भोपाल//आलोक सिंघई (टाइम्स ऑफ क्राइम)
मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी में इन दिनों उदासीनता का दौर छाया हुआ है. प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद की कमान जल्दी ही किसी नए इलाकेदार को थमाई जानी है. बीच में तो कुछ अखबारों ने खबरें भी छाप दी थीं कि गजेन्द्र सिंह राजूखेड़ी पार्टी के नए प्रदेश अध्यक्ष होंगे. हालांकि बाद में कुछ बदलाव नजर नहीं आया क्योंकि हाईकमान ने इसके लिए कोई और तारीख मुकर्रर करने की बात कहकर मामला ठंडा कर दिया. अब पार्टी हाईकमान को दिल्ली का बवेला थमने का इंतजार है. उम्मीद की जा रही है कि नए साल में पार्टी अपना नया अध्यक्ष भेजेगी जो कांग्रेस के वाकओवर को चुनौती में बदलने का प्रयास करेगा.
दरअसल पूरे देश में भाजपा और क्षेत्रीय पार्टियों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए देश में एकदलीय शासन की परिपाटी बदलती जा रही है. ये माना जाने लगा है कि क्षेत्रीय दलों से तालमेल करके बेहतर शासन दिया जा सकता है. इसके चलते राजनीतिक दलों ने अपने प्रबंधन की शैली में बदलाव किया है. बिहार की हार के बाद कांग्रेस में क्षेत्रीय दलों की बढ़ती चुनौतियों पर नए सिरे से चिंतन करने की जरूरत महसूस हो रही है. मध्यप्रदेश में तो ताजा बदलाव की बयार वह खुफिया रिपोर्ट ला रही है जो दो साल पहले दस जनपथ के पास पहुंच चुकी थी. पिछले विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी हाईकमान ने यह रिपोर्ट तैयार कराई थी. जिसमें कांग्रेस की हार की समीक्षा की गई थी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि सुरेश पचौरी के नेतृत्व में पार्टी की सत्तर सीटों पर टिकिटों की खरीद फरोख्त की गई है. इन विधायकों ने पचौरी खेमे को सीट के मुताबिक चालीस लाख से एक करोड़ रुपए तक भेंट चढ़ाई थी.इनमें से 22 सीटों पर कांग्रेस को लगभग एक हजार मतों के अंतर से हार का सामना करना पड़ा. महाकौशल क्षेत्र के एक दिग्गज नेता तो आठ करोड़ रुपए देकर पचौरी की मदद से आठ टिकिट कबाड़े.कई विधायकों ने टिकिट पाने के लिए पजेरो गाड़ियां भी नजराने के रूप में भेंट कीं तब जाकर उन्हें कांग्रेस के चिन्ह पर लड़ने का अवसर मिल सका.
मजेदार बात तो ये है कि कथित तौर पर टिकिट खरीदने वाले इन विधायकों को पार्टी का संबल भी नहीं मिला. कुछ सीटों पर तो भाजपा प्रयाशियों की हार की घोषणा हो जाने के बाद पुनर्गणना के माध्यम से उन्हें विजयी घोषित कर दिया गया. पचौरी खेमे ने उन सीटों पर भी प्रशासन से अपना प्रतिरोध दर्ज नहीं कराया. नतीजतन धांधली चल गई और कांग्रेस को दो अंकों में ही सिमट जाना पड़ा.
इसी प्रकार लोकसभा के लिए 29 सीटों पर कांग्रेस का चुनाव चिन्ह पाने के लिए कांग्रेसियों को पार्टी फंड तो मिला नहीं उलटे उन्हें एक करोड़ से पांच करोड़ रुपए का चंदा भेंट करना पड़ा. यह सौदा लगभग 18सीटों पर हुआ और उनमें से ज्यादातर सांसद हार भी गए.
बाद में स्थानीय निकायों के चुनावों में भी पार्टी को इसी प्रकार के व्यापारिक गणित का सामना करना पड़ा. टिकिट बाकायदा बेचे गए और फिर टिकिट खरीदने वालों को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया. पार्टी के चुनाव कैंपेन में भी कसावट नहीं थी और ज्यादातर बड़े क्षत्रपों को इस खरीद फरोख्त की जानकारी मिल गई. नतीजतन उन्होंने भी कांग्रेस की जीत के बजाए स्थानीय नेताओं को जिताने में ज्यादा रुचि ली.यह चुनाव पूरी तरह से पार्टी विचारधारा से अलग सिर्फ स्थानीय जरूरतों के आधार पर लड़ा गया चुनाव था. इस चुनाव में भी पार्टी की विचारधारा ने प्रत्याशियों को फायदा नहीं दिलाया.
पचौरी की कार्यशैली हाईकमान के लिए नए विवादों का कारण बन गई है. अब तक वे स्थानीय नेताओं और क्षत्रपों से अपना तालमेल नहीं बिठा पाए हैं. अपने स्वभाव और चंद सहयोगियों की कोटरी के चलते उन्होंने पार्टी का ताना बाना छिन्न भिन्न कर दिया है. कहा जाता है कि पचौरी सनाड्य ब्राह्मण हैं और वे अन्य ब्राह्मणों के राजनीतिक हितों को साधने में बुरी तरह असफल साबित हो रहे हैं. कान्य कुब्ज, सरयूपारी, और नार्मदीय ब्राह्मणों की राजनीतिक चेतना मध्यप्रदेश में ज्यादा असरकारी है एसे मे ब्राह्मण उन्हें अपना नेता मानने तैयार नहीं हैं. पचौरी के बारे में शुरु से कहा जाता है कि वे या तो सनाड्य ब्राह्मणों पर भरोसा करते हैं या फिर धनाढ्य ब्राह्मणों पर. गरीब गुरबे ब्राह्मण तो पचौरी से ज्यादा ठाकुरों से जुड़ गए हैं. एसे में कांग्रेस को अपना जमीनी आधार खड़ा करने में खासी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.
मध्यप्रदेश में स्थानीय ठाकुरों के भाजपा में पलायन के बाद से कांग्रेस ने ब्राह्मणों के माध्यम से सत्ता के समीकरण अपने पक्ष में करने का जो कार्ड खेला था उसे पचौरी और उनके सहयोगी भुना नहीं पाए हैं. अरविंद मालवीय, राजीव सिंह और अतुल शर्मा जैसे चंद सहयोगियों की टीम के सहारे पचौरी ने अपनी राजनीतिक शैली प्राईवेट लिमिटेड की तरह बना ली है. एसे में कांग्रेस को अपना जनाधार बढ़ाने में खासी अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है.
पचौरी पर सबसे गंभीर आरोप यह लगाया जा रहा है कि उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से सीधा रिश्ता कायम कर लिया है. बाबूलाल गौर के माध्यम से किए गए इस समझौते के बाद पचौरी को सरकार की ओर से विपक्ष चलाने के लिए बाकायदा 25 लाख रुपए का नजराना दिया जा रहा है. इसका नतीजा यह रहा है कि विधानसभा में कांग्रेस के विधायकों ने लगभग बगावती अंदाज में गुल गपाड़ा किया और सदन की कार्रवाई नहीं चलने दी. इससे कांग्रेस विपक्षी दल के बजाए भाजपा के मसखरे सहयोगी के रूप में ही ज्यादा नजर आए.
इस बीच कांग्रेस के दिग्गज क्षत्रपों और क्षत्रिय नेताओं ने अपनी लाबी खड़ी करनी शुरु कर दी है. श्रीमती जमुनादेवी के निधन के बाद विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद खाली हो गया है.जिसके लिए चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी ने अपना दावा जताना शुरु कर दिया है. चौधरी राकेश सिंह कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं और कांग्रेस हाईकमान की नजर में वे पचौरी से ज्यादा उपयोगी साबित होते नजर आ रहे हैं. वहीं क्षत्रिय लॉबी ने अपने ज्यादातर नेताओं को भाजपा में जगह दिला रखी है और वे अब मिलजुलकर अजय सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनाने की मुहिम चला रहे हैं. जिससे कांग्रेस की राजनीति में असमंजस का माहौल बन गया है. चौधरी राकेश सिंह आलाकमान के कुछ सहयोगियों के माध्यम से मैदान मारते नजर आ रहे हैं. लेकिन वे सदन के बाहर इतने कारगर नहीं हैं.
कांग्रेस आलाकमान एक नए चेहरे अरुण यादव पर भी जयादा गंभीरता से विचार कर रहा है. वह है पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष यादव के सुपुत्र अरुण यादव. वे केन्द्र सरकार में भारी उद्योग राज्यमंत्री हैं और अपने पिता की विरासत को थामने वाले प्रत्याशी के रूप में उनके अंक सबसे ज्यादा हैं. इसका कारण है कि मध्यप्रदेश में पिछड़े वर्ग के मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा 51 फीसदी है. इतने बड़े समुदाय को प्रभावित करने के लिए अरुण यादव जैसे युवा नेता राहुल गांधी की टीम में भी सबसे मुफीद बैठते हैं. इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद पर अरुण यादव को बिठाकर कांग्रेस पिछली पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश करेगी. इन्हीं कोशिशों के बीच गजेन्द्र सिंह राजूखेड़ी को आदिवासी क्षेत्रों से करीबी स्थापित करने के लिए भेजने की मुहिम चलाई गई थी. लेकिन इसे कुछ सोचकर बीच में ही रोक दिया गया.
सुरेश पचौरी के बारे में कहा जाता है कि वे भारतीय सेना के कुछ बड़े अधिकारियों के ज्यादा करीब हैं.केन्द्रीय कार्मिक मंत्री रह चुके होने के कारण वे भारतीय प्रशासनिक सेवा की बारीकियों से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं. यही कारण है कि उन्होंने चंद दिनों पहले मध्यप्रदेश मे पदस्थ भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के लिए कार्मिक मंत्रालय से एक संदेश भी जारी करवाया था कि मध्यप्रदेश के अधिकारी भ्रष्टाचार को बढ़ावा न दें. बल्कि भारतीय जनता पार्टी के नेता यदि उन पर गैर कानूनी काम करने के लिए दबाव डालते हैं तो उनके कारनामे उजागर किए जाएं. उम्मीद की जाती है कि पचौरी की यह मुहिम कारगर साबित होगी.
राजनीति के मैदान में प्रशासनिक जोड़तोड़ जितना सहयोगी साबित होता है उससे ज्यादा सहयोगी विधा जनांदोलन की होती है. भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रशासनिक दक्षता के मामले में भले ही काफी पिछड़े नजर आते हों लेकिन वे जनता के बीच अपना जनाधार बढ़ाने में भरपूर सफल हुए हैं. आज भी जब प्रदेश के हालात कांग्रेस की सरकार की तुलना में बहुत ज्यादा बेहतर नहीं हैं तब भी शिवराज सिंह चौहान के प्रति जनता में आक्रोश नहीं देखा जा रहा है. जाहिर है कि लोगों के दिल मे जगह बनाने में पचौरी तुलनात्मक रूप से बुरी तरह असफल साबित हुए हैं. इस बीच भाजपा के कार्यकर्ता गौरव दिवस ने कांग्रेसियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं. कांग्रेसियों ने दिल्ली जाकर उस आयोजन की सीडियां अपने अपने दिग्गजों को दिखाई हैं और उनसे कहा है कि भाजपा ने तो 2014 के चुनावों की तैयारियां शुरु कर दीं हैं, जबकि कांग्रेस बुरी तरह उदासीन है. एसे में मध्यप्रदेश को पचौरी से मुक्त करवाया जाए और किसी नए अध्यक्ष की ताजपोशी की जाए.