एस.एम.मासूम
इस समाज मैं किन किन बातों से अशांति , असंतुलन या दो इंसानों के बीच दूरियां पैदा होती हैं इसका ज़िक्र किये बग़ैर शायद अमन और शांति की कोशिश बेकार होगी और यह केवल एक नारेबाजी बन के रह जाएगा।एक बात कहता चलूँ भाई जब सामाजिक बुराईयों पे जब बात होगी तो बात हमारे अंदर की ही बुराईयों की होगी, क्यों कि यह बुराइयां हम मैं ही मोजूद हैं और इस समाज मैं असंतुलन हम इन्ही बुराईयों के कारण फैला रहे हैं. यह बुराई मुझमें भी हो सकती है और आप मैं भी हो सकती है इसलिए जब इन बुराईयों का ज़िक्र हो तो इसको खुद पे ना लें और यदि वोह बुराई आप मैं हैं और इस कारण से आप ने मेरे लेख़ को अपने पे ले लिया है तो "अमन का पैग़ाम" को निशाना बनाने कि जगह खुद कि बुराईयों को दूर करें.
हम जिस समाज में रहते हैं उसमें इंसानों के अक्सर दो चेहरे दिखने में आते हैं. अमीर नाजाएज़ तरीके से दूसरों का हक मार के धन कमाता है और मंदिर मस्जिदों मैं दान दे के दानवीर भी बन जाता है. अधिकतर लोग पैसे वालों को खुश रखने के लिए केवल ग़ुलामी ही नहीं करते बल्कि उनकी झूटी तारीफें भी किया करते हैं, यह कोई नहीं सोंचता की ग़लत राह से काला धन कमाने वाला क्या सच मैं इज्ज़त के काबिल है ? इस्लाम का कानून है ज़ुल्म करने वाला और ज़ुल्म होते देख के चुप रहने वाला दोनों बराबर के दोषी हैं. इसी प्रकार काला धन कमाने वाला और काले धन कमाने वाले की इज्ज़त और तारीफें करने वाला दोनों ही बराबर के दोषी हैं.
वास्तव मैं हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जो यह जानता तो है कि सच क्या है, झूट क्या है अच्छा क्या है और बुरा क्या है लेकिन सत्य कि राह पे चलना पसंद नहीं करता क्यों कि इसमें हमें नुकसान अधिक और फाएदा कम नज़र आता है.
रिश्वत लेने वाला तो गुनाहगार है ही और इसके खिलाफ आवाज़ हमेशा उठती रही है लेकिन रिश्वत देता कौन है? रिश्वत देके आसानी से काम करवा लेने वाले का भी फैदा और रिश्वत लेने वाले का भी फैदा. ज़रा ध्यान से सोंचें नुकसान किसका हुआ?
आज का इंसान आज़ाद प्रवृत्ति का होता जा रहा है. वोह किसी भी कानून से बंध के नहीं रहना चाहता. अगर देश , धर्म , और समाज के कानून, इसकी अपनी सहूलियतों और पसंद के मुताबिक ना हुए तो यह दो चेहरे वाला बन जाता है. सामने से सामाजिक धार्मिक और अंदर से ठीक इसके उलट.
हर एक धर्म के मानने वालों के पास , उनके धर्म के कानून की, उसूलों की, कोई ना कोई किताब हुआ करती है, और अवतारों , इमाम, खलीफा, नबी पैग़म्बर के किरदार की मिसाल हुआ करती हैं जिनपे उसे चलना होता है और इसके साथ साथ परमात्मा के फैसले पे यकीन भी करना होता है . फिर भी खुद को धार्मिक कहने वाला इंसान उनपे ना चल के , अपनी सहूलियतों के कानून पे चलता है.
हम तो बस नाम से शेख साहब या पंडित बने हैं. यदि ऐसा ना होता तो क्या धर्म जो इन्सान को इंसानियत सीखने के लिए आया था आज नफरत फैलाने का साधन बनता?
दो चेहरे वाले इंसान कि मक्कारी का हथियार झूट, फरेब, चाटुकारी और ना इंसाफी हुए करती है और इनकी ताक़त बेवकूफ या भोले भले लोग हुए करते हैं. कई बार यह भी देखा गया है कि शिकार वो इंसान भी हो जाया करते हैं जिनको खुद कि झूटी तारीफें सुनने का शौक हुआ करता है. अध्कि भावुक इंसान भी इसके आसान शिकार हुआ करते हैं. क्योंकि जज्बातों से खेल के अपना बना लेने कि कला मैं मक्कार महारथ रखता है. यह मक्कार अधिकतर एक बड़ा समूह चाहने वालों का बना लेते हैं और काम निकल जाने पे मुह फेर के निकल जाते हैं. सभी जानते हैं कि पचासों घोटाले और खराब रिकार्ड के बावजूद कैसे नेता हाथ जोड़ के बड़े बड़े वादे के साथ आप को मोह लेता है और हर बार इलेक्शन जीत जाता है.
ज़रा सोंच के देखें क्या हम सच मैं इतने बेवकूफ हैं जो नेता के वादों मैं बार बार उसके धोके और भ्रष्टाचार के बावजूद आ जाते हैं? मुझे तो ऐसा नहीं लगता. तब क्या हमने यह मानलिया है की नेता को तो भ्रष्टाचार करना ही है , इसको रोकने का कोई उपाय नहीं है? यदि यह भी नहीं है तो क्या कारण है की बार बार ऐसे नेता को चुन के हम फिर से मंत्री बनने और घोटाले करने को भेज देते हैं ?
मक्कार व्यक्ति भीतर से बुजदिल, आत्मघाती, विश्वासघाती, दूसरों को क्षति पहुंचानेवाला और स्वयं भीतर से कमजोर होता है इसलिए दो चेहरे रखता है. अति-महत्वाकांक्षी मक्कार स्वयं के अतिरिक्त किसी अन्य को महत्व नहीं देता,वह अन्यों को तुच्छ और महत्वहीन समझता है यह समाज के चाटुकार लोग है.
यदि आप समाज मैं अमन और शांति चाहते हैं तो कभी भी किसी इंसान की इज्ज़त उसके पैसे के कारण ना करें बल्कि उसके अच्छी किरदार के कारण करें. मक्कार और चाटुकार की बातों मैं ना आयें और ना ही उसका साथ दें क्यों की इनका शिकार अक्सर इमानदार और कमज़ोर हुआ करते हैं.