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पत्रकार जितेन्द्र चौरसिया की दर्द भरी आपबीती : कोरोना, माँ की मौत और जेके अस्पताल भोपाल |
ANI NEWS INDIA
भोपाल के युवा पत्रकार #जितेन्द्र_चौरसिया ने अपनी मां को खो दिया। उनका दिल मां की मौत को सहज स्वीकार नहीं कर पा रहा है। उन्हें क्यों लगता है कि अस्पताल की लापरवाही ने उनकी मां को छीन लिया है। मां के जाने के बाद जितेन्द्र एक रात भी ढंग से नहीं सो पा रहे। भारी और दुखी मन से आखिर कलम उठाकर जितेन्द्र चौरसिया ने जो आपबीती लिखी है, वह आम लोग पढें या न पढें, लेकिन सत्ता के साकेतों में बैठे जिम्मेदार मंत्रियों और जिम्मेदार अफसरों को जरूर पढ़ना चाहिए
भोपाल। कहते हैं कि होनी विधि का विधान होती है, लेकिन जब किसी सेवा-कार्य में बेईमानी, अमानवीयता और बेहयाई शामिल हो जाए, तो मन में असंतोष बना रहता है। पिछले दिनों मेरी मम्मी की मौत में सिर्फ दो कारण रहे। पहला, मेरा मम्मी को जेके अस्पताल में भर्ती कराना और दूसरा जेके अस्पताल के कामकाज का तरीका, जिसे दुष्चक्र ही कहा जा सकता है।
ये एक गंभीर विषय है, क्योंकि सिर्फ मेरी माँ ही नहीं, ऐसे अनेक मरीज हो सकते हैं, जिनके परिजनों को इस दुष्चक्र ने सदा के लिए छीन लिया होगा। जिस दिन मेरी माँ की मौत हुई, उसी दिन अस्पताल में 5 मौत हुई थी। हो सकता है कि कोई लापरवाही हो, जैसी मेरी माँ के साथ हुई। खास यह भी कि मेरी लिए कलेक्टर सहित कई लोगों ने फोन लगाये और पूरे मन से मदद की, लेकिन अस्पताल प्रबंधन मुझसे, उनसे और अन्य अफसरों से झूठ बोलता रहा। ऐसे में आम आदमी की क्या दुर्दशा होगी, सोचने वाली बात है।
1. घबराकर एडमिट कराया यह गलती की :
वह 10 अप्रैल का दिन था, जब मैं और मम्मी जेके अस्पताल में सीटी स्कैन कराने पहुंचे। हम दोनों ही 7 अप्रैल को पॉजीटिव हुए थे। जेके अस्पताल के डॉ यशवंत से बात हुई थी। किसी अधिकारी के कहने पर उन्होंने मुझे सीटी स्कैन के लिए अस्पताल बुला लिया। सोचा था कि सिटी स्कैन की रिपोर्ट पर तय करेंगे कि आगे क्या करना है। रिपोर्ट में जरूरत होने पर एडमिट हो जाएंगे। इसलिए शाम 6:00 बजे बताएं टाइम पर पहुंचा, तो डॉ यशवंत का मोबाइल बंद था। फिर करीब डेढ़ घंटे परेशान होने के बाद सीटी स्कैन कराने के पैसे जमा कराएं और पर्ची बनवाई। इस सब में करीब 8:00 बज गई। मम्मी ने बीपी की गोली नहीं खाई थी, इसलिए सीटी स्कैन कराने जाते समय कॉरिडोर में चक्कर आने से वह बैठ गई। मुझे भी मम्मी को बीपी की गोली खिलाना ध्यान नहीं रहा। मम्मी को बैठा देखकर डॉक्टर आए और जांच की। डॉक्टर ने कहा, बीपी हाई है, ऑक्सीजन सेचुरेशन भी कम है और उसका लेवल भी कम-ज्यादा हो रहा है। डॉक्टर ने कहा कि मम्मी को इस हालत में लेकर जाना खतरनाक है, तुरंत एडमिट करना चाहिए। मैं घबरा गया और एडमिट कर दिया। समझ नहीं सका कि मम्मी को उस समय कोई समस्या नहीं थी। डॉक्टर के कहने पर भर्ती किया, तो इस पूरी प्रक्रिया में रात के 12:30 बज गए। इतना लंबा समय होने के बावजूद भी उस समय मैं भांप नहीं पाया कि अस्पताल कितना ज्यादा अव्यवस्थित और सिस्टम बेरहम है। ये ही मुझे बाद में भारी पड़ा।
2. बिना ऑक्सीजन का मास्क लगाकर मम्मी को कर दिया क्रिटीकल : 11 अप्रैल पूरे दिन मम्मी बिल्कुल अच्छी रही। मम्मी ने कहा- खाना ठीक है, कोई समस्या नहीं है। इसी तरह 12 अप्रैल रात तक भी मम्मी अच्छी रही। पहली शिकायत मम्मी ने की कि कोई पानी देने तक नहीं आता। फिर भी स्थिति ठीक थी। सुबह से रात तक कम से कम पांच-छह बार बात होती। इंदौर में मामा से भी मम्मी ने बात की। हर बार आधे से एक घंटे लगातार बातें हुई। फिर 12 अप्रैल शाम से देर रात तक तीन बार बात हुई। आखरी कॉल रात 11.30 से 12 बजे के बीच आया होगा। हर बार ये कहा कि मुझे कोई दिक्कत नहीं, लेकिन ये नर्स बार-बार ऑक्सीजन मास्क लगा रही है। इस मास्क को लगाने पर खूब घबराहट हो रही है और न लगाने पर ठीक महसूस कर रही हूँ। मैंने तीनों बार कहा कि नर्स कह रही है, तो लगा लें और घबराहट हो तो हटा देना। मैं उस समय समझ नहीं सका कि शायद, उस मास्क में ऑक्सीजन ही नहीं आ रही थी या फ्लो बेहद कम था। नतीजा ये कि रात को एक घंटे तक अच्छी तरह बात करने वाली मम्मी सुबह तक क्रिटिकल हो गई। सुबह 9-10 बजे मम्मी का फोन आया कि स्थिति अच्छी नहीं हैं , साँस लेने में बहुत ज्यादा दिक्कत है। मैंने कहा कि मैं आ रहा हूँ। मैं घर से निकला ही कि अस्पताल से किसी नर्स का फोन आया कि मम्मी क्रिटिकल कंडीशन में है और आईसीयू शिफ्ट कर रहे हैं। बस, बिना ऑक्सीजन वाले मास्क ने मम्मी को क्रिटिकल कर दिया।
3. मौत तक सिटी स्कैन की रिपोर्ट नदारद : जेके अस्पताल की घोर लापरवाही ऐसी रही कि एडमिट होने के 2 दिन होने पर भी सीटी स्कैन नहीं किया गया। जबकि, हम इसी सीटी स्कैन को कराने अस्पताल पहुंचे थे। अफसरों को फोन लगाएं, अस्पताल प्रबंधन पर दबाव डाला, तब अस्पताल के सेकंड ओनर धर्मेंद्र गुप्ता का फोन आया। उन्होंने कहा कि सीटी स्कैन करा रहा हूं। 12 अप्रैल को तीसरे दिन सीटी स्कैन कराया, लेकिन रिपोर्ट मम्मी की 16 अप्रैल को मौत तक नहीं आई। हर दिन सीटी स्कैन की रिपोर्ट पूछता रहा, लेकिन मिली नहीं। मम्मी क्रिटिकल कंडीशन में हुई, तो डॉक्टरों ने कहा कि रिपोर्ट नहीं आई है, लेकिन मोटे अनुमान के मुताबिक 55 फ़ीसदी लंग इन्फेक्शन हैं। रेमडिसेवर इंजेक्शन लगाने की बात कहकर मुझसे 55 फ़ीसदी इन्फेक्शन होने की जानकारी के सहमति पत्र पर दस्तखत भी कराएं। मैंने प्रबंधन के डॉ यशवंत से सीटी स्कैन की रिपोर्ट पूछी, तो बोले कि रिपोर्ट नहीं आई। उन्होंने कंट्रोल रूम चौहानजी के पास भेजा, उनसे बात की तब भी रिपोर्ट नहीं आई थी। फिर 15 अप्रैल को नाराजगी जाहिर की, तो डॉ यशवंत ने बताया कि रिपोर्ट नहीं आई है, लेकिन पता करके बताया कि 20 से 28 फीसदी लंग्स इंफेक्शन है। मैंने बताया कि आईसीयू में मुझे 55 फीसदी बताया, तो सही क्या? जवाब उनके पास नहीं था। एक और अहम् बात कि जब 16 अप्रैल को मम्मी की मौत हुई, तब तक फ़ाइल में सिटी स्कैन की रिपोर्ट नहीं थी। मैंने खुद आईसीयू में दोपहर 2 बजे फ़ाइल देखी थी।
4. रेमडिसेवर इंजेक्शन की कालाबाजारी के आगे सब बेअसर : रेमडिसेवर इंजेक्शन की जद्दोजहद ने एहसास कराया कि अस्पताल में कितनी कालाबाजारी है। मम्मी क्रिटिकल होकर आईसीयू में पहुंची, तो हाईफ्लो मशीन की ऑक्सीजन पर थी। माँ को अब टाइट वाला आक्सीजन मास्क लगा था। वो बोल नहीं सकती थी। मैं मिला तो मम्मी को साहस आया, घर वालों से फोन पर एकतरफा बात कराई। इससे ऑक्सीजन लेवल 80 से 88-90 तक आ गया, पर बात के बाद फिर 82-84 हो गया। डॉक्टर बोले कि 6 रेमडिसेवर इंजेक्शन लाओ। तब 2 इंजेक्शन लाकर लगवाए। फिर शासन-प्रशासन के अफसरों को फोन किया कि इंजेक्शन नहीं मिल रहे। अफसरों ने अस्पताल प्रबंधन से बात की। माँ के इंजेक्शन अस्पताल पहुँच गए। अस्पताल के सेकण्ड ओनर धर्मेंद्र गुप्ता से बात हुई, तो बोले चिंता मत करो, आपकी माँ के इंजेक्शन रखवा दिए गए हैं। एचओडी डॉक्टर चौधरी का फोन आया कि चिंता मत करो। माँ के इंजेक्शन हैं, उन्हें लगवा रहे हैं। अस्पताल पहुँचा तो आईसीयू में डॉक्टर से पूछा इंजेक्शन आ गए। डॉक्टर बोले कि आप जल्दी लाइए, समय हो गया है । प्रबंधन का हवाला दिया, तो बोले कि इंजेक्शन है ही नहीं और हमें कोई सूचना नहीं। मैं इंजेक्शन के इंतजाम के लिए दौड़ा। अगले दोनों दिन दोपहर 12.30 से शाम 4 बजे तक इंजेक्शन की भाग- दौड़ करके इंतजाम किया। इस दौरान मिस्टर गुप्ता और डॉ चौधरी झूठ बोलते रहे। मैंने ब्लेक मार्केट से इंजेक्शन लाकर लगवाए, तो अस्पताल ने अफसरों को मैसेज किया कि उन्होंने मेरी मम्मी को इंजेक्शन लगवा दिए हैं। वो ही मैसेज मुझे अफसरों ने किये, तो उन्हें सच बताया कि मैं लेकर आया हूँ और अस्पताल प्रबंधन झूठ बोल रहा है। इंजेक्शन के लिए तमाम अफसरों का मदद करना, फोन करना भी काम नहीं आया। शासन-प्रशासन ने भरपूर मदद की, लेकिन अस्पताल उन्हें और मुझे दोनों को झूठ बोलता रहा। तब, महसूस किया कि अस्पताल माफिया कितना निर्मम होता है। एक बात और कि जब आखरी के दो रेमडिसेवर इंजेक्शन डॉक्टर को लगाने दिए, तो एक बार 15-20 मिनट और एक बार करीब आधे घंटे वे इधर-उधर करते रहे। मुझे पता नहीं मेरे लाये इंजेक्शन ही मम्मी को लगाएं या बदल दिए। जब जेके अस्पताल में ही रेमड़ीसेवर के बदले पानी के इंजेक्शन लगाने वाली नर्स पकड़ाई, तब पहली बार मुझे मेरे दिए इंजेक्शन लगाने में देरी पर संदेह हुआ। लेकिन, अब भी इस बारे में पता नहीं। अब फिर अस्पताल के लोग इंजेक्शन की कालाबाजारी में सामने आएं हैं।
5. एचओडी बोलते रहे झूठ : जिस तरह माँ की मौत तक सिटी स्कैन रिपोर्ट के अते-पते नहीं थे, वैसे ही अस्पताल के अंधे इलाज की पोल डॉ चौधरी की बातों से और खुली। डॉ चौधरी ने फोन पर कहा कि माँ के इंजेक्शन लग रहे हैं। ऑक्सीजन लेवल 96-97 है और 8 लीटर ऑक्सीजन पर है। उन्होंने इसका मैसेज भी किया। मुझसे फोन पर डॉ चौधरी बोले कि दो प्लाज्मा की व्यवस्था कर लो तुरंत। इसके बाद मैं आईसीयू में पहुँचा, तो डॉक्टर्स से पूछा कि प्लाज्मा की जरुरत है, तो जवाब मिला कि नहीं, किसने कह दिया? अभी जरुरत नहीं। फिर मैंने पूछा कि मम्मी कितनी ऑक्सीजन पर है, तो बताया गया कि 15 लीटर पर है। इसके बाद मैंने खुद ऑक्सीजन लेवल देखा, तो पाया कि सेचुरेशन 88-90 चल रहा है। डॉ चौधरी की तीनों बातें गलत पाई। यानी डॉ चौधरी गैर-जिम्मेदार तरीके से हवा में बातें कर गए। वो भी तब, जबकि कलेक्टर सहित अन्य अफसरों के फोन उन्हें गए थे। सोचिये, आम मरीजों के साथ क्या करते होंगे। अस्पताल के इस झूठ और अमानवीयता को मैं इसलिए जान पा रहा था कि कोविड पॉजीटिव होने के कारण माँ की हालत देखने मैं स्वयं हर दिन खुद आईसीयू में सुबह-शाम जा रहा था और लगभग एक घंटा रुकता ही था। सोचिए, उन परिजनों के बारे में जिनके कोरोना मरीज अंदर है और वे अंदर नहीं जा सकते। यानी वो तो जान ही नहीं सकते कि उनके मरीज के साथ अंदर क्या अनर्थ हो रहा है?
6. ऑक्सीजन का पानी ख़त्म, डॉक्टर-नर्स लापरवाह : जिस दिन मम्मी क्रिटिकल हुई, उसी दिन 13 अप्रैल की बात है। दोपहर में मम्मी के पास आईसीयू में था। करीब एक घंटे बाद मम्मी अचानक हाथ मारने लगी, इशारे से घबराहट का संकेत दिया, तो मैंने नर्स-डॉक्टर को आवाज लगाई। दोनों ने हाँ करके फिर अनसुना कर दिया। मैंने देखा तो मम्मी के टाइट आक्सीजन मास्क में बबल आने लगे थे। फिर नर्स-डॉक्टर को
बुलाया तो नहीं आए। तीसरी बार नाराजगी में बुलाया तो आए। मैंने कहा कि मम्मी को घबराहट हो रही है, देखिये क्या हुआ। दोनों ने कहां- कुछ नहीं, सब ठीक है। मैंने कहा कि मास्क में बुलबुले आ रहे है, तो जवाब मिला कि कोई बात नहीं कभी-कभी होता है, अभी चले जाएंगे। मैंने नाराज होकर कहा कि अभी एक घंटे से नहीं थे, अभी आने लगे। मम्मी छटपटा रही है, देखिए कहीं ऑक्सीजन तो खत्म नहीं हो गई ? इस पर नर्स और डॉक्टर साहब बोले- कैसी बात करते हो, आक्सीजन खत्म नहीं हुई है। इस पर मैंने कहा कि फिर बबल क्यों आ रहे हैं, तब जाकर नर्स को समझ में आया कि ऑक्सीजन पाइप के एक हिस्से में लगने वाला पानी खत्म हो गया है। वह दौड़ी और झट बॉटल लाकर पानी भरा। इस पर मैं अवाक रह गया! मैंने नाराज होकर कहा कि यह क्या बात हुई? यदि अभी मैं नहीं आता या 10 मिनट और ऐसा ही रहता, तो क्या हो जाता? यह सुनकर डॉक्टर मुझ पर नाराज हो गए। जहां तक मुझे याद है, वे डॉक्टर नियाज थे। वे मुझ पर बरस पड़े, बोले कि आप यहां कैसे हो? किसने आपको आईसीयू में आने की परमिशन दी? मैंने कहा कि वह अलग बात है, अभी आप यह देखिए कि यदि इस मशीन में पानी नहीं भरा जाता, तो क्या होता? इस पर डॉक्टर ने नाराज होकर कहा कि आप डॉक्टर हो या मैं हूं। मैंने कहा ऐसी बात नहीं है, लेकिन लापरवाही क्यों ? डॉक्टर ने नाराज होकर कहा कि हमें तय करना है कि क्या इलाज हो रहा है, आप यहां आए किसलिए? डॉक्टर को ज्यादा नाराज होता देख मैंने चुप रहना ही ठीक समझा। माँ क्रिटीकल थी, ऐसे में मैं कोई विवाद नहीं चाहता था, इसलिए बाहर आ गया। डॉक्टर नाराज होते रहे, मैंने चीजों को टालना चाहा, इस पर डॉक्टर ने फिर कहा कि आप यहां खड़े हो, क्या इसलिए कि हमारी चूक निकाल सको। मैंने समझाना चाहा, लेकिन वे नहीं समझे। फिर मैंने विवाद टालने के लिए बाहर आना उचित समझा। लेकिन, काश उस समय इन नर्स और डॉक्टरों की लापरवाही को भांप कर गंभीरता से लेता, तो मम्मी ना जाती।
7. ऐसी अमानवीयता कि यकीन नहीं हो : जेके अस्पताल में ऐसी अमानवीयता भी हुई कि कभी-कभी यकीन नहीं होता। हम घर पर पौष्टिक भोजन खाकर भी कमजोरी महसूस कर रहे हैं, लेकिन वहां मम्मी को शायद तीन दिन भूखा रखकर मार दिया गया। यह आशंका इसलिए कि अस्पताल की कालाबाजारी ने लिक्विड डाइट में भी पैसा देखा। बात 14 अप्रैल की है। दोपहर में जब मम्मी के पास था, तो डॉक्टर से मम्मी की हालत को लेकर बात कर रहा था। फाइल देखते-देखते डॉक्टर के मुंह से निकला कि अरे इनकी लिक्विड डाइट लिखी है, लेकिन आई नहीं। फिर डॉक्टर को लगा कि मेरे सामने यह नहीं बोलना चाहिए था, इसलिए तुरंत फाइल बंद की और मुझसे कहा कि आप लिक्विड डाइट (तरल भोजनके रूप में दवा) अरेंज करो। मैंने कहा ठीक है, लाता हूं। इस पर एक डॉक्टर ब्रजमोहन शर्मा ने कहा कि यही तुरंत अरेंज करा दें क्या? मैंने कहा कि बिल्कुल तुरंत अरेंज करा दीजिए। इस पर डॉक्टर ने किसी को फोन किया और लिक्विड डाइट का पैकेट बुलवा दिया। डॉक्टर शर्मा का मोबाइल नंबर भी मैंने ले लिया। फिर मैंने डाइट के 3500 रूपये दिए और डॉक्टर को वह डाइट मम्मी को लगाने के लिए कहा। अब डॉक्टर डाइट लगाने को तैयार नहीं। करीब 1 घंटे तक वह मुझे इधर-उधर करते रहे। उस समय यह समझ नहीं पड़ी कि इस लिक्विड डाइट को भी बिना लगाए वापस भेजा जा सकता है, लेकिन अब आशंका है कि शायद वह लिक्विड डाइट भी मम्मी को नहीं दी गई हो। दूसरे दिन 15 अप्रैल को फिर मैंने डॉक्टरों से पूछा कि कोई लिक्विड डाइट मम्मी को दी गई है क्या? डॉक्टर ने कहा कि आपको ही लाना है। इस पर मैंने पहले डॉक्टर ब्रजमोहन शर्मा को फोन लगाया, पर उस समय फोन अटेंड नहीं हुआ। इस पर अस्पताल की ही मेडिकल शॉप पर गया और ₹4000 की लिक्विड लेकर आया। फिर वही हालात 1 घंटे तक डॉक्टर-नर्स को कहता रहा कि मम्मी को डाइट लगा दें। लेकिन नर्स और डॉक्टर कहते रहे कि बस लगा रहे हैं, चिंता मत करिए। करीब सवा घंटे बाद में आईसीयू से निकलकर आ गया। तब ऐसी समझ नहीं पड़ी, लेकिन शायद अस्पताल में मेरी लाई लिक्विट डाइट मम्मी को नहीं दी गई। ऐसे में 3 दिन की भूखी मम्मी क्या कोरोना से लड़ेगी। मुझे पूरी आशंका है कि अस्पताल में मेरी लाई लिक्विड डाइट भी बेच दी गई। अस्पताल की ओर से पहले से फाइल में लिखी गई लिक्विड डाइट तो बेचीं ही जा चुकी थी। इस तरह एक ही मरीज की दो लिक्विड डाइट उन लोगों ने चंद पैसों के लिए बेच दी। मुझे अभी भी याद है, माँ बोल नहीं पा रही थी। कुछ बेसुध सी थी, लेकिन मुझे देखते ही हाथ के इशारे से पूछा था कि क्या मैंने खाना खा लिया। मम्मी का वो इशारे से पूछना अब मैं जिंदगीभर भूल नहीं सकता। मैंने मम्मी को कहा था कि मैंने खा लिया है और तेरे लिए ये लिक्विड डाइट लाया हूँ। अभी डॉक्टर लगा देंगे, लेकिन मुझे शायद पता नहीं था कि मेरी माँ भोजन की जितनी भूखी थी, शायद उससे कही ज्यादा अस्पताल का अमला पैसों का भूखा था।
8. शिफ्ट न कर सका चिरायु में : 14 अप्रैल तक अहसास हो गया था कि जेके अस्पताल ठीक नहीं है। 14 अप्रैल को चिरायु अस्पताल के डॉ अजय गोयनका से बात हुई, पर डॉ गोयनका ने माँ को भर्ती करने के लिए हाँ नहीं की। फिर 15 अप्रैल को चिरायु अस्पताल में मम्मी को शिफ्ट करने के प्रयास और तेज किए। इसमें अधिकारियों ने पूरी मदद की और शाम 5.30 बजे तक पता चला कि डॉ गोयनका ने हाँ कर दी है। जेके अस्पताल को डिस्चार्ज फ़ाइल बनाने के लिए कहा गया। इसके बाद मैंने डॉक्टर यशवंत से बात की। उन्हें कहा कि अस्पताल के डॉक्टर की सलाह भी चाहिए कि शिफ्ट किया जा सकता है या नहीं? रास्ते में कोई दिक्कत न हो। डॉ यशवंत ने डॉक्टरों से बात कराने की बात कही। फिर मैं खुद आईसीयू में चला गया। वहाँ डॉक्टर्स से पूछा कि शिफ्ट करने में कोई रिस्क तो नहीं, तो डॉक्टर्स ने कहा कि आक्सीजन सपोर्ट के साथ शिफ्ट कर सकते हैं, कोई दिक्कत नहीं। लेकिन, यह सब करते डिस्चार्ज फ़ाइल तैयार होने में रात की 9 बज गई। कोरोना पॉजीटिव होने के कारण तब तक मैं काफी थक गया था। दोपहर करीब 1 बजे से रेडमिसिवर इंजेक्शन की जद्दोजहद में था और शाम 5 बजे इंजेक्शन लगवा सका था। थकने के कारण सोचा कि अब कल शिफ्ट करूँगा, क्योंकि चिरायु में एडमिट होने में भी एक घंटे की प्रक्रिया और एक घंटे का रास्ता होने का अनुमान था। इस कारण शिफ्ट करना अगले दिन पर टाला। मैं वही आईसीयू में रात करीब पौने ग्यारह तक मम्मी के पास रहा। फिर लौट आया, लेकिन अगले दिन सुबह माँ बहुत दूर जा चुकी थी।
9. मौत पर भी झूठ : 16 अप्रैल वह मनहूस दिन! सुबह मैं उठा और इस मन से तैयार हुआ कि आज माँ को शिफ्ट करा दूंगा। करीब 10:45 बजे घर से रवाना हो गया। देर इसलिए हुई कि कमजोरी के कारण खुद गाड़ी नहीं चला पा रहा था, इसलिए किसी को गाड़ी चलाने के लिए बुलाया था। दूसरा कि दस बजे अस्पताल में ड्यूटी शिफ्ट चेंज होना बताया था, इसलिए मंशा थी कि इसके बाद ही अस्पताल जाऊ। मैं रास्ते में था। करीब भोज विवि तक पहुँच गया था, तभी डॉक्टर का फोन आया। शायद डॉक्टर नियाज थे। उन्होंने कहा कि मम्मी बहुत क्रिटीकल है। हम उन्हें वेंटिलेटर पर शिफ्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें उनकी मौत भी हो सकती है। मैंने कहा कि मैं रास्ते में हूँ, आ रहा हूँ। डॉक्टर की बातों से अनहोनी की आशंका होने लगी थी। करीब 15 मिनट में अस्पताल पहुँच गया। फिर आईसीयू में गया, तो देखा कि मम्मी बिना ऑक्सीजन मास्क के लेटी है। मुझे समझ नहीं पड़ी। डॉक्टर से पूछा तो कहा कि मम्मी नहीं रही। डॉक्टर बोले- हमने कोशिश की, लेकिन नहीं बचा सके। मैंने पूछा ये कैसे हुआ, तो जवाब मिला कि हृदय की गति और ऑक्सीजन लेवल कम होता गया। कुछ मिनट समझ नहीं पड़ी, फिर देखा तो पाया कि आईसीयू में मरीजों को दौड़-दौड़ कर ऑक्सीजन सिलेंडर लगाएं जा रहे हैं। ऐसा इसलिए कि शायद ऑक्सीजन ख़त्म हो गई थी या फ्लो बहुत ज्यादा कम था। मैंने पूछा कि क्या ऑक्सीजन ख़त्म हो गई, डॉक्टर बोले नहीं ऐसा नहीं है। जबकि, मेरी आँखें देख रही थी कि बाहर से सिलेंडर लाकर मरीजों को लगाएं जा रहे हैं। मैंने महसूस किया कि शायद ऑक्सीजन ख़त्म होने से मम्मी पहले ही चली गई थी और ये लापरवाह डॉक्टर-नर्स देख ही नहीं पाए। मम्मी के जाने के बाद ही उन्हें ऑक्सीजन ख़त्म होने की समझ पड़ी। लेकिन, अपनी गलती कौन मानता है? इसलिए डॉक्टर पूरी बेहयाई से बोलते रहे कि हमने तुम्हारी मम्मी को बचाने की कोशिश की।
10. मुझसे ही बोले कि इंजेक्शन के बिल लाओ : रेमडिसेवर इंजेक्शन की कालाबाजारी और ऐसे अपराधियो को प्रबंधन के प्रश्रय का नजारा भी दिखा। 15 अप्रैल को जब मैंने ब्लैक मार्केट से इंजेक्शन लाकर लगवा दिया, तो पता चला कि इंजेक्शन की एक खेप अस्पताल भी आई है। इस पर मैं इंजेक्शन देने वाले अस्पताल प्रबंधन के संजय गुप्ता के पास पहुंचा। यह संजय गुप्ता जरूर सेकंड ओनर धर्मेंद्र गुप्ता के कोई रिश्तेदार होंगे, क्योंकि इनके तेवर-बेहयाई इन पर प्रबंधन के हाथ का साफ इशारा करती थी। वहां एक पर्ची बना कर दी गई। इस पर्ची को मेडिकल शॉप पर देकर एक इंजेक्शन लेने के लिए कहा गया। इसके ₹5000 भी ले लिए गए। इसके बाद मैं अस्पताल की मेडिकल शॉप पर पहुंचा, तो कहा गया कि अभी 1 से 2 घंटे और लगेंगे, फिर इंजेक्शन मिल सकेंगे। इस पर मैं वह पर्ची लेकर वापस आईसीयू में मम्मी के पास आ गया। थोड़ी देर बाद परिसर में ही घूम कर आया। फिर करीब ढाई घंटे बाद मैं मेडिकल शॉप पर पहुंचा, तो बताया गया कि इंजेक्शन खत्म, अब कल मिलेंगे। उन्हें पर्ची दिखाई, तो कहा कि कल आना। अगले दिन 16 अप्रैल थी। सुबह 11.30 बजे मम्मी चली गई। दिनभर अस्पताल में रहा, तो शाम 4 बजे मेरे साथी को कहा कि ये पर्ची लेकर जाओ। मेडिकल या संजय गुप्ता से इंजेक्शन या पैसे वापस ले आओ। दोनों ने मेरे साथी को ये कहकर लौटा दिया कि इंजेक्शन तो मेरी मम्मी के पास भेजकर लगवा दिया है। फिर मैं पहले मेडिकल शाप और फिर संजय गुप्ता के पास गया। गुप्ता ने कहा कि मेडिकल से नर्स के जरिये मम्मी के पास इंजेक्शन भेजा है। मैंने कहा कि पर्ची मेरे पास है, फिर कैसे इंजेक्शन दिया? और इंजेक्शन तो मैंने ब्लैक मार्केट से लाकर लगवाया है। इस पर गुप्ता ने कहा कि लाओ बिल दिखाओ। मैंने कहा कि छोड़िए, आप तो मना कर दो की नहीं दोगे। इस पर गुप्ता ने कहा कि प्रबंधन के कहने पर इंजेक्शन दिए, अब प्रबंधन कहेगा, तो पैसे वापस दे देंगे। मैंने कहा कि ठीक है, बात ख़त्म। मैं वापस आकर अस्पताल द्वारा माँ की पार्थिव देह मिलने का इंतजार करने लगा। थोड़ी देर बाद संजय गुप्ता का फोन आया, फिर चिड़चिड़ाते मुझे बुलाया और इंजेक्शन के 5000 रूपये लौटा दिए।
11. ऑक्सीजन उपलब्धता का खेल भी जान लीजिए : सरकार के रिकार्ड में अब तक भोपाल में ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई। जेके अस्पताल की बात की जाए, तो कई दिनों तक आईसीयू में आने-जाने और कई लोगों से बात करने के कारण पता चला कि जेके अस्पताल में एक ऑक्सीजन टैंक है। इस आक्सीज टैंक से पाइप लाइन के जरिए पूरे अस्पताल में ऑक्सीजन सप्लाई होती है। सबसे पहले ग्राउंड फ्लोर पर आईसीयू में पहुंचती है, फिर फर्स्ट फ्लोर, फिर सेकंड फ्लोर, थर्ड फ्लोर और अंत में फोर्थ फ्लोर तक जाती है। मेरी मम्मी शुरुआत में फोर्थ फ्लोर पर भर्ती थी। ऑक्सीजन की कमी और फ्लो कम होने के कारण फोर्थ फ्लोर तक ऑक्सीजन नहीं पहुँची या कम पहुची, इसी कारण मम्मी क्रिटिकल हुई। उस समय डिमांड के हिसाब से जितनी बार टैंक पर आपूर्ति होनी चाहिए, उससे आधी हो रही थी। इसलिए जैसे ही टैंक में 50 फ़ीसदी ऑक्सीजन रहती, वैसे ही रात के समय ऑक्सीजन प्रबंधन का स्टाफ ऑक्सीजन के फ्लो को कम कर देता। इसका अंजाम जो हो, पर अस्पताल पूरे गर्व से कहता कि अभी तो हमारे पास अगले 12 या 14 घंटे की ऑक्सीजन है। यहाँ के एक डॉक्टर ने बताया कि जेके में रात में ऑक्सीजन बेहद कम होने पर चिरायु अस्पताल तक टैंकर मांगने गए थे, पर मिले नहीं। संभवतः इसी कमी का शिकार मेरी मम्मी और अस्पताल में भर्ती कुछ मरीज हुए। जिस दिन मेरी मम्मी की मौत हुई, उसी दिन जेके अस्पताल में 5 मौतें हुई थी। मालूम नहीं, अस्पताल ने उनके मरने की वजह अपने रिकार्ड में क्या दर्ज की!