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रायपुर. फिल्म अब तक छप्पन के लीड कैरेक्टर साधु आगाशे (नाना पाटेकर) तो आपको याद ही होंगे। आज हम आपको ऐसे ही रियल कैरेक्टर से मिलवा रहे हैं। ये हैं एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अजित ओगरे। इंस्पेक्टर ओगरे नक्सलियों की मांद में घुसकर अब तक 53 एनकाउंटर कर चुके हैं। तीन बार गोलियां भी खाईं लेकिन तय कर लिया है कि जब तक नक्सलवाद खत्म नहीं होगा, नक्सली इलाके में ही ड्यूटी करेंगे। नक्सलियों की हिटलिस्ट मेंहै नाम...
- अजीत ओगरे का नाम नक्सलियों की हिटलिस्ट के टॉप-5 में शामिल है।
- कई सरेंडर नक्सलियों ने तो पुलिस अफसरों को यह भी बताया है कि ओगरे को मारने के लिए नक्सलियों ने स्पेशल टीम भी बनाई है।
पहली शादी एके-47 से की है
-ओगरे का कहना है कि उन्होंने पहली शादी तो अपनी एके-47 से की है, जो हमेशा उनके साथ रहती है। सोते समय भी वह बिस्तर पर बंदूक लेकर सोते है।
- 38 साल के अजीत ओगरे 12 साल की पुलिस की नौकरी में कुल 53 एनकाउंटर कर चुके हैं।
- पुलिस महकमे के हर अफसर को पता है कि गोली खाने के बाद भी ओगरे दो-तीन सिपाहियों के साथ घुसे तो एक-दो लाशें लेकर ही निकलते हैं।
- उन्हें बहादुरी के लिए तीन बार राष्ट्रपति का वीरता पदक मिल चुका है। तीन और के लिए पुलिस विभाग ने अनुशंसा की है।
- छत्तीसगढ़ पुलिस ने भी सम्मान देने के लिए उन्हें पहले इंस्पेक्टर के तौर पर चुना है, जिसे पिस्टल दी जाएगी।
जंगल से नाता नया था
- ऐसा नहीं है कि इंस्पेक्टर अजीत ओगरे का बैकग्राउंड नक्सल प्रभावित इलाके का हो।
- उनका पूरा बचपन और नौकरी लगने से पहले तक वे रायपुर के राजेंद्रनगर में रहे हैं।
- वह 2004 में छत्तीसगढ़ पुलिस में सब-इंस्पेक्टर चुने गए। एक साल की ट्रेनिंग के बाद पहली पोस्टिंग बस्तर हुई।
- जगदलपुर कोतवाली में एक साल की ट्रेनिंग के बाद उन्हें 2006 में पहला थाना मिला धनोरा।
- धनोरा एक घोर नक्सली इलाका है और यहीं से लड़ाई शुरू हो गई।
- पहला साल भी पूरा नहीं हुआ और ओगरे ने पहला एनकाउंटर किया। आमाबेड़ा में सीआरपीएफ के साथ सर्चिंग के दौरान नक्सलियों से मुठभेड़ में कमांडर मंतू और समारू मारे गए।
- इसके बाद नक्सलियों से एनकाउंटर की पहचान बनते गए ओगरे। अगले ही साल यानी 2007 में औंधी एलओएस कमांडर पंकज और उसके साथी को मार गिराया।
- पहली पोस्टिंग के सिर्फ दो साल के भीतर यानी 2008 तक ओगरे 22 एनकाउंटर कर चुके थे। इसमें 10 नक्सलियों की बॉडी को तो अपने साथ लेकर आए थे।
53 एनकाउंटर में कोई शहीद नहीं
- इंस्पेक्टर ओगरे की सबसे बड़ी उपलब्धि ये है कि उनके द्वारा किए गए अब तक के 53 एनकाउंटर में फोर्स ने एक भी जवान नहीं खोया।
- उनके साथ जिला बल, सीआरपीएफ समेत कई पैरामिलिट्री के फोर्स भी रहे, जिन्हें उन्होंने सेफली निकला।
जंगल में ही पोस्टिंग चाहिए
- 22 एनकाउंटर के बाद आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के साथ ओगरे को इंस्पेक्टर बना दिया गया।
- इसके बाद जब मनचाही पोस्टिंग का ऑफर दिया गया तो उन्होंने नक्सल प्रभावित नारायणपुर चुन लिया।
- वहां उन्हें फ्री हैंड दे दिया गया। हर नक्सल ऑपरेशन में वह टीम के साथ जाते।
- इस दौरान उन्होंने नक्सलियों के डिविजनल वाइस सेक्रेट्री कमलक्का को मार गिराया। नक्सली पार्वती और फागू भी मारे गए।
- 2011 में उनकी पोस्टिंग धमतरी में हुई तो नक्सल प्रभावित थाना सिहावा चले गए। 2014 में राजनांदगांव जाना पड़ा तो वहां भी नक्सल बेल्ट मोहला को चुना। अब तक मैदानी इलाके में ड्यूटी ही नहीं की।
गोली लगी फिर भी गए जंगल
- कोंडागांव के धनोरा के जंगल में 2007 में मुठभेड़ के दौरान अजीत के कंधे और बाजू में दो गोलियां लगी थीं। इसके बाद भी वे नक्सलियों से लड़ते रहे।
- मुठभेड़ खत्म होने के बाद उन्हें थाने लाया गया। फिर केशकाल रेफर कर दिया गया।
- वहां दो दिन बाद ही उन्होंने छुट्टी ले ली। फिर अपने क्वार्टर आ गए। गोली लगने की बात उन्होंने माता-पिता को भी नहीं बताई।
- सात दिन बाद जंगल में नक्सलियों के होने की सूचना मिली। पट्टी बांधे ही अजीत वहां चले गए।
- 2009 में नारायणपुर में मुठभेड़ के दौरान गर्दन के पिछले हिस्से में गोली लगी। कई दिनों तक बिस्तर में रहे। डॉक्टरों का कहना था कि गोली थोड़ा सा भी नीचे लगती तो जान जा सकती थी।
- इसके बारे में भी उन्होंने घर वालों को नहीं बताया। महीने भर के इलाज के बाद ड्यूटी ज्वाइन कर ली।
भूखे-प्यासे 14 दिन जंगल में घूमते रहे
- इंस्पेक्टर ओगरे ने बताया कि 2011 में जब वे सिहावा थाना प्रभारी थे, धमतरी के एक थाने से सरेंडर नक्सली कमलक्का और सोनू चार रायफल और कारतूस लेकर भाग गए।
- एसपी ने उन्हें दोनों नक्सलियों को पकड़ने की जिम्मेदारी दी। 6 जवानों को लेकर वे जंगल में घुस गए।
- 14 दिनों तक बिना नहाए ही नक्सलियों को ढूंढते रहे। बारिश की वजह से जंगल में बड़े-बड़े कीड़े थे। काटने से शरीर फूल गया था। जवान बीमार पड़ गए थे। साफ पानी तक नसीब नहीं हुआ था।
- फिर भी सर्च बंद नहीं किया। ओडिशा बार्डर तक पहुंच गए, जहां दोनों नक्सलियों का एनकाउंटर कर लिया गया।
बहन का रिश्ता तय किए बिना लौटे थे ड्यूटी पर
- इंस्पेक्टर ओगरे एक बार फरसगांव में सर्चिंग पर गए थे। उनके लौटने के एक दिन बाद ही नक्सलियों ने वहां धमाका किया जिसमें 32 जवान शहीद हो गए थे।
- उन्होंने बताया कि एक बार वे अपनी बहन का रिश्ता तय करने 10 दिन की छुट्टी पर घर आए थे।
- नारायणपुर में 11 जवान शहीद होने की सूचना मिली। वे बिना रिश्ता तय किए ही छुट्टी से लौट गए।
पुलिस में क्यों आए?
- अजीत ओगरे शुरू में पुलिस में सिर्फ इसलिए आए थे कि उन्हें नौकरी की जरूरत थी।
- उन्होंने नलघर चौक स्थित गवर्मेंट स्कूल में स्कूली पढ़ाई की और छत्तीसगढ़ कॉलेज से बीए किया है।
- एनसीसी में उन्हें शूटिंग के लिए नेशनल गोल्ड मेडल मिला था। उनका आर्मी में चयन हुआ।
- दो महीने काम करने के बाद ही वह नौकरी छोड़कर आ गए और रायपुर में पिकअप वैन चलाने लगे।
- एक साल बाद ट्रक भी चलाने लगे और दो साल तक महाराष्ट्र, पंजाब आदि राज्यों में माल ढोते रहे।
'मेरे इलाके में नक्सली तैनात करते हैं संतरी'
- एनकाउंटर स्पेशलिस्ट का सपना है कि छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद का खात्मा हो जाए।
- उन्होंने कहा, 'नक्सल प्रभावित थानों के बाहर 24 घंटे बंदूकधारी संतरी तैनात किए जाते है, लेकिन मेरे थाने में ऐसा नहीं होता। मेरे इलाके में नक्सलियों को संतरी तैनात करना पड़ता है।'
रायपुर. फिल्म अब तक छप्पन के लीड कैरेक्टर साधु आगाशे (नाना पाटेकर) तो आपको याद ही होंगे। आज हम आपको ऐसे ही रियल कैरेक्टर से मिलवा रहे हैं। ये हैं एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अजित ओगरे। इंस्पेक्टर ओगरे नक्सलियों की मांद में घुसकर अब तक 53 एनकाउंटर कर चुके हैं। तीन बार गोलियां भी खाईं लेकिन तय कर लिया है कि जब तक नक्सलवाद खत्म नहीं होगा, नक्सली इलाके में ही ड्यूटी करेंगे। नक्सलियों की हिटलिस्ट मेंहै नाम...
- अजीत ओगरे का नाम नक्सलियों की हिटलिस्ट के टॉप-5 में शामिल है।
- कई सरेंडर नक्सलियों ने तो पुलिस अफसरों को यह भी बताया है कि ओगरे को मारने के लिए नक्सलियों ने स्पेशल टीम भी बनाई है।
पहली शादी एके-47 से की है
-ओगरे का कहना है कि उन्होंने पहली शादी तो अपनी एके-47 से की है, जो हमेशा उनके साथ रहती है। सोते समय भी वह बिस्तर पर बंदूक लेकर सोते है।
- 38 साल के अजीत ओगरे 12 साल की पुलिस की नौकरी में कुल 53 एनकाउंटर कर चुके हैं।
- पुलिस महकमे के हर अफसर को पता है कि गोली खाने के बाद भी ओगरे दो-तीन सिपाहियों के साथ घुसे तो एक-दो लाशें लेकर ही निकलते हैं।
- उन्हें बहादुरी के लिए तीन बार राष्ट्रपति का वीरता पदक मिल चुका है। तीन और के लिए पुलिस विभाग ने अनुशंसा की है।
- छत्तीसगढ़ पुलिस ने भी सम्मान देने के लिए उन्हें पहले इंस्पेक्टर के तौर पर चुना है, जिसे पिस्टल दी जाएगी।
जंगल से नाता नया था
- ऐसा नहीं है कि इंस्पेक्टर अजीत ओगरे का बैकग्राउंड नक्सल प्रभावित इलाके का हो।
- उनका पूरा बचपन और नौकरी लगने से पहले तक वे रायपुर के राजेंद्रनगर में रहे हैं।
- वह 2004 में छत्तीसगढ़ पुलिस में सब-इंस्पेक्टर चुने गए। एक साल की ट्रेनिंग के बाद पहली पोस्टिंग बस्तर हुई।
- जगदलपुर कोतवाली में एक साल की ट्रेनिंग के बाद उन्हें 2006 में पहला थाना मिला धनोरा।
- धनोरा एक घोर नक्सली इलाका है और यहीं से लड़ाई शुरू हो गई।
- पहला साल भी पूरा नहीं हुआ और ओगरे ने पहला एनकाउंटर किया। आमाबेड़ा में सीआरपीएफ के साथ सर्चिंग के दौरान नक्सलियों से मुठभेड़ में कमांडर मंतू और समारू मारे गए।
- इसके बाद नक्सलियों से एनकाउंटर की पहचान बनते गए ओगरे। अगले ही साल यानी 2007 में औंधी एलओएस कमांडर पंकज और उसके साथी को मार गिराया।
- पहली पोस्टिंग के सिर्फ दो साल के भीतर यानी 2008 तक ओगरे 22 एनकाउंटर कर चुके थे। इसमें 10 नक्सलियों की बॉडी को तो अपने साथ लेकर आए थे।
53 एनकाउंटर में कोई शहीद नहीं
- इंस्पेक्टर ओगरे की सबसे बड़ी उपलब्धि ये है कि उनके द्वारा किए गए अब तक के 53 एनकाउंटर में फोर्स ने एक भी जवान नहीं खोया।
- उनके साथ जिला बल, सीआरपीएफ समेत कई पैरामिलिट्री के फोर्स भी रहे, जिन्हें उन्होंने सेफली निकला।
जंगल में ही पोस्टिंग चाहिए
- 22 एनकाउंटर के बाद आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के साथ ओगरे को इंस्पेक्टर बना दिया गया।
- इसके बाद जब मनचाही पोस्टिंग का ऑफर दिया गया तो उन्होंने नक्सल प्रभावित नारायणपुर चुन लिया।
- वहां उन्हें फ्री हैंड दे दिया गया। हर नक्सल ऑपरेशन में वह टीम के साथ जाते।
- इस दौरान उन्होंने नक्सलियों के डिविजनल वाइस सेक्रेट्री कमलक्का को मार गिराया। नक्सली पार्वती और फागू भी मारे गए।
- 2011 में उनकी पोस्टिंग धमतरी में हुई तो नक्सल प्रभावित थाना सिहावा चले गए। 2014 में राजनांदगांव जाना पड़ा तो वहां भी नक्सल बेल्ट मोहला को चुना। अब तक मैदानी इलाके में ड्यूटी ही नहीं की।
गोली लगी फिर भी गए जंगल
- कोंडागांव के धनोरा के जंगल में 2007 में मुठभेड़ के दौरान अजीत के कंधे और बाजू में दो गोलियां लगी थीं। इसके बाद भी वे नक्सलियों से लड़ते रहे।
- मुठभेड़ खत्म होने के बाद उन्हें थाने लाया गया। फिर केशकाल रेफर कर दिया गया।
- वहां दो दिन बाद ही उन्होंने छुट्टी ले ली। फिर अपने क्वार्टर आ गए। गोली लगने की बात उन्होंने माता-पिता को भी नहीं बताई।
- सात दिन बाद जंगल में नक्सलियों के होने की सूचना मिली। पट्टी बांधे ही अजीत वहां चले गए।
- 2009 में नारायणपुर में मुठभेड़ के दौरान गर्दन के पिछले हिस्से में गोली लगी। कई दिनों तक बिस्तर में रहे। डॉक्टरों का कहना था कि गोली थोड़ा सा भी नीचे लगती तो जान जा सकती थी।
- इसके बारे में भी उन्होंने घर वालों को नहीं बताया। महीने भर के इलाज के बाद ड्यूटी ज्वाइन कर ली।
भूखे-प्यासे 14 दिन जंगल में घूमते रहे
- इंस्पेक्टर ओगरे ने बताया कि 2011 में जब वे सिहावा थाना प्रभारी थे, धमतरी के एक थाने से सरेंडर नक्सली कमलक्का और सोनू चार रायफल और कारतूस लेकर भाग गए।
- एसपी ने उन्हें दोनों नक्सलियों को पकड़ने की जिम्मेदारी दी। 6 जवानों को लेकर वे जंगल में घुस गए।
- 14 दिनों तक बिना नहाए ही नक्सलियों को ढूंढते रहे। बारिश की वजह से जंगल में बड़े-बड़े कीड़े थे। काटने से शरीर फूल गया था। जवान बीमार पड़ गए थे। साफ पानी तक नसीब नहीं हुआ था।
- फिर भी सर्च बंद नहीं किया। ओडिशा बार्डर तक पहुंच गए, जहां दोनों नक्सलियों का एनकाउंटर कर लिया गया।
बहन का रिश्ता तय किए बिना लौटे थे ड्यूटी पर
- इंस्पेक्टर ओगरे एक बार फरसगांव में सर्चिंग पर गए थे। उनके लौटने के एक दिन बाद ही नक्सलियों ने वहां धमाका किया जिसमें 32 जवान शहीद हो गए थे।
- उन्होंने बताया कि एक बार वे अपनी बहन का रिश्ता तय करने 10 दिन की छुट्टी पर घर आए थे।
- नारायणपुर में 11 जवान शहीद होने की सूचना मिली। वे बिना रिश्ता तय किए ही छुट्टी से लौट गए।
पुलिस में क्यों आए?
- अजीत ओगरे शुरू में पुलिस में सिर्फ इसलिए आए थे कि उन्हें नौकरी की जरूरत थी।
- उन्होंने नलघर चौक स्थित गवर्मेंट स्कूल में स्कूली पढ़ाई की और छत्तीसगढ़ कॉलेज से बीए किया है।
- एनसीसी में उन्हें शूटिंग के लिए नेशनल गोल्ड मेडल मिला था। उनका आर्मी में चयन हुआ।
- दो महीने काम करने के बाद ही वह नौकरी छोड़कर आ गए और रायपुर में पिकअप वैन चलाने लगे।
- एक साल बाद ट्रक भी चलाने लगे और दो साल तक महाराष्ट्र, पंजाब आदि राज्यों में माल ढोते रहे।
'मेरे इलाके में नक्सली तैनात करते हैं संतरी'
- एनकाउंटर स्पेशलिस्ट का सपना है कि छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद का खात्मा हो जाए।
- उन्होंने कहा, 'नक्सल प्रभावित थानों के बाहर 24 घंटे बंदूकधारी संतरी तैनात किए जाते है, लेकिन मेरे थाने में ऐसा नहीं होता। मेरे इलाके में नक्सलियों को संतरी तैनात करना पड़ता है।'