Wednesday, February 9, 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ पथभ्रष्टों का अभियान

अमरनाथ
राष्ट्रपिता महात्मागांधी की पुण्यतिथि पर दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी अभियान का आरंभ हुआ, उसका सारा जोर कठोर लोकपाल कानून बनाने पर है। जिसके अंतर्गत भ्रष्टाचार की शिकायत पर एक साल के भीतर जांच पूरा करके अगले साल भर के भीतर दोषी अधिकारी या राजनेता को सजा दिलाई जा सके और भ्रष्टाचार से अर्जित संपत्ति को जब्त किया जा सके । लोकपाल सरकार के नियंत्रण से मुक्त हो और उनकी नियुक्ति में नेताओं की भागीदारी नहीं, जनता की भागीदारी में पारदर्शी तरीके से हो। मगर जनता की भागीदारी और पारदर्शी तरीका को कैसे सुनिश्चित किया जाएगा?

भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के वर्तमान कानूनों और प्रक्रियाओं की कमजोरियों के सर्वविदित होने के बावजूद इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि कानून के कठोर होने से उसका कारगर ढंग से लागू होना सुनिश्चित नहीं होता और लागू हो भी जाए तो अभिप्रेय उदेश्य के पूरा होना सुनिश्चित नहीं हो जाती । इस छोटी सी मोटी बात की जानकारी उन सभी स्वनामधन्य व्यक्तियो को है जो इस अभियान के चेहरा बने हैं । अपने संघर्ष के अनुभवों को एकओर रखकर अधिक कठोर कानून बनाने के अभियान शामिल होने का उनका फैसला एकओर हैरान करता है तो दूसरी ओर रहस्यमय भी लगता है।

साधारण समझ की बात तो यह है कि लोकतंात्रिक देश में सत्ता के सर्वोच्च पदों पर बैठने वाले अधिकारी अर्थात प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के चयन की प्रक्रिया में जितनी जन-भागीदारी होती है और जितना पारदर्शी तरीका आमचुनाव के दौरान अपनाया जाता है, उससे अधिक पारदर्शी और जन-भागीदारी का तरीका कौन सा हो सकता है? आमचुनावों के माध्यम से चुने गए नेताओं की अपने मतदाताओ के प्रति जबाबदेही भी होती है क्योंकि उन्हें अगली बार फिर उन्हीं मतदाताओं के पास जाना होता है। पर सत्ता में आने के बाद उनके भ्रष्ट होने से नहीं रोका जा पाता। भ्रष्टाचार से धनवान बने राजनेता अपने मतदाताओं का दोबारा समर्थन दोबारा प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की सफाई देते हैं और जनता उनकी बातों में आ जाती है। ऐसे में प्रस्तावित जन-लोकपाल कानून के विशेषाधिकारों का प्रयोग करने वाला व्यक्ति भ्रष्ट नहीं होगा इसकी क्या गारंटी हो सकती है ?

हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया भी काफी सख्त है । अदालत के सभी न्यायाधीशों की समिति बेहतर वकीलों की सूची सरकार को भेजती है। सरकार उस सूची के आधार पर जजों की नियुक्ति करती है। उस सूची के बाहर के किसी व्यक्ति को जज बनाने की आजादी सरकार को नहीं है। पर जज बनने के बाद वह व्यक्ति भ्रष्ट हो जाता है। वकील प्रशांत भूषण स्वयं इस भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं और सूप्रीम कोर्ट के कतिपय न्यायाधीशों के भ्रष्ट होने का मामला उठाने की वजह से अदालत की अवमानना के मुकदमे को झोल रहे हैं। न्यायमूर्तियों की नियुक्ति से अधिक पारदर्शी या कठोर तरीका कौन सा हो सकता है जिससे प्रस्तावित कानून के अंतर्गत नियुक्त होने वाला लोकपाल के भ्रष्ट नहीं होने की गारंटी की जा सके ?

जन लोकपाल कानून को तैयार करने वालों में श्री भूषण भी है। इसलिए इन प्रश्नों पर उन्होंने जरूर विचार मंथन किया होगा। कानून का प्रारुप तैयार करने में पूर्व चुनाव आयुक्त श्री लिंगदोह और पूर्व आईपीएस किरण बेदी भी हैं। याद करने की जरूरत है कि पहले एक चुनाव आयुक्त होते थे। उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठने पर समान अधिकारों से संपन्न तीन चुनाव आयुक्त होने लगे। पर क्या उसके बाद भी आयोग की निष्पक्षता को लेकर प्रश्न नहीं उठे? पिछले आमचुनाव को ही याद करें जब सेवानिवृत्ति के कगार पर पहुंचे मुख्य चुनाव आयुक्त ने अपने सहयोगी की निष्पक्षता पर सवाल उठाए थे। तीन चुनाव आयुक्त होने का प्रभाव असल में यह हुआ कि चुनाव प्रक्रिया थोडी जटिल और अधिक खर्चिली हो गई।
पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी भी उस कानून के लेखकों में हैं। उन्हें तिहाड जेल के कैदियों को सुधारने के उल्लेखनीय कामों के लिए देश-विदेश में सम्मानित किया गया है। लेकिन क्या उन्होंने जिस जेल सुधार अभियान की शुरुआत की, उससे आम कैदियों की दशा में कोई स्थाई सुधार हो सका? वैसे उनपर मिजोरम में तैनात होने के दौरान मिजोरम के बच्चों के लिए केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में आरक्षण के प्रावधानों का इस्तेमाल कर अपनी सुपुत्री का नामांकन मेडिकल कालेज में कराने का आरोप लगा था।

अब इस अभियान में शामिल अन्य प्रमुख लोगों पर नजर डालें। सूचना के अधिकार की लंबी लडाई लडने वाले अरविंद केजरीवाल को स्वयं से पूछना चाहिए कि इस कानून के बन जाने और सूचना नहीं देने पर जुर्माना का प्रावधान होने से क्या जनता को आवश्यक सूचनाएं आसानी से मिलने लगी हैं ? सूचना देने में आनाकानी, गलतबयानी के अलावा कार्यकर्ताओं की हत्या होने की घटनाए भी क्या नहीं होने लगी ? क्या सूचना आयुक्तों की अदालतों में भी ठीक उसीतरह के दलाल तत्वों का बोलबाला नहीं हो गया जैसे आम अदालतों में होता है ? जाहिर है कि केजरीवाल अपने अनुभव को भूलकर एक नया सर्वशक्तिशाली कानून से लैस सत्ताकेन्द्र बनाने की मांग कर रहे हैं जो आमलोगों को वर्तमान स्थिति से भी अधिक कमजोर करेगा। बाल मजदूरी के खिलाफ लंबा संघर्ष करके प्रतिष्ठित स्वामी अग्निवेश क्या बता सकेगे कि बाल मजदूरी उन्मूलन का कानून बन जाने से क्या बाल-मजदूरी पूरी तरह समाप्त हो गई है? क्या राजधानी दिल्ली की दूकानों, ढाबों, चायखानों में क्या चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को काम करते नहीं देखा जा रहा ? दूरदराज के इलाकों, कारखानों की बात अलग है और खेत-खलिहानों में तो कई काम सिर्फ बच्चे ही करते हैं।

वयोवृध्द वकील राम जेठमलानी के बारे में कुछ भी कहें कम होगा। इंदिरा गंाधी के हत्यारे से लेकर जेसिका लाल के हत्यारे मनुशर्मा और हत्या के आरोप में फंसे शंकराचार्य तक के मुकदमों की पैरवी करने वाले इस वकील साहब को कभी राजीव गांधी से रोजना सवाल पूछने की जरूररत लगी थी तो कभी प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के निवास के सामने धरना पर बैठकर अपनी फजीहत कराने का लालसा लग गई। कभी पार्टी बनाने की जरूरत लगती है तो कभी राज्यसभा पहुंचने के लिए शिवसेना की सहायता लेने से भी परहेज नहीं होता । इसबार भी भाजपी की मदद से राज्यसभा पहुंच गए हैं । हालांकि जानने वाले जानते हैं कि उनकी हर चुनावी जीत का असली कारक पैसेवाला होना है।
हालांकि हम इनसबकी कूंडली लिखने नहीं बैठे। यह लिखने बैठे हैं कि भ्रष्टाचार मिटाने और भ्रष्टाचारियों को दंड मिलना सुनिश्चित करने के लिए किसी कठोर कानून को बनाने की जरूरत नहीं है। जरूरत भ्रष्टाचार की उत्पत्ति के कारणों को समझने, और उन परिस्थितियों को बदलने की है जिनकी वजह से भ्रष्टाचार को पैदा होने, फलने-फूलने का अवसर मिलता है। कानूनों की कठोरता और जटिलता भ्रष्टाचार को पैदा करती है, उसे कोई कानून नहीं मिटा सकता। भ्रष्टाचार को सत्ता का मद पैदा करता है और धनबल को मिलने वाली समाजिक प्रतिष्ठा पैदा करता है। इसे समझने की जरूरत है। यह कानून और प्रक्रिया का प्रश्न उतना नहीं है जितना नैतिक प्रश्न है।

इस अभियान के प्रचार पत्र से पता चलता है कि इसके पीछे श्री रविशंकर जी, स्वामी रामदेव और आर्चविशप हैं। उनके साथ स्वामी अग्निवेश को जोड दें तो धार्मिक-आध्यामिक भावनाओं के इन चितेरों को राजनीति के इस रास्ते को अपनाने के बजाए अपने रास्ते से इस प्रश्न का मुकाबला करना चाहिए कि भ्रष्टाचार क्यो पनप रहा है ? अपने समर्थकों-अनुयाईयों में से भ्रष्टाचारियों को हटाना चाहिए। परन्तु इसे हम संयोग ही मान सकते हैं कि श्री रविशंकर जिस अध्यात्म की बात करते हैं, वह भ्रष्ट आचरण से शक्तिवान बने लोगों को मानसिक शंाति देने के उदेश्य से प्रेरित होता है। स्वामी रामदेव योगसाधना से जिन रोगों से मुक्ति का संदेश देते हैं वे सभी रोग-मधुमेह,रक्तचाप,हृदय रोग आदि बहुधा भ्रष्टचारियों को ही होते हैं। दोनों अपने अनुयाइयों के बीच जिस राजसी शोभायात्राओं में अवतरित होते हैं, क्या वे भक्त क्या मिहनत से दो जून की रोटी कमाने वाले आम लोग होते हैं ? इस अभियान की शुरुआत गांधी के निर्वाण दिवस पर हुई। इसलिए गांधी की एक बहु-प्रचारित उक्ति से अपनी बात को समाप्त करना उपयुक्त होगा कि जब अपने किसी काम को लेकर दुविधा हो तो सोचो इससे आखिरी आदमी को क्या मिलेगा? गांधी के अनुयाई जब भटकते थे तो गांधी आत्मशुध्दि के लिए स्वयं उपवास करते थे, सत्ताधारियों से किसी कानून को बनाने की मांग करने या उन विपथगामी लोगों को सजा देने की जुगत भिड़ाने नहीं लग जाते थे। च

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