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अहमदाबाद। कभी गुजरात सरकार के चहेते रहे सोहराबुद्दीन और अन्य फर्जी मुठभेड़ों के आरोपी पुलिस अफसर डी.जी. वंजारा ने कहा है कि उन्होंने जो कुछ किया सरकार के कहने पर किया। सरकार से बेहद नाराज वंजारा ने राज्य के गृह मंत्रालय को लिखी एक लंबी चिट्ठी में लिखा है कि जिस आरोप में वह और उनके बाकी पुलिस अफसर साथी जेल में बंद हैं, उसकी जिम्मेदारी पूर्व गृह राज्य मंत्री अमित शाह की भी बनती है। उन्होंने साफ-साफ लिखा है कि गुजरात सरकार को सलाखों के पीछे होना चाहिए। इन आरोपों को के साथ ही आईपीएस अधिकारी वंजारा ने भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा भी दे दिया है।
अपनी चिट्ठी में वंजारा लिखते हैं कि मैंने ऐसा कभी नहीं देखा कि किसी राज्य के 32 पुलिस अफसर फर्जी मुठभेड़ों के आरोप में जेल में बंद हैं, जिनमें 6 आईपीएस अफसर हैं। वह लिखते हैं कि हम सरकार के वफादार सिपाही रहे और उसी के बताए काम करने पर गिरफ्तार होने के बाद किसी ने हमारी सुध नहीं ली। 6 साल से जेल में बंद वंजारा ने लिखा है, "वक्त गुजरने के साथ-साथ मुझे अहसास हुआ इस सरकार की हमें बचाने में कोई दिलचस्पी नहीं है बल्कि यह तो गुपचुप तरीके से हमें अंदर रखने की कोशिशें कर रही है, ताकि सीबीआई से अपनी चमड़ी बचा सके और राजनीतिक फायदे उठा सके।... जब पूर्व गृह राज्य मंत्री अमितभाई शाह को गिरफ्तार किया गया तो सरकार अचानक मुस्तैद हो गई। विद्वान, वरिष्ठ और सबसे महंगे वकील राम जेठमलानी को उनके बचाव के लिए लाया गया। जेठमलानी ने सबसे निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में उनका बचाव किया और रेकॉर्ड 3 महीने में उन्हें जमानत दिला दी। इसके उलट जब मैं, राजकुमार पांडियन और एम.एन. दिनेश गिरफ्तार हुए तो कानूनी सहायता तो दूर कोई हमें जबानी तसल्ली देने भी नहीं आया। बेशर्मी और बेदर्दी की हद तो तब हुई जब अपनी कोशिशों से जमानत पाने में कामयाब हुए नरेंद्र अमीन और दिनेश एम.एन. की जमानत रद्द करवाकर उन्हें दोबारा सलाखों के पीछे पहुंचा दिया गया।"
वंजारा लिखते हैं कि उन्हें सबसे बड़ा आघात तब लगा जब उनके मुकदमे को सुनवाई के लिए गुजरात से बाहर भेज दिया गया। इसके लिए वह अमित शाह को जिम्मेदार ठहराते हैं। उन्होंने लिखा है, "माननीय सुप्रीम कोर्ट के पूरे सम्मान के साथ मैं यह मानता हूं कि सोहराबुद्दीन और उसके बाद तुलसीराम मुठभेड़ मामले को अमित शाह की तरकीबों और तिकड़मों के बिना गुजरात के बाहर नहीं भेजा जा सकता था।... मामले का निचोड़ इतना है कि यह सब इसलिए किया गया ताकि अमित शाह की 2012 का विधानसभा चुनाव लड़ने की तुच्छ इच्छा पूरी हो सके। इसीलिए उन्होंने हमें धोखा दिया और हमारा मामला गुजरात के बाहर भिजवाकर हमें एक तरफ तो तालोजा जेल में सड़ने के लिए छोड़ दिया और दूसरी तरफ मुंबई में महंगा मुकदमा झेलने को मजबूर किया जबकि हममें से कोई भी इसका खर्च उठाने की स्थिति में नहीं था।"
वंजारा ने मोदी पर अमित शाह के प्रभाव में होने की बात करते हुए लिखा है, 'मैं इतने लंबे वक्त तक इसलिए शांत था, क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का मैं बहुत सम्मान करता था और उन्हें भगवान की तरह पूजता था। लेकिन, अब मुझे बड़ा दुख है कि 'मेरे भगवान' अमित शाह के बुरे प्रभाव से ऊपर नहीं उठ पाए, जिसने उनकी आंखों और कान पर कब्जा कर लिया है। अमित शाह ने पिछले 12 साल से उन्हें ऐसा भ्रमित किया हुआ है कि वह बकरी और कुत्तों के बीच का अंतर ही भूल गए हैं।'
वंजारा लिखते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है और अब उनके सब्र का बांध टूट चुका है। चिट्ठी के चौथे पेज का आखिरी पैराग्राफ कहता है, "इन हालात में मैं और मेरे साथी महसूस करते हैं कि हमारे साथ धोखा हुआ है, सरकार ने हमें त्याग दिया है, इसलिए हमारे पास इस सरकार और इसके मुख्य रणनीतिकार अमित शाह पर भरोसा करने का कोई कारण नहीं बचा है...मैं 2002 से देख रहा हूं कि गृह राज्य मंत्री के तौर पर अमितभाई शाह ने पुलिस जैसे बेहद संवेदनशील विभाग को बहुत लापरवाही से संभाला जबकि गोधरा ट्रेन कांड, गुजरात दंगों और जिहादी आतंकवाद के दौर में पुलिस को बहुत असावधानी के साथ संभाला गया।"
अपनी चिट्ठी के 5वें पेज के आखिरी पैराग्राफ से वंजारा गुजरात सरकार और खासकर अमित शाह को 'बेनकाब' करना शुरू करते हैं। वह कहते हैं, "मैंने अब तक बहुत धैर्य का परिचय दिया है। 6 साल से मैं इसी उम्मीद में रहा कि सरकार की आत्मा जागेगी और वह हमारा साथ देगी। लेकिन सरकार ने हमारी सारी उम्मीदें तोड़ दी हैं।... 6 साल में अपने अफसरों को और खुद बचाने के लिए मैं हर संभव कोशिश कर चुका हूं। इसलिए अब मेरे पास धर्म नाम का हथियार ही रह गया है। गुरु गोबिंद सिंह ने कहा था कि जब न्याय का कोई और रास्ता न बचे तो धर्म के हथियार का इस्तेमाल करो। इस आधार पर अब इन मामलों के असली गुनहगारों को बेनकाब करने के लिए नैतिक रूप से स्वतंत्र हूं। इसलिए मैं एकदम साफ और स्पष्ट शब्दों में कहना चाहूंगा कि 2002 से 2007 के बीच क्राइम ब्रांच, एटीएस और बॉर्डर रेंज ने वही किया जो इस सरकार की नीति थी।"
आतंकवाद के खिलाफ छेड़े गए अभियान के लिए गोधरा और गुजरात की घटनाओं को जिम्मेदार ठहराते हुए वंजारा ने लिखा है कि दंगों के बाद पाकिस्तान की शह पर आतंकवादी कश्मीर जैसे हालात बनाना चाह रहे थे। हर ओर जिहादी आतंकवाद सिर उठा रहा था, इसलिए सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहनशीलता की नीति बनाई। वंजारा लिखते हैं, "गुजरात सरकार की इस नीति पर गुजरात पुलिस ने आमतौर पर तथा एटीएस और क्राइम ब्रांच ने खासतौर पर अमल किया। इसी के तहत आतंक से जुड़े अपराधों का खुलासा हुआ। कई आंतकी नेटवर्क पकड़े गए और बहुत सारे एनकाउंटर भी हुए।...गुजरात सीआईडी और सीबीआई ने मुझे और मेरे साथियों को जिन फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम देने के आरोप में गिरफ्तार किया है, अगर उनमें कोई सचाई है तब तो सोहराबुद्दीन, तुलसीराम, सादिक जमाल और इशरत जहां मुठभेड़ों की जांच कर रहे अफसरों को नीति बनाने वालों को भी गिरफ्तार करना चाहिए। हम लोग तो फील्ड ऑफिसर होने के नाते सिर्फ उस नीति को अंजाम दे रहे थे। मुझे पूरा यकीन है कि इस सरकार की जगह गांधीनगर में नहीं बल्कि तालोजा, नवी मुंबई या साबरमती जेल की सलाखों के पीछे है।"
अहमदाबाद। कभी गुजरात सरकार के चहेते रहे सोहराबुद्दीन और अन्य फर्जी मुठभेड़ों के आरोपी पुलिस अफसर डी.जी. वंजारा ने कहा है कि उन्होंने जो कुछ किया सरकार के कहने पर किया। सरकार से बेहद नाराज वंजारा ने राज्य के गृह मंत्रालय को लिखी एक लंबी चिट्ठी में लिखा है कि जिस आरोप में वह और उनके बाकी पुलिस अफसर साथी जेल में बंद हैं, उसकी जिम्मेदारी पूर्व गृह राज्य मंत्री अमित शाह की भी बनती है। उन्होंने साफ-साफ लिखा है कि गुजरात सरकार को सलाखों के पीछे होना चाहिए। इन आरोपों को के साथ ही आईपीएस अधिकारी वंजारा ने भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा भी दे दिया है।
अपनी चिट्ठी में वंजारा लिखते हैं कि मैंने ऐसा कभी नहीं देखा कि किसी राज्य के 32 पुलिस अफसर फर्जी मुठभेड़ों के आरोप में जेल में बंद हैं, जिनमें 6 आईपीएस अफसर हैं। वह लिखते हैं कि हम सरकार के वफादार सिपाही रहे और उसी के बताए काम करने पर गिरफ्तार होने के बाद किसी ने हमारी सुध नहीं ली। 6 साल से जेल में बंद वंजारा ने लिखा है, "वक्त गुजरने के साथ-साथ मुझे अहसास हुआ इस सरकार की हमें बचाने में कोई दिलचस्पी नहीं है बल्कि यह तो गुपचुप तरीके से हमें अंदर रखने की कोशिशें कर रही है, ताकि सीबीआई से अपनी चमड़ी बचा सके और राजनीतिक फायदे उठा सके।... जब पूर्व गृह राज्य मंत्री अमितभाई शाह को गिरफ्तार किया गया तो सरकार अचानक मुस्तैद हो गई। विद्वान, वरिष्ठ और सबसे महंगे वकील राम जेठमलानी को उनके बचाव के लिए लाया गया। जेठमलानी ने सबसे निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में उनका बचाव किया और रेकॉर्ड 3 महीने में उन्हें जमानत दिला दी। इसके उलट जब मैं, राजकुमार पांडियन और एम.एन. दिनेश गिरफ्तार हुए तो कानूनी सहायता तो दूर कोई हमें जबानी तसल्ली देने भी नहीं आया। बेशर्मी और बेदर्दी की हद तो तब हुई जब अपनी कोशिशों से जमानत पाने में कामयाब हुए नरेंद्र अमीन और दिनेश एम.एन. की जमानत रद्द करवाकर उन्हें दोबारा सलाखों के पीछे पहुंचा दिया गया।"
वंजारा लिखते हैं कि उन्हें सबसे बड़ा आघात तब लगा जब उनके मुकदमे को सुनवाई के लिए गुजरात से बाहर भेज दिया गया। इसके लिए वह अमित शाह को जिम्मेदार ठहराते हैं। उन्होंने लिखा है, "माननीय सुप्रीम कोर्ट के पूरे सम्मान के साथ मैं यह मानता हूं कि सोहराबुद्दीन और उसके बाद तुलसीराम मुठभेड़ मामले को अमित शाह की तरकीबों और तिकड़मों के बिना गुजरात के बाहर नहीं भेजा जा सकता था।... मामले का निचोड़ इतना है कि यह सब इसलिए किया गया ताकि अमित शाह की 2012 का विधानसभा चुनाव लड़ने की तुच्छ इच्छा पूरी हो सके। इसीलिए उन्होंने हमें धोखा दिया और हमारा मामला गुजरात के बाहर भिजवाकर हमें एक तरफ तो तालोजा जेल में सड़ने के लिए छोड़ दिया और दूसरी तरफ मुंबई में महंगा मुकदमा झेलने को मजबूर किया जबकि हममें से कोई भी इसका खर्च उठाने की स्थिति में नहीं था।"
वंजारा ने मोदी पर अमित शाह के प्रभाव में होने की बात करते हुए लिखा है, 'मैं इतने लंबे वक्त तक इसलिए शांत था, क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का मैं बहुत सम्मान करता था और उन्हें भगवान की तरह पूजता था। लेकिन, अब मुझे बड़ा दुख है कि 'मेरे भगवान' अमित शाह के बुरे प्रभाव से ऊपर नहीं उठ पाए, जिसने उनकी आंखों और कान पर कब्जा कर लिया है। अमित शाह ने पिछले 12 साल से उन्हें ऐसा भ्रमित किया हुआ है कि वह बकरी और कुत्तों के बीच का अंतर ही भूल गए हैं।'
वंजारा लिखते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है और अब उनके सब्र का बांध टूट चुका है। चिट्ठी के चौथे पेज का आखिरी पैराग्राफ कहता है, "इन हालात में मैं और मेरे साथी महसूस करते हैं कि हमारे साथ धोखा हुआ है, सरकार ने हमें त्याग दिया है, इसलिए हमारे पास इस सरकार और इसके मुख्य रणनीतिकार अमित शाह पर भरोसा करने का कोई कारण नहीं बचा है...मैं 2002 से देख रहा हूं कि गृह राज्य मंत्री के तौर पर अमितभाई शाह ने पुलिस जैसे बेहद संवेदनशील विभाग को बहुत लापरवाही से संभाला जबकि गोधरा ट्रेन कांड, गुजरात दंगों और जिहादी आतंकवाद के दौर में पुलिस को बहुत असावधानी के साथ संभाला गया।"
अपनी चिट्ठी के 5वें पेज के आखिरी पैराग्राफ से वंजारा गुजरात सरकार और खासकर अमित शाह को 'बेनकाब' करना शुरू करते हैं। वह कहते हैं, "मैंने अब तक बहुत धैर्य का परिचय दिया है। 6 साल से मैं इसी उम्मीद में रहा कि सरकार की आत्मा जागेगी और वह हमारा साथ देगी। लेकिन सरकार ने हमारी सारी उम्मीदें तोड़ दी हैं।... 6 साल में अपने अफसरों को और खुद बचाने के लिए मैं हर संभव कोशिश कर चुका हूं। इसलिए अब मेरे पास धर्म नाम का हथियार ही रह गया है। गुरु गोबिंद सिंह ने कहा था कि जब न्याय का कोई और रास्ता न बचे तो धर्म के हथियार का इस्तेमाल करो। इस आधार पर अब इन मामलों के असली गुनहगारों को बेनकाब करने के लिए नैतिक रूप से स्वतंत्र हूं। इसलिए मैं एकदम साफ और स्पष्ट शब्दों में कहना चाहूंगा कि 2002 से 2007 के बीच क्राइम ब्रांच, एटीएस और बॉर्डर रेंज ने वही किया जो इस सरकार की नीति थी।"
आतंकवाद के खिलाफ छेड़े गए अभियान के लिए गोधरा और गुजरात की घटनाओं को जिम्मेदार ठहराते हुए वंजारा ने लिखा है कि दंगों के बाद पाकिस्तान की शह पर आतंकवादी कश्मीर जैसे हालात बनाना चाह रहे थे। हर ओर जिहादी आतंकवाद सिर उठा रहा था, इसलिए सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहनशीलता की नीति बनाई। वंजारा लिखते हैं, "गुजरात सरकार की इस नीति पर गुजरात पुलिस ने आमतौर पर तथा एटीएस और क्राइम ब्रांच ने खासतौर पर अमल किया। इसी के तहत आतंक से जुड़े अपराधों का खुलासा हुआ। कई आंतकी नेटवर्क पकड़े गए और बहुत सारे एनकाउंटर भी हुए।...गुजरात सीआईडी और सीबीआई ने मुझे और मेरे साथियों को जिन फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम देने के आरोप में गिरफ्तार किया है, अगर उनमें कोई सचाई है तब तो सोहराबुद्दीन, तुलसीराम, सादिक जमाल और इशरत जहां मुठभेड़ों की जांच कर रहे अफसरों को नीति बनाने वालों को भी गिरफ्तार करना चाहिए। हम लोग तो फील्ड ऑफिसर होने के नाते सिर्फ उस नीति को अंजाम दे रहे थे। मुझे पूरा यकीन है कि इस सरकार की जगह गांधीनगर में नहीं बल्कि तालोजा, नवी मुंबई या साबरमती जेल की सलाखों के पीछे है।"
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