संस्था के परम सेवक राधेश्याम अग्रवाल |
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भोपाल। कहा जाता है, एक चना भाड नहीं फोड सकता। जब मुसीबत आती है, इंसान ईश्वर और पुलिस को याद करता है, लेकिन हाय रे महंगाई (कोरोना, कोविड 19) जिसने इंसान की हिम्मत को दिशा दिया। बाप, बेटे, मां, पुत्र सभी के रिश्तों को तोड़ दिया। कोई किसी का न रहा। रक्त संबंध झूठे हो गए। ,५४" कोविड 19 कोरोना ने श्मशान में शवों को लावारिस छोड़ पु २ हे दिया।
ऐसे में मुसीबत अस्पतालों और पुलिस के सिर आन ष रे पडी | सूबे की राजधानी भोपाल में जनसंवेदना संस्था का नाम जुबान पर आया। संस्था के प्रथम सेवक 74 वर्षीय राधेश्याम अग्रवाल का टेलीफोन निश्याम घनघनाने लगा। इस बूढे मानुष की हिम्मत को दाद दी जाए कि उसने अपना रिश्ता इंसानी फर्ज मान लिया। प्रदेश की राजधानी भोपाल मुख्यालय, चिकित्सा का नामी केन्द्र होने के कारण कोरोना से प्राण छोड़ने वालों का जो परित्यक्त हो रहे उसे अंतिम सहारा जनसंवेदना संस्था साबित हो रही है।
हैरत की बात है कि इस इंसानी फर्ज को अदा करने पर दानदाताओं ने जिस तरह जनसंवेदना संस्था का दिल खोलकर पैसों की झडी लगायी। वित्तीय पोषण किया उसे भी भुलाया नहीं जा सकता। जहां चाह है वहां राह है, परंतु इस जनकल्याणकारी अभियान पर संस्था और संस्था के परम सेवक राधेश्याम ने हरि सेवा समझकर न तो कभी गरूर किया और न किसी के सामने झोली फैलायी। अंकिचन सेवक की तरह जुटा रहा। इससे लगता है कि संयोग बने, फौलादी संकल्प हो, परमात्मा पर भरोसा हो, इरादा नेक हो तो चना भी भाड़ फोड सकता है।
मध्यप्रदेश के यशस्वी पूर्व मुख्य सचिव भारतीय प्रशासनिक सेवा के कुशल, समाजसेवी अधिकारी स्वर्गीय सुशीलचन्द वर्मा दूरदर्शी इंसान थे। उनके लिए प्रशासकीय सेवा जनसेवा थी। प्रदेश में लावारिश लाशों को सम्मानपूर्वक अंतिम विदाई दिलाने की व्यवस्था करना उनकी चिंता का विषय था। अपने संसदीय जीवन में उनको सरोकार आम इंसान की खिदमत करना बन पड़ा था।
उनकी प्रेरणा ने ही भोपाल में जनसंवेदना संस्था को जन्म दिया और नगर के एक बुजुर्ग पत्रकार को इस इंसानी फर्ज से जुडने की गुजारिश की और जरा से जीर्ण, रोग से शीर्ण राधेश्याम अग्रवाल राधे राधे कहते हुए शमशान और कब्रिस्तान के सहचर बन गए। राधेश्याम अग्रवाल के दोनों पैरों के घुटने बदले जा चुके है, लेकिन वे आज भी बुढापे की छाया से मुक्त होकर पूरे जोश खरोश के साथ इस इंसानी फर्ज को इबादत की तरह करने में जुटे है। राधेश्याम के लिए यही पूजा और इबादत है।
मजे की बात है कि लावारिश अथवा बेसहारा, असहाय परिवार के मृतक सदस्य का अंतिम संस्कार करते समय भी रीति रिवाज, परंपरा का ध्यान रखना मानवीय कर्त्तव्य है। जनसंवेदना संस्था इस पर पूरा ध्यान देती है। इसका पता तब चला जब शहर के सभी मुक्तिधामों, मरघटों और कब्रिस्तान के मुशियों ने लकडी टाल वालों ने जनसंवेदना संस्था के टेलीफोन नंबर की जानकारी दी और कहा कि लावारिश, असहाय मृतक की लाश के अंतिम संस्कार का खर्च संस्था सहज और सरल तरीके से भुगतान करती है। जहां जलाने के लिए लकड़ी, दफन के लिए खुदाई की मजदूरी है, भुगतान करती है।
जहां तक जानकारी है लावारिश व्यक्ति के शव के अंतिम संस्कार का सरोकार अमूमन पुलिस प्रशासन से ही अपेक्षित है। लेकिन शहर के सभी थाने इस कार्य के लिए जनसंवेदना संस्था को ही याद करते है। जनसंवेदना ने धार्मिक रीति रिवाजों के साथ लाशों का अंतिम संस्कार करके धर्म निरपेक्षता की मिसाल कायम की है। दिल्ली में लावारिश शवों के अंतिम संस्कार करने वाले एक मुस्लिम साथी को गणतंत्र दिवस पर भव्य समारोह साथ प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सम्मानित किया।
यह मुस्लिम साथी के साथ पच्चीस हजार शवों के अंतिम संस्कार का रिकार्ड दर्ज है। जनसंवेदना संस्था का यह लघु प्रयास भी इंसानियत की एक मिसाल कायम करता है। साढ़े 6 हजार से अधिक शवों को सम्मानपूर्वक विदाई दी जा चुकी है। संस्था के प्रथम सेवक राधेश्याम अग्रवाल और उनके सहयोगी और संस्था का वित्तीय पोषण करने वाले महानुभाव वास्तव में प्रेरणा के स्त्रोत और मुबारकबाद के हकदार है। सबल का साथ सभी देते है, लेकिन बेकसों का अंतिम सहारा हरिनाम है। जय राधेश्याम |
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