डॉ. शशि तिवारी
toc news internet channal
भ्रष्टाचार का संबंध अमीरी या गरीबी से न हो मनःस्थिति और कुछ हद तक परिस्थिति जन्य होता है। मानव की इच्छा का घोड़ा इच्छा की अंतहीन दौड़ में अंतिम सांस तक दौड़ाता ही रहता है। इच्छा के इस खेल में अच्छे-बुरे कार्यों के चुनाव की समझ भी जाती रहती है। इस अवस्था में मानव को अपने कुकर्म भी यश-कीर्ति की भाँति लगने लगते हैं। संस्कारों की बात करने वाला कब संस्कारहीन हो जाता है, भेद जाता रहता है। असत को ही सत मान भयंकर प्रतिकर्म में जुटा रहता है। भ्रष्टाचार की सत्ता को क्या रिया, क्या नीति नियन्ता पूर्णतः अंगीकार कर चुके है। इसके बिना अस्तित्व की कल्पना करना ही बेमानी है। आज सभी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार एवं एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में इतनी मशगूल है कि जनता के मुद्दे तो कांसो दूर पीछे छूट जाते हैं।
कहते है छोटी-छोटी नदियां ही मिलकर बड़ी नदी को जीवन देती है। यदि इनका योगदान न हो तो बड़ी नदी के अस्तित्व पर ही खतरा खडा हो जायेगा। भ्रष्टाचार के मामले में भी प्रकृति का हो ये सिद्धांत लागू होता है जिसमें चपरासी से लेकर अधिकारी तक, बड़ी-बडी भ्रष्टाचार की गंगा की तथा कथित नेताओं एवं मंत्रियों के पोषक बन फल फूल रही है। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें इसका इल्म नहीं है लेकिन वो भी क्या करें? वो भी उतने ही असाह है। वो भी जानते है उन्हें भी भ्रष्टाचार के समुद्र में जा विलीन जो होना हैं।
भ्रष्टाचार में जो समाजवाद, समरसतावाद, जाति-धर्म निरपेक्षता है वह कही और लाख प्रयासों के बाद भी दूर-दूर दिखाई नहीं देती। मसलन क्या अमीर क्या गरीब, क्या शरीफ, क्या चोर, क्या जाति क्या धर्म, क्या ऊंच, क्या नीच, क्या नेता, क्या अफसर, क्या अफसर, क्या नौकर, चहुं ओर सभी भ्रष्टाचार के रंग में एक ही है। मंत्रियों पर तो आए दिन भ्रष्टाचार के आरोप लगते ही रहते है। नेता बिरादरी ही आरोप लगाने के लिए पर्याप्त हैं। लेकिन नौकरशाहों पर विगत् एक दशक से भ्रष्टाचार से कमाई काली कमाई बडे पैमाने पर उजागर हुई है फिर चाहे वह आइ.ए. एस. जोशी दम्पत्ति हो, जेल अधिकारी पुरूषोत्तम सोमकुंवर हो, उमेश गांधी हो स्वास्थ्य विभाग के ए.एम. मित्तल हो महकमे के एस.के.पलाश हो, अ.ज.जज. विकास के देवरिस्ट परमार हो, चाहे परिवहन विभाग का अदना सा कर्मचारी रमन घोलपुए हो ऐसी लोगों की बहुत लम्बी सूची हैं।
ये तो भारत की जनता ही है जो नेताओं के कुचक्र में फंस भारतीय युवा कभी जाति, कभी धर्म, कभी क्षेत्र, कभी झगड़ा-पिछडा, आरक्षण की राजनीति में फंस वर्षों से दुही जा रही है ओर मतदान के पर्व पर भावनाओं की बाढ़ में वह सब कुछ अपना लुटाती आई है और अपने नसीब में आए महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी में जीने को ही अपना-अपना नसीब मान कुड़-कुड़ कर, कोस-कोस कर जीवन जीने को ही नियति मान लिया है।
यहां कुछ मूलभूत यक्ष प्रश्न उठ खड़े होते हैं मसलन जब राजा को मालूम है कि कौन चोर है फिर सजा में देरी क्यों? जब नियम कठोर है तो राजनीतिक ढिलाई क्यों? जब नियत स्वच्छ है तो स्वयं क्यों भ्रष्टाचार की कीचड़ से सने? क्यों ढीढ़ बने बैठे हैं? किसने रोका है सक्षम लोगों को, दूध का दूध पानी का पानी करने के लिए, रिया भी चाहती है, राजा भी चाहता है दोषियों को कठोर सजा फिर कौन दें?
इनके बीच में अकस्मात शक्ति कौन है? कही ये भ्रष्टाचार के समुद्र का लोभ, लालच, निजी महत्वाकांक्षा से निजि अस्तित्व का निजि स्वार्थ तो नहीं? ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार का समुद्र जनता, बुद्धिजीवियों, एक कानून विदों की विनय-अनय से नेक नियत को रास्ता देने के लिए तैयार नहीं है। क्या इसके कोई लिए फिर कार्य राम को अवतार लेना पड़ेगा। क्या फिर राम को भ्रष्टाचार के समुद्र पर नेक नियत को रास्ता देने के लिए धनुष उठाना पड़ेगा।
शशिफीचर डॉट ओरजी लेखिका ‘‘सूचना मंत्र’’ पत्रिका की संपादक है
मो. 09425677352
No comments:
Post a Comment