By विष्णुगुप्त
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इस हफ्ते दुनिया के दो अलग अलग हिस्सों में दो ऐसी जघन्य आतंकी वारदातों को अंजाम दिया गया जब समूचा संसार स्तब्ध रह गया। केन्या की राजधानी नैरोबी के एक शापिंग मॉल में इस्लाम के नाम पर चुन चुन कर गैर इस्लामिक लोगों को गोलियां मारी गईं तो ठीक उसी समय पाकिस्तान के पेशावर शहर में एक चर्च पर हमला करके अल्पसंख्यक इसाइयों की प्रार्थना सभा को मातम में तब्दील में कर दिया गया। पेशावर में भी ईसाई धर्मावलंबियों का कत्लेआम इस्लाम के नाम पर ही किया गया।
इस्लाम के नाम पर जारी इस कत्लेआम क्या दुनिया में सभ्यताओं के संघर्ष की वह सच्चाई सामने रखता है जब दुनिया में ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का सिद्धांत एक पुस्तक के तौर पर सामने आई थी तब दुनिया भर में तहलका मचा था और सभ्यताओं के संघर्ष के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाले लेखक पर उपनिवेशिक और धार्मिक घृणा फैलाने के आरोप भी लगाये गये थे। यह भी कहा गया था कि इस सिद्धांत के मूल में ईसाई सर्वश्रेष्ठता का सिद्धांत है। यह ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का सिद्धांत है क्या जिसके आलोक में इस्लामिक कत्लेआम को देखने की जरूरत है?
वास्तव में सभ्यताओं के संघर्ष सिद्धांत में इस्लाम की हिंसक राजनीति-वर्चस्व के खतरनाक खेल से दुनिया की शांति-सदभाव के साथ ही साथ मानवता को किस प्रकार से लहुलूहान करेगा, यह उल्लेखित है। एक तरफ जहां इस्लाम होगा वहीं दूसरी ओर दुनिया की सभी धर्म खड़े होंगे। अन्य सभी धर्मों का इस्लाम से संघर्ष होगा और इस संघर्ष में कौन जीतेगा और कौन हारेगा यह निश्चित नहीं है, पर मानवता जरूर शर्मशार और लहूलुहान होगी? लेखक ने यह निष्कर्ष यूरोप में अरब, भारतीय उप महाद्वीप और अफ्रीका से आयी मुस्लिम आबादी की हिंसक और एकमेव मजहब की सर्वश्रेष्ठता/वर्चस्व के खूनी खेल से निकाला था, लेखक के सामने अरब, अफ्रीका और भारतीय उप महाद्वीप में चल रहे इस्लामिक आतंकवाद की कसौटी भी सामने थी। सभ्यताओं के संघर्ष का उदाहरण और प्रमाण बार-बार मिलता है पर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और मानवाधिकार के सरगना हमेशा इसे नकारते रहे हैं जिससे कहीं न कहीं इस्लाम की अनुदारता और इस्लाम के नाम पर मानवता को शर्मशार करने वाली और मानवता को लहुलूहान करने वाली घटनाएं घटने की जगह बढ़ती ही रहती हैं। हर जगह और हर देश में मुस्लिम आबादी को ही तथाकथित परेशानी क्या होती हैं, मुस्लिम आबादी ही आतंकवाद का हथकंडा क्यों अपनाती है?
पाकिस्तान के चर्च पर हुए बर्बर व मानवता को शर्मशार करने वाले इस्लामिक आतंकवादियों के हमले और केन्या के नेरोबी शहर के एक प्रसिद्ध मॉल पर हुए इस्लामिक आतंकवादी हमले के बाद भी सभ्यताओं का संघर्ष सिद्धांत को क्या खारिज किया जा सकता है? दोनों देशों यानी पाकिस्तान और केन्या में गैर मुस्लिम धर्मावलम्बियों को आतंकवाद और हिंसा का शिकार बनाया गया है। सबसे पहले हम पाकिस्तान के पेशावर शहर के चर्च पर हुए इस्लामिक आतंकवादियों के हमले की मानसिकता और उनके उद्देश्य को परखते हैं। हमें यह देखना होगा कि पेशावर के चर्च पर हमला कर सौ से अधिक ईसाइयों को मौत का घाट उतारने वाला आतंकवादी संगठन कौन था? पेशावर के चर्च पर हमला करने की जिम्मेदारी तहरीक-ए-तालिबान नामक संगठन ने ली है। तहरीक-ए-तालिबान नामक आतंकवादी संगठन का उद्देश्य पाकिस्तान से गैर मुस्लिमों यानी हिन्दुओं, ईसाइयों और सिखों का सफाया करने का है। तहरीक-ए-तालिबान ने बार-बार फरमान सुनाया है कि पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दू, सिख और ईसाई इस्लाम स्वीकार कर लें या फिर पाकिस्तान छोड़कर चले जायें नहीं तो फिर उनका अपहरण और कत्लेआम होना निश्चित है। अगर हिन्दू, सिख और ईसाई इस्लाम स्वीकार नहीं करते हैं तो उनके पास दो ही रास्ते बचते हैं। ये दोनों रास्ते कौन से हैं?
एक रास्ता पाकिस्तान छोड़कर चले जाने का है और दूसरा रास्ता तहरीक ए तालिबान की हिंसक आतंकवाद का शिकार होने का है। पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दू, ईसाई और सिख इतने गरीब हैं कि वे अमेरिका-यूरोप कैसे जा सकते हैं और ये पाकिस्तान छोड़कर अमेरिका-यूरोप जाना चाहेंगे भी तो क्या अमेरिका-यूरोप इन्हें स्वीकार करेगा। पाकिस्तान में चाहे सरकार आसिफ जरदारी की हो या फिर नवाज शरीफ की, सभी की हिन्दुओं, ईसाइयों और सिखों के जान-माल की सुरक्षा प्राथमिकता से बाहर है। ईशनिंदा की फर्जी अफवाह पर लाहौर स्थित ईसाइयों की एक पूरी कालोनी पर किस प्रकार से हिंसक लोगों ने हमला किया था और पूरी कालोनी को आग के हवाले कर दिया था, यह सब भी दुनिया की याद से ओझल कैसे हो सकता है। नवाज शरीफ ने सरकार में आते ही तालिबान ही क्यों बल्कि हाफिज सईद जैसे कई आतंकवादियों और आतंकवादी संगठनों को आर्थिक सहायताएं दी हैं और आर्थिक सहायताएं देते समय यह भी कहा गया कि हाफिज सईद की तरह अन्य आतंकवादी संगठन भी सामाजिक कार्य करते हैं। तहरीक ए तालिबान ने पेशावर के चर्च पर हमला करने की जिम्मेदारी लेते हुए कहा है कि पूरी दुनिया के ईसाई उनके निशाने पर हैं क्योंकि ईसाई देश इस्लाम के प्रचार-प्रसार में रोड़ा हैं।
केन्या के नेरोबी शहर के मॉल पर हुए इस्लामिक आतंकवादी हमले के संदेश सीधेतौर पर सभ्यताओं के संघर्ष की ओर देखने के लिए हमें बाध्य करता है। नेरौबी के माॅल पर हमला करने वाला इस्लामिक आतंकवादी संगठन ‘अल सबाब’ है। अल सबाब के आतंकवादियों ने माॅल पर हमला करने के समय माॅल में उपस्थित मुस्लिम धर्मावलम्बियों को सुरक्षित जाने दिया। अल सबाब ने लाउड स्पीकर पर घोषणा की कि जो मुस्लिम हैं वे माॅल से बाहर आ जायें उन्हें मारा नहीं जायेगा। अल सबाब ने माॅल में उपस्थित हिन्दुओं, ईसाइयों और यहूदियों को निशाना बनाया। माॅल के आसपास हिन्दुओं की बड़ी आबादी है। भारी संख्या हिन्दू मारे गये हैं। केन्या के नेरोबी शहर के माॅल पर हमला करने वाले आतंकवादी संगठन अल सबाब ने छोटे-छोटे बच्चों को अपना निशाना बनाने और उन्हें मौत की नींद सुलाने से पीछे नहीं रहा। कुछ साल पूर्व रूस के चैचन्या में इस्लामिक आतंकवादियों ने कैसे एक बच्चों की स्कूल पर हमला कर चार सौ बच्चों की हत्या कर दी थी जिसकी उम्र पांच साल से लेकर 12 साल के बीच थी। यह भी जगजाहिर है। अल सबाब ऐसे तो सोमालिया मूल का इस्लामिक आतंकवादी संगठन है पर वह अफ्रीका के लगभग सभी देशों में सक्रिय है, अल सबाब का अलकायदा के साथ गठजोड़ है। अल शबाब और अलकायदा पूरे अफ्रीका से ईसाई और अन्य धर्मालवंलब्यिों का सफाया करना चाहते हैं जिसके लिए अलकायदा-अल शबाब का आतंकवादी जेहाद कर रहे हैं। अफ्रीका महादेश के छोटे-छोटे और संसाधन विहीन देशों का यह दुर्भाग्य और विडंबना यह है कि वे लम्बे समय से इस्लाम की एकछत्र राज की मानसिकता से दमित हैं और वे विष्य में भी इस्लाम की एकछत्र राज की मानसिकता से मुक्त नहीं होंगे?
अफ्रीका में पहले ईसाई गये और बाद में इस्लाम वहां पर पहुंचा। चर्च और मस्जिद के बीच सर्वश्रेष्ठता व वर्चस्व की जंग ऐसी है जो कब समाप्त होगी यह कहना मुश्किल है। हां, यह सही है कि चर्च जहां राजनीतिक तौर पर लड़ रहा है और कथित सेवाभाव उसकी प्राथमिकता में शामिल हैं वही मस्जिद हिंसक राजनीति, आतंकवाद और घृणा की मानसिकता के हथकंडे से इस्लाम का राज स्थापित करना चाहता है। सोमालिया के इस्लामिक आतंकवादी समुद्र के व्यापार को किस प्रकार से कठिन बना दिया है? सोमालिया के इस्लामिक डकैतों के सामने दुनिया के सभी देश समुद्री जहाजों के सुरक्षित परिचालन को लेकर संकटग्रस्त क्या नहीं है और क्या चिंतित नहीं है।
कोई भी चिंतनशील प्राणी, कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने वाला व्यक्ति कभी भी सभ्यताओं के संघर्ष के सिद्धांत को सही होते हुए देखना नहीं चाहेगा। सभ्यताओं के संघर्ष से दुनिया को लोकतांत्रिक/मानवता का प्रतीक बनाने की प्राथमिकता का उपहास उड़ता है। पर हमें यह देखना होगा कि क्या इसके लिए इस्लाम अनुदारता व एकमेव आख्यानें व इस्लाम के नाम पर हिंसा और घृणा फैलाने वाले आतंकवादी संगठन जिम्मेदार नहीं है। इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को आखिर उनकी इस खतरनाक मानसिकता को भोजन-पानी कहां से मिलता है। इसका उŸार मुस्लिम आबादी ही हो सकती है। जब तक मुस्लिम आबादी आतंकवादी मानसिकता को तुष्ट करती रहेगी तब तक दुनिया में शांति की उम्मीद ही नहीं हो सकती है। खुद इस्लाम भी घृणा और तिरस्कार का प्रतीक बन सकता है। निष्कर्ष यह है कि आतंकवादियों की करतूतों व बेगुनाहों के कत्लेआम से खुद इस्लाम आज पूरी दुनिया में घृणा का प्रतीक के रूप में खड़ा है।