सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
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साहित्य के माध्यम से विचार परिवर्तन की दिशा में प्रेरक कार्य करना सहज नहीं होता और यही असहज कार्य पद्म भूषण हरिवंशराय बच्चन ने अपने जीवन काल में शुरू किया था जो उनके देहावसान के बाद भी निरंतर चल रहा है। उनके 24 कविता संग्रह, 4 आत्मकथा के अलावा 29 अन्य प्रकाशनों में मधुशाला ने जो अमिट स्थान लिया है उसे ही उनकी प्रतिनिधि रचना के रूप में ज्यादातर लोग मान्यता प्रदान करते हैं।
हमारी स्मृतियों में बुंदेलखण्ड के जाने माने साहित्यकार मनोहर लाल गोस्वामी की झुर्रियोंयुक्त कान्तिमय चेहरा उभरने लगा। गोस्वामी जी ने “मधुशाला” को मयखाने से निकालकर खुदा की इबादत तक पहुंचा दिया। उनकी साहित्यक कृति “कितनी मोहक मधुशाला” के छन्द मस्तिष्क में उथल-पुथल मचाने लगे। हमने उन्हें फोन लगाया, संवाद करने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने तत्काल पहुचने का आग्रह किया ताकि अन्यत्र प्रवास पर जाने के पहले मुलाकात सम्भव हो सके। हम भी कब चूकने वाले थे। गाडी निकाली और उनके आवास पर पहुंचे ही थे कि उन्होंने अपने बंगले की छत से ऊपर ही आ जाने को कहा।
अभिवादन के आदान प्रदान के बाद बातचीत का सिलसिला चल निकला। उन्होंने अपने आदर्श पुरूष हरिवंशराय बच्चन की जयन्ती पर हमें विशेष शुभकामनायें दी। हमने मय, मयखाना, साकी और पैमाने पर उन्हें खींचना शुरू किया। उन्होंने स्थूल और स्थूल के सूक्ष्म संकेतों के मध्य सामंजस्य स्थापित करते हुए कहा कि छायवाद की कठिन भाषा, जटिल भाव और गूढ अर्थ उसे रहस्यमयी बनाते हैं। जिस तरह से दिखने वाले शरीर के पीछे न दिखने वाली आत्मा होती है उसी तरह पढे जाने वाले अक्षरों के पीछे न दिखने वाली व्याख्यायें छुपी रहती हैं। बच्चन जी की “मधुशाला” में आत्मा को परमात्मा तक पहुंचने का रास्ता सुझाया गया है।
तनाव भरी जिन्दगी जीने वालों को रूहानी मस्ती तक पहुंचे की राह दिखायी गई है। हमने उन्हें बच्चन जी के छंदों की ऊंचाई की आभाष कराने के लिए कहा तो वे गुनगुनाये बिना नहीं रहे। होठौं से शब्दों का लयवद्ध उच्चारण होने लगा। ‘एक वर्ष में एक बार ही, जलती दीपों की माला। एक वर्ष में एक बार ही, जलती होली की ज्वाला। किन्तु किसी दिन दुनिया वालों, आ मदिरालय में देखो। दिन को होली रात दिवाली, रोज मनाती मधुशाला।।’ अर्थात सांसारिक संकेतों से अध्यात्मिक जीवन की दीवाली और होली जैसे त्यौहारों को अपने दैनिक जीवन में शामिल करने के लिए ईश्वर की मस्ती में रहना चाहिये। आत्मा को आत्मा के रूप में स्वीकार करें, न कि उसे शरीर के रूप में।
इसीलिए आत्मिक संबंध प्रगाढ होते हैं और सांसारिक रिश्तों में उतार चढाव आते रहते हैं। हमें लगा कि व्याख्या कुछ ज्यादा ही गूढ भाषा में है। संकेतों को भी संकेतों की भाषा में पुनः स्थापित किया जा रहा है। हमने उन्हें बीच में ही टोक दिया। गोस्वामी जी आप तो तुलसीदास जी की कमी को पूरा करने लगे। उन्होंने हमें एक क्षण के लिए प्रश्नवाची नजरों से घूरा और फिर मुस्कुराते हुए बोले कि शब्दों का प्रयोग स्वतः ही सामने वाले के अनुरूप होने लगता है। हम समझ गये कि उन्होंने हमारे सांकेतिक प्रश्न का व्यंगमय उत्तर दिया है।
पीछे हटना हमने भी नहीं सीखा था सो नया प्रश्न दाग दिया। अनुभव को शब्दों का आकार देना संभव होता है परन्तु अनुभूतियां तो गूंगे का गूड है, उसे परिभाषित करना कैसे सम्भव होता है। उनका चेहरे की झुर्रियां कुछ और गहरा गई। शब्दों ने आकार लेना शुरू कर दिया। उन्होंने बताया कि स्थितियों का सूक्ष्म विश्लेषण, उनसे गुजरने वालों की गहन अध्ययन और समानता की तुलनात्मक व्याख्या से लोकगाथाओं का चित्रण किया जा सकता है। यह कठिन अवश्य है किन्तु असम्भव कदापि नहीं। बच्चन जी ने यही किया है।
लोगों के तनाव मुक्ति के लोकमान्य साधनों की में मयखाने की बढती समकालीन मान्यता को शास्वत सत्य के साथ जोडकर गढी जाने वाली “मधुशाला” निश्चित रूप से परमात्मा तक पहुंचाने वाली छायावादी रचना है जिसका अर्थ व्यापक संदर्भ में लिया जाना चाहिये। इस काव्य संग्रह के छंद आज भी अपने वास्तविक अर्थों की खोज में खजुराहो का पाषाण शिल्प बनकर रह गये हैं। बातचीत चल ही रही थी कि उनका नौकर गर्मागर्म काफी, नमकीन, बिस्कुट और खस्ते से सजी ट्रे लेकर छत पर ही आ गया।
लक्षित संवाद पर विराम लगा। हमें बच्चन जी के जन्म दिन पर छायावादी साहित्यकार ने जिस नयी व्याख्या का दर्शन कराया, वह एक अमिट छाप छोड गया। उन्होंने हमारे मस्तिष्क में चल रहे विचार मंथन पर विराम लगाते हुए टेबिल को खिसका कर ट्रे को हमारे ठीक सामने कर दिया। स्वल्पाहार ग्रहण करने का मूक आदेश स्वीकार किया और वापिस अपने आवास की ओर चल दिये। इस बार बस इतना ही, अगली बार फिर मुलाकात होगी तब तक के लिए खुदा हाफिज।
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