने वाले नेता के रुप में उनका मजाक उड़ाया गया। मुझे कोई बताये कि गाय का दूध दुहना गलत बात है क्या? लालू यादव चरवाहा के बेटे हैं और अगर वे अपने मां-बाप के पेशा पर गर्व महसूस करते हैं तो यह तो अच्छी बात है। मैं ने अपना नाम कांचा आइलैया “चरवाहा” रखा है। क्योंकि मैं चरवाहे का बेटा हूं और मुझे इस बात का गर्व है। आजकल नरेंद्र मोदी का नाम आ रहा है। वह भी पक्का शूद्र है। मोदी अगर शूद्र नहीं होता तो पटेल की जगह किसी देवता की प्रतिमा बनवा रहा होता।
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