आर.एल.फ्रांसिस
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आज समाज में बदलाव और गरीबी पर काबू पाने के लिए कई सामाजिक, राजनीतिक संगठन व अर्थ जगत के लोग प्रयासरत हैं। ऐसा ही एक सामाजिक संगठन है-फाउंडेशन फॉर रिसर्च प्लेंनिग एण्ड एक्शन (एफआरपीए) जो गरीब और हशिए पर खड़े लोगों के जीवन में आशा की किरण लाने के लिए प्रयास कर रहा है।
फाउंडेशन के कार्यकारी सचिव विवेकमणि लकड़ा कहते है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा दलित और आदिवासी समुदाय आज भी हाशिए पर खड़ा है। कही सेज के नाम पर और कही विकास के नाम पर आदिवासी समूहों को विस्थापित किया जा रहा है। आदिवासी समाज में अशांति, आक्रोश और नराजगी है, क्योंकि देश की आजादी के 65 वर्ष बाद भी उनका जीवन हाशिए पर है। उनकी कहीं कोई सुनवाई नही है। राज्य और केन्द्र उनके प्रति दमन की नीति अपनाए हुए है। आदिवासी समाज में भुखमरी बढ़ती जा रही है, कल्याणकारी योजनाएं अधूरी पड़ी है आदिवासी विकास योजनाओं के नाम पर सरकारी खजाना लूटा जा रहा है। आदिवासी जीवन का आधार जल, जंगल, जमीन को लूटा जा रहा है और विरोघ करने वालो को जेलो में डाला जा रहा है।
गरीबी, बिमारी, बेरोजगारी और अशिक्षा के कारण आज आदिवासी समाज अपनी संस्कृति से दूर होता जा रहा है। परसंस्कृति ग्रहण की समस्या ने आदिवासी समाज को एक ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है जहां से न तो वह अपनी संस्कृति बचा पा रहा है और न ही अधुनिकता से लैस होकर राष्ट्र की मुख्यधारा में ही शामिल हो पा रहा है। बीच की स्थिति के कारण ही उनके जीवन और संस्कृति पर खतरा मडराने लगा है। यह सब कुछ उनके जीवन में बाहरी हस्तक्षेप के कारण हुआ है। विदेशी ताकतें उनका धर्मांतरण करने में व्यस्त है ऐसे में उनके अंदर ही टकराव की संभावनाएं बढ़ गई हैं।
पिछले दो दशकों के दौरान लाखों आदिवासी महिलाएँ रोजगार की तलाश में महानगरों का रुख कर रही हैं। जहां उन्हें गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। फाउंडेशन के कार्यकारी सचिव विवेकमणि लकड़ा ने कहा कि झारखण्ड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम से हजारों महिलाएँ दिल्ली जैसे महानगरों में रोजगार की तलाश में आ रही हैं। अंसगठित होने के कारण उन्हें सामाजिक, आर्थिक और कई बार शरीरक शोषण का शिकार होना पड़ रहा है आदिवासी समाज आज विकट स्थिति का सामना कर रहा है। 15 लाख से अधिक झारखण्ड और छतीसगढ़ के आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं, 2 लाख आदिवासी महिलाएँ मानव तस्करी की शिकार बनी हैं, 3 लाख लड़कियां रोजगार के लिए दिल्ली-मुम्बई में पलायन कर चुकी हैं, जिनमें से अधिक्तर ईसाई हैं जब कि गैर ईसाई आदिवासी लड़कियों का प्रतिशत बहुत ही कम है।
फाउंडेशन के कार्यकारी सचिव विवेकमणि लकड़ा ने कहा कि यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ईसाई महिलाओं की अधिक्ता क्यों है? इन्हीं घरेलू कामगारों के बीच गैर ईसाई सरना महिलाएँ बहुत कम है। इनके मुकाबले ईसाई महिलाओं की इतनी बड़ी संख्या किसी विशेष कारण की अपेक्षा अवश्य रखता हैं। फाउंडेशन ‘भारतीय जनजातियों के सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन पर धर्मप्रचार के प्रभाव’ विषय पर शोध करेगी, तांकि समस्या की गहराई तक पहुँचा जा सके।
वहीं दूसरी और देश में जातिवाद अभी भी अपने पांव फैलाये हुए है जिस कारण दलित वर्गो को भी कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है। सांप्रदायिकता के बढ़ते फैलाव के कारण दलित-आदिवासियों को लगातार उत्पीड़त होना पड़ रहा है। फाउंडेशन फॉर रिसर्च प्लेंनिग एण्ड एक्शन (एफआरपीए) जल्द ही धर्मांतरण, आदिवासी समाज का विस्थापन और सांप्रदायिकता पर शोध करेगा।
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