Thursday, August 28, 2025

उपराष्ट्रपति चुनाव: डॉ. जगदीप धनखड़ के इस्तीफे से गरमाई राजनीति, लोकतांत्रिक व्यवस्था में लगी कालिख कभी नहीं मिटाई जा सकेगी

 


उपराष्ट्रपति का चुनाव तो हो जायेगा लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में लगी कालिख कभी नहीं मिटाई जा सकेगी

उपराष्ट्रपति का चुनाव तो हो जायेगा लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में लगी कालिख कभी नहीं मिटाई जा सकेगी

भोपाल // विजया पाठक, एडिटर, जगत विजन

भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब वर्तमान उपराष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल की पूर्णावधि से पहले ही इस्तीफा दे दिया हो। डॉ. जगदीप धनखड़ के अचानक दिए गए इस्तीफे ने न केवल राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और सत्तारूढ़ दल भाजपा के लिए भी यह गहन चिंतन और मनन का विषय बन गया है। इसी के साथ चुनाव आयोग ने उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव की तारीख घोषित कर दी है, जिसके बाद एनडीए और यूपीए दोनों ने अपने-अपने प्रत्याशी मैदान में उतार दिए हैं। अब देश की निगाहें इस चुनावी मुकाबले पर टिकी हैं।

इस तरह तैयार हुई इस्तीफे की पृष्ठभूमि
डॉ. जगदीप धनखड़, जिन्होंने अपने राजनीतिक और कानूनी कौशल से उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति के रूप में पहचान बनाई थी, अचानक इस्तीफा देकर सबको चौंका दिया। अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि उनका इस्तीफा निजी कारणों से है, राजनीतिक दबाव का परिणाम है या फिर किसी गहरी असहमति का संकेत है। राजनीतिक सूत्रों का मानना है कि पिछले कुछ महीनों से धनखड़ और सत्ता पक्ष के बीच संसदीय कार्यप्रणाली और विपक्ष के मुद्दों पर मतभेद बढ़ते जा रहे थे। विपक्ष का कहना है कि धनखड़ कई मौकों पर भाजपा की लाइन से हटकर तटस्थ रुख अपनाते रहे, जिससे पार्टी नेतृत्व असहज महसूस कर रहा था। वहीं भाजपा समर्थक नेताओं का कहना है कि इस्तीफा एक व्यक्तिगत निर्णय है और उसे राजनीति से जोड़कर देखना सही नहीं होगा।

पहली बार घटित हुई ऐतिहासिक घटना
भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में इससे पहले किसी उपराष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल की समाप्ति से पहले इस्तीफा नहीं दिया था। यह पहला अवसर है जब संवैधानिक परंपरा और राजनीतिक परिदृश्य दोनों को एक झटका लगा है। इससे साफ जाहिर होता है कि देश की राजनीति अब नए दौर में प्रवेश कर रही है, जहाँ संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति भी असहमति जताने से पीछे नहीं हट रहे।

भाजपा और एनडीए के लिए चिंता
भाजपा के लिए यह इस्तीफा एक बड़ा झटका माना जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की रणनीति हमेशा से यह रही है कि संवैधानिक पदों पर पार्टी के भरोसेमंद और अनुशासित नेताओं को जगह दी जाए। लेकिन धनखड़ के इस्तीफे ने इस रणनीति पर सवाल खड़े कर दिए हैं। भाजपा की चिंता यह भी है कि विपक्ष इस घटना को “लोकतांत्रिक असंतोष” के रूप में पेश कर सकता है और आने वाले चुनावों में इसे जनता के बीच भुना सकता है। वहीं एनडीए को अब नया चेहरा तलाशने की चुनौती है, जो न केवल उपराष्ट्रपति पद की गरिमा निभा सके बल्कि राजनीतिक समीकरणों में भी संतुलन बैठा सके।

एनडीए और यूपीए के प्रत्याशी मैदान में
एनडीए की ओर से इस बार एक वरिष्ठ नेता सीपी राधाकृष्‍णन को चुना है। पार्टी का मानना है कि इससे भाजपा की समावेशी राजनीति की छवि और मजबूत होगी। यूपीए ने एक प्रखर संवैधानिक वकील और पूर्व राज्यसभा सदस्य सुदर्शन रेड्डी को मैदान में उतारा है, जिनका झुकाव लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता की रक्षा करने की ओर माना जाता है। यह मुकाबला अब केवल दो व्यक्तियों के बीच नहीं, बल्कि दो विचारधाराओं के बीच का संघर्ष माना जा रहा है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल
धनखड़ का इस्तीफा उस समय आया है जब देश में संसद की कार्यप्रणाली पर पहले से ही सवाल उठ रहे हैं। विपक्ष लगातार कहता आया है कि संसद में उनकी आवाज़ दबाई जाती है और संसदीय परंपराओं का पालन नहीं हो रहा। उपराष्ट्रपति का पद मूलतः तटस्थ और संतुलित होना चाहिए, लेकिन अगर वहाँ भी दबाव और असहमति की स्थिति बनती है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएँ सचमुच स्वतंत्र रूप से काम कर पा रही हैं या वे सत्ताधारी दल के प्रभाव में झुक रही हैं। आम जनता के लिए उपराष्ट्रपति का पद भले ही सीधे जीवन से जुड़ा न लगे, लेकिन ऐसी घटनाएँ नागरिकों के भरोसे को प्रभावित करती हैं। लोग यह सवाल उठाने लगे हैं कि यदि देश का दूसरा सबसे बड़ा संवैधानिक पद भी स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पा रहा, तो फिर लोकतंत्र की रक्षा कौन करेगा? सोशल मीडिया पर इस मुद्दे पर बहस छिड़ गई है, जहाँ लोग इस्तीफे को लोकतंत्र की चेतावनी बता रहे हैं।

आने वाले चुनाव पर होगा असर
इस इस्तीफे और उपराष्ट्रपति चुनाव का असर केवल संसद भवन तक सीमित नहीं रहेगा। भाजपा के लिए यह अग्निपरीक्षा होगी कि वह अपने उम्मीदवार को जिताने के साथ-साथ पार्टी की छवि को भी बचा पाए। विपक्ष को एक बड़ा मुद्दा मिल गया है, जिसे वह आगामी लोकसभा चुनावों तक उछाल सकता है। वहीं क्षेत्रीय दलों की भूमिका भी निर्णायक होगी क्योंकि वे दोनों खेमों के लिए समर्थन जुटाने में अहम साबित हो सकते हैं। डॉ. जगदीप धनखड़ का इस्तीफा भारतीय लोकतंत्र के लिए एक असामान्य और ऐतिहासिक घटना है। यह न केवल संवैधानिक परंपरा पर सवाल खड़े करता है, बल्कि राजनीतिक दलों की कार्यशैली को भी कठघरे में खड़ा करता है। भाजपा और एनडीए के लिए यह आत्ममंथन का समय है कि आखिर किन परिस्थितियों ने उपराष्ट्रपति को ऐसा कदम उठाने पर मजबूर किया। वहीं विपक्ष इसे जनता के बीच लोकतांत्रिक असंतोष के प्रतीक के रूप में भुनाने की पूरी कोशिश करेगा।

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