Monday, March 19, 2018

यह अविश्वास प्रस्ताव बहुमत में होने के बाद भी मोदी सरकार की मुश्किलें बढ़ा सकता है

11वें दिन भी नहीं चली लोकसभा, अविश्वास प्रस्ताव के लिए इमेज परिणाम

उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में हुए उपचुनावों में लगातार हार का सामना कर रही भाजपा को अब संसद में पहली बार विश्वासमत हासिल करना पड़ सकता है.

बीती 16 मार्च को आंध्र प्रदेश की सत्ताधारी तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) ने खुद को भाजपानीत राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से अलग कर लिया. साथ ही, टीडीपी प्रमुख एन चंद्रबाबू नायडू ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का भी ऐलान किया है. इससे पहले वाईएसआर कांग्रेस ने भी इसकी घोषणा की थी. दोनों पार्टियां आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा न दिए जाने की वजह से मोदी सरकार से नाराज हैं. इसी वजह से दोनों ने यह कदम उठाने का फैसला किया है.
बीते शुक्रवार को वाईएसआर कांग्रेस सांसद वाईबी सुब्बा रेड्डी ने लोक सभा में अविश्वास प्रस्ताव से जुड़ा नोटिस पेश किया. हालांकि, लोक सभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सदन में हंगामे को वजह बताते देते हुए इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया. मोदी सरकार के खिलाफ पहली बार लाए जाने वाले अविश्वास प्रस्ताव को कई विपक्षी दलों ने समर्थन देने की बात कही है. इनमें महाराष्ट्र में भाजपा की सहयोगी शिवसेना, तृणमूल कांग्रेस, सीपीएम, एनसीपी और एआईएमआईएम शामिल हैं. दूसरी ओर, शिवसेना सहित कई अन्य पार्टियों ने सोमवार को इस बारे में फैसला करने की बात कही है.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-75 में कहा गया है कि केंद्रीय मंत्रिपरिषद लोक सभा के प्रति जवाबदेह है. यानी सदन में बहुमत हासिल होने पर ही मंत्रिपरिषद बनी रह सकती है. इसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर प्रधानमंत्री सहित मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देना होता है. अविश्वास प्रस्ताव लोक सभा की नियमावली-198 के लाया जाता है. इसके लिए लोक सभा के कम से कम 50 सांसदों का समर्थन अनिवार्य होता है. भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली बार 1963 में जवाहर लाल नेहरू की सरकार को अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था. इसके बाद 1978 में पहली बार मोरारजी देसाई सरकार को सदन का विश्वास हासिल करने में विफल रहने पर इस्तीफा देना पड़ा था. 1963 से लेकर अब तक केंद्र की सरकारों को 26 बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा है.
2014 के चुनाव में भाजपा ने अकेले बहुमत का आंकड़ा (272) पार कर 282 सीटें हासिल की थीं. हालांकि, इस बीच हुए उपचुनावों के बाद भाजपा सांसदों की संख्या घटकर 274 रह जाने के बाद भी पार्टी बहुमत में बनी हुई है. एनडीए घटक दलों के सांसदों की संख्या को देखते हुए भी मोदी सरकार पर कोई खतरा मंडराता हुआ नहीं दिखता. इसके बावजूद इस अविश्वास प्रस्ताव से भाजपा के लिए कई मोर्चों पर मुश्किलें पैदा होती हुई दिख रही हैं.
लोक सभा में राजनीतिक दलों के सांसदों की संख्या | साभार : लोक सभा
लोक सभा में राजनीतिक दलों के सांसदों की संख्या | साभार : लोक सभा
आम चुनाव को लेकर विपक्षी एकता का मजबूत संकेत
2019 के आम चुनाव करी आ गए है और इसे देखते हुए मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों के बीच एकता को लेकर कोशिशें तेज हो गई हैं. बीते हफ्ते कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी इसे लेकर एक बैठक बुलाई थी. इस महीने के आखिर में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) प्रमुख शरद पवार की भी विपक्षी नेताओं के साथ एक बैठक प्रस्तावित है. उधर, उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के सहयोग से गोरखपुर और फूलपुर में समाजवादी पार्टी (सपा) की जीत ने गैर-भाजपाई दलों के साथ आने की संभावना को भी जन्म दे दिया है. इसके अलावा माना जा रहा है कि सीपीएम भी कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर सहमत हो सकती है.
देश में बदलते राजनीतिक रुख को देखते हुए अविश्वास प्रस्ताव विपक्षी दलों की एकता के लिहाज से एक अहम मौका माना जा रहा है. माना जा रहा है कि इस प्रस्ताव पर मत विभाजन के दौरान विपक्षी दलों का भाजपा को लेकर रुख साफ हो सकता है. अगर बड़ी संख्या में गैर-एनडीए सांसद इस प्रस्ताव के साथ आते हैं तो इससे मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष की मजबूती का संदेश जा सकता है.
सरकार पर सदन में जोरदार हमले का मौका
संसदीय प्रावधानों के मुताबिक अविश्वास प्रस्ताव में सरकार पर किसी तरह का आरोप नहीं लगाया जा सकता. हालांकि, इस प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान विपक्ष सरकार को कई मुद्दों पर घेर सकता है. संसदीय कामकाज की ताजा स्थिति खासकर बजट सत्र के दूसरे हिस्सों को देखें तो यह पूरी तरह हंगामे की भेंट चढ़ चुका है. यहां तक कि वित्त विधेयक सहित अन्य प्रस्तावित कानूनों को बिना चर्चा के ही पारित कर दिया गया. ऐसी स्थिति में यह अविश्वास प्रस्ताव विपक्ष के पास मोदी सरकार को पीएनबी घोटाले सहित अन्य मुद्दों पर घेरने का मौका होगा. व इसके जरिए पूरे देश को मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ संदेश देने की कोशिश कर सकता है. विपक्ष के आरोपों को लेकर जवाब देने से बचती दिख रही सरकार का इससे बचना आसान नहीं होगा. अपने एक बयान में लोक सभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है, ‘जब अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है तो आपके (विपक्ष) के पास सरकार की विफलताओं के बारे में बात करने का मौका होता है. हम बहुत सारे लोगों के साथ जुड़ते हैं.’
दक्षिण में भाजपा विरोधी पार्टियों का साथ आना
2014 के बाद भाजपा पूर्वोत्तर के राज्यों में अपनी पकड़ मजबूत करती हुई दिख रही है लेकिन, दक्षिण भारत में उसकी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. इन राज्यों में भाजपा क्षेत्रीय क्षत्रपों के सहारे ही दिखती है. ऐसे में यदि दक्षिण भारत की प्रमुख पार्टियां एनडीए से दूर छिटककर कांग्रेस या संभावित तीसरे मोर्चे के साथ जाती हैं तो 2019 में बहुमत न हासिल करने के बाद भाजपा के लिए फिर से सरकार बनाना मुश्किल हो सकता है. दूसरी ओर, हिंदी पट्टी के बड़े राज्यों- उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश में भाजपा के पास हासिल करने को अधिक कुछ नहीं है लेकिन, खोने को बहुत सारी सीटें हैं. जानकारों के मुताबिक भाजपा इन राज्यों में सीटें गंवाने की आंशका को देखते हुए ही दक्षिण में अधिक सक्रिय है. लेकिन, अविश्वास प्रस्ताव को लेकर मत विभाजन के दौरान यहां के क्षेत्रीय दलों का रुख उसके भविष्य का भी एक संकेत हो सकता है.
एनडीए में टूट के आसार
जानकारों की मानें तो अविश्वास प्रस्ताव के दौरान अगर विपक्ष मजबूत और सरकार असहज दिखती है तो एनडीए में शामिल कई दल आने वाले दिनों में इससे अलग जा सकते हैं. भाजपा की सहयोगी शिवसेना ने पहले ही 2019 के चुनाव में अकेले जाने का ऐलान कर दिया है. इसका अलावा जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) एनडीए से अलग हो चुकी है. बताया जाता है कि पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और शिरोमणि अकाली दर (एसएडी) पहले ही भाजपा नाराज चल रहे हैं. इसके अलावा बीते शनिवार को सरकार में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) प्रमुख रामविलास पासवान ने भी 2019 को लेकर संकेत देने की कोशिश की है. उन्होंने उत्तर प्रदेश और बिहार उपचुनाव में एनडीए को मिली हार को नुकसान बताया है. साथ ही, केंद्रीय मंत्री ने सरकार की नीतियों को लेकर भी सवाल उठाया है. राम विलास पासवान ने कहा, ‘हमें सभी वर्गों को साथ लेकर चलना होगा. कांग्रेस ने सभी वर्गों को साथ लेकर ही राज किया था. अगर हमारा नारा सबका साथ, सबका विकास का है तो हमें सबको साथ लेकर भी चलना होगा.’ लोजपा प्रमुख के इस बयान को भाजपा के सहयोगी दलों में असंतोष उभरने का संकेत माना जा रहा है.

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