-जगमोहन फुटेला-
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यों तो मैंने भी प्रेस में कमाई और प्रेस की खाई है. पैंतीस साल लिखा है, तीस साल नौकरी की है. लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा कि जस्टिस काटजू के सुझाव पर पत्रकारों में सुजाक पाक क्यों है? मीडिया महाजनों के तो हो. उनके गुलामों में क्यों है?
सच तो ये है कि कैसी भी नैतिकता, कैसे भी प्रतिबंधों और किसी भी संहिता का असल असर मालिकों पर पड़ता है और हम पत्रकार हैं कि किसी की फटी में सिर अड़ाए फिर रहे हैं. पत्रकार के पास आज़ादी है ही कहाँ जो हौम्पू हो रहे है. बताओ एक भी स्ट्रिंगर, संवाददाता, उपसंपादक या समाचार सम्पादक जो वो लिख, छाप सके जो सम्पादक ने नहीं चाहा. और दिखा दो मुझे एक ऐसा सम्पादक जो मालिक के मुताबिक़ न चलता, चलाता हो. भगवान के लिए राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी या कमलेश्वर का नाम मत लेना. वे जा चुके. उनकी सी पत्रकारिता मर चुकी.
आज की बात करो. आज हालत ये है कि हर राज्य में आधे से ज्यादा 'सरकारी' पत्रकार होते हैं. मैंने अपने अब तक के जीवन में अखबार और न्यूज़ चैनल की करीब आधा दर्जन कम्पनियों और तकरीबन पूरे उत्तर भारत में काम किया है. किसी का ज़िक्र करूँगा तो उसका दिल दुखेगा. मैं अपने अनुभव बताता हूँ. मेरे किन्हीं को काम दे सकने के दौर में जितने भी लोग आये संवाददाता बनने के लिए उनमें से अधिकाँश बड़ी सी कार और मोटे उपहार ले कर आए. फुटकर 'दुकानदार' ही नहीं, बड़े आढ़ती भी. ऐसे भी आये जिन्होंने कहा कि पूरे प्रदेश के लिए रिपोर्टर, कैमरामैन लगाने का काम दे दो, एक करोड़ ले लो. एक करोड़ भी वो तब देते थे जब चीनी चौदह रूपये किलो मिलती थी. औरों का पता नहीं, पर पंजाब का तो इतिहास गवाह है कि तकरीबन हर चैनल में भर्तियाँ मोटे पैसे लेकर हुईं हैं. अखबारों में तो रिपोर्टर एक एक शहर में दर्ज़न से ऊपर और एक बार तो अकेले एक अखबार के अकेले एक शहर में एक सौ चवालीस रहे हैं.
फोन, फैक्स किसी के पास नहीं, डाकघर से टिक टिक पे खबर भेजने की अथारिटी भी नहीं, न डाक से भेजने के लिए कोई लिफ़ाफ़े या डाक टिकट. मैंने दो दो राज्यों की राजधानी चंडीगढ़ में पत्रकारों को अपनी खबरें सरकारी फैक्स से भेजते देखा है. माफ़ करें अपनी खबरें मैं प्रवाह में कह गया. खबरें भी सरकारी होती थी. खालिस प्रेस नोट और दूरदराज़ अखबार के दफ्तर में वो पंहुच तब भी जाते थे कि जब रिपोर्टर महोदय आये ही न हों सचिवालय तक या बेशक शहर से भी कहीं बाहर गए हों. एक नज़र मार के देख लीजिये चार चार पेज के अखबार जिनकी कुल छपाई महज़ कुछ सौ में होती है और जो केवल चंडीगढ़ शहर में कुल जमा एक किलोमीटर एरिया से आगे कहीं दिखाई नहीं देते उनके भी मालिक रिपोर्टर बन के घूमते हैं ताकि सरकारी मान्यता मिल सके और फिर मुफ्त का सरकारी मकान. हाईकोर्ट के जजों के लिए मकान हों न हों लेकिन पत्रकारों की मौज है. उन्हें कोई पाबंदी क्यों चाहिए होगी?
बिठा लीजिये खुद पत्रकारों की ही कोई जांच और बताइये कि किसी गलत खबर के लिए मालिक नपा कब और रिपोर्टर बचा कब है? अखबार की सर्कुलेशन या टीवी की टीआरपी के लिए कहीं से कुछ भी लाता है रिपोर्टर. धंधा बढ़ता है तो मालिक का. मरता है तो रिपोर्टर. हमले भी उसी पे होते हैं. पिटता भी वही है और केस भी चलता है तो उसी पर चलता है. मालिक या सम्पादक को तो सरकार या लोग अक्सर पार्टी भी नहीं बनाते केस में. रिपोर्टर रगड़ा जाता है. खुद मेरे साथ हुआ ऐसा एक बार. किसानो के एक आन्दोलन के दौरान एक किसान नेता को उठा ले गई पुलिस. मैंने लिखा कि सुप्रीम कोर्ट की हिदायत के मुताबिक़ जो आठ तरीके हैं किसी को हिरासत में लेने के उनमें से किसी एक के मुताबिक़ भी परिवार को सूचित नहीं किया गया. किसान आन्दोलन में अब एक मुद्दा ये भी जुड़ गया. मुझे गिरफ्तार कर लिया सरकार ने मेरे दफ्तर से. सम्पादक को पार्टी नहीं बनाया. मैं रगड़ता रहा सिर्फ सुप्रीम कोर्ट का कानून याद दिलाने और एक आदमी की जान बचाने के लिए. वो तो किस्मत अच्छी थी कि बाइज्ज़त बरी हो गया.
अदालतों में जूते जिनके भी घिसे हैं उन में लगभग सभी कर्मचारी पत्रकार हैं. ज़्यादातर उस खबर के लिए जो उन से करने को कहा गया है. पत्रकारिता के कोई मानदंड या कोई पाबंदी इन्हें ही नहीं चाहिए. मैं मानता हूँ कि हम में चो और वर्गीज़ जैसे पत्रकार आज भी हैं. कुछ बचाव हम उनका भी चाह रहे हैं जो स्टाफर नहीं हैं मगर निरंतर लिखते हैं. लेकिन सिर्फ ब्लैकमेलिंग के लिए इस पेशे में आये लोग भी हम में ही हैं और इनकी तादात बहुत ज्यादा है. मालिकों की वजह से. मैं एक उदाहरण देता हूँ. पंजाब में चरस, भुक्की पकडे जाने की हर खबर हमेशा लगी. पंद्रह ख़बरों वाले बुलेटिन में कई दफे चार चार बार भी. पता है क्यों. क्योंकि चौकी इंचार्ज के इस से नंबर बनते हैं और वो रिपोर्टर के लिए भाईसाहब होता है और वो इस लिए कि जो पचास हज़ार दे के रिपोर्टरी मिली है उसे, वो भाईसाहब की ही कृपा से वापिस आने हैं किन्हीं को पकडवाने और किन्हीं को छुडाने की दलाली से. अपराध की खबरें वो नहीं भेजेगा. भाईसाहब की खातिर. दलाल और गैर-जिम्मेवार पत्रकार उसे मालिकों ने बनाया है. रही सही कसर अखबार के लिए सप्लीमेंट निकालने में निकल जाती है. भिखारियों से बुरी दशा में पंद्रह बीस हज़ार के विज्ञापन मिल भी जाते हैं साल छ: महीने में तो इसका पंद्रह बीस फीसदी कमीशन ही उसकी भिखमंगई का खामियाज़ा है.
चैनल वाले रिपोर्टरों की हालत और भी खस्ता है. उस से वादा है कि जितनी खबरें चलेंगी उतने के पैसे मिलेंगे. अब दिक्कत हो गई है. बड़ी पालिटिकल खबर छोटे शहर में होती नहीं है. गली मोहल्लों की गन्दगी, सफाई खबर नहीं है. रेप भी कितना करोगे? सो खबरें घड़नी पड़ रही हैं. जो है वो बिकता नहीं है. जो नहीं है वो दिखाना पड़ रहा है. खुद जा के कहना पड़ रहा है, तू अपने कपड़े फाड़ ले, खबर बन जाएगी. लोगों को जिंदा जल जाने के लिए उकसाना पड़ रहा है एक अदद खबर के लिए. उन पांच सौ रुपयों के लिए जो कभी आते नहीं हैं. मैं हैरान हूँ कि ऊलजुलूल किस्म की पत्रकारिता पर नकेल इन्हें क्यों नहीं चाहिए?
बहुत दूर तक न जाइए अतीत में. अभी हाल ही में मीडिया ने हल्ला मचा दिया कि पेट्रोल की बढ़ी कीमतें सरकार ने वापिस न लीं तो सरकार तो गई. ममता जाएगी छोड़ कर. वो दबंग औरत है. रुक नहीं सकती. सरकार है कि बच नहीं सकती. पूरे देश को जंचा दिया कि भैया सरकार तो गई. अब ये देखो कि अगली सरकार किसकी बनानी है. बाकायदा लोकसभा का स्केच बना कर अन्दर हरे. नीले, पीले रंग जमा दिए. जोड़ घटत शुरू. सवाल पे सवाल. क्या समाजवादी पार्टी सरकार बचाएगी? एक चैनल ममता की 'धमकी' के बाद निफ्टी और सेंसेक्स पर नज़र रखे था. और परेशान था कि आंकड़ा नीचे आ क्यों नहीं रहा है? ज़रा सा कामनसेंस इस्तेमाल नहीं किया. मगर जिन दो चार चैनलों में पढ़े, कढ़े लोग हैं उन्हें पता था कि ये सिर्फ प्रेशर टैक्टिक है. वरना ममता भी कैसे चला सकती हैं बंगाल जैसे प्रदेश में राजकाज केंद्र में किसी एक गठबंधन के साथ रहे बिना. और वो उन के लिए एनडीए हो नहीं सकता.
इस अनजानपने की हद देखिये. 26/11 की बरसी पे भारत में विदेशी मदद से चलने वाले एक चैनल ने पाकिस्तान से एक पत्रकार को लिया प्रोग्राम में, लाइव. वो बार बार मुकम्मल, खुसूसी, एहतराम जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है. अब इधर भाईसाहब को उन शब्दों का मतलब नहीं पता. वो कह रहा है आप एहतराम (सम्मान) करें, इधर भाई उसको विराम समझ रहा है. कह रहा है छोड़ कैसे दें? चर्चा तो करनी पड़ेगी. ऐसा ही कई बार. बात कुछ. उसकी समझ और उस पे प्रतिक्रिया कुछ.... मैं पूछता हूँ ज़रूरत क्या है? 'खेलना' ही है 26/11 पे, तो भी पाकिस्तानी पत्रकार की ज़रूरत क्या है? और वो भी है तो अपना तो बंदा ऐसा बिठा लो जो मुकम्मल का मतलब कम्बल न समझता हो! और इधर बैठा बंदा सिटी रिपोर्टर लेवल का आदमी. वो भी विदेशी और उसमें भी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का एक्सपर्ट! हद हो गई है. क्या गलत कहते हैं जस्टिस काटजू कि कुछ जवाबदेही तय करो.
एक्सपर्टीज़ आई तो अपने ही काम आएगी मित्रो. पाठक और श्रोता भी खुश रहेंगे और अपना भी ज्ञान, ध्यान बढ़ेगा. जवाबदेही तय हुई तो उसमें भी पत्रकारों का ही फायदा है. आज हमारा न हो, कल हम से ज्यादा पढ़े लिखों का तो होगा. और अगर ये फिर भी नहीं करना तो चलो छोड़ो ये बहस भी. एक बात तय कर लेते हैं. इस देश के पत्रकार हड्डी वाले डाक्टर से दिल का आपरेशन कराना मान लें. देश क्राइम रिपोर्टरों से अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर भाषा सुनना शुरू कर देगा. क्रिकेट वालों से संसद का हाल सुनना और संपादकों से कार कारोबार का कथासार. फिर एक दिन इस देश को अरनब, बरखा और राजदीप की भी ज़रूरत नहीं रह जाएगी. विश्वसनीयता तो आज भी कोई बहुत अधिक नहीं है. फिर तो आवश्यकता भी नहीं रह जाएगी. क्यों हम तय किये बैठे हैं कि न सुधरेंगे, न सुधारने देंगे!