नीरेंद्र नागर
कल मशहूर वकील और अन्ना टीम के सदस्य प्रशांत भूषण को तीन युवकों ने इसलिए पीटा कि उन्होंने कहीं कश्मीर में जनमतसंग्रह कराने के पक्ष में टिप्पणी की थी। इन युवकों को लग रहा था कि प्रशांत भूषण जनमतसंग्रह की वकालत करके कश्मीर को तोड़ने का काम कर रहे हैं।मुझे इन युवकों की बात पर हंसी आ गई। हंसी इसलिए आ गई कि वे अपने वक्तव्य से यही जाहिर कर रहे हैं कि जनमतसंग्रह कराने पर कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा। यानी वे मान रहे हैं कि कश्मीर पर भारत ने जबरन कब्जा कर रखा है और वहां के लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते वरना जनमतसंग्रह से डरने की क्या बात है! पाकिस्तान भी तो यही कह रहा है। यानी ये युवक पाकिस्तान की ही बोली बोल रहे हैं।
इसे एक और ढंग से देखें। पति-पत्नी और पड़ोसी की कहानी के रूप में। मान लीजिए कि आपके इलाके में एक दंपती आया और कमरा किराए पर लेकर रहने लगा। कुछ दिनों के बाद एक अजनबी आया और उसने मुहल्ले वालों से कहा कि यह जो आदमी है, उसने एक युवती को उसकी इच्छा के विरुद्ध घर में बंधक बनाकर रखा है और उससे जबरदस्ती शादी की है। वह यह मांग कर रहा है कि उस युवती से पूछा जाए कि क्या उसने मन से शादी की है या इस आदमी ने डरा-धमका कर उसे अपनी पत्नी बनाया है। उसका दावा है कि वह युवती उससे प्यार करती है।
अब आप बताइए, आप क्या करते? मुहल्ले वाले क्या करते? पुलिस क्या करती? और न्यायालय क्या करता? मेरे हिसाब से सभी का यही कहना होता कि युवती से पूछा जाए कि क्या वह उस आदमी के साथ मन से रह रही है या डर से? और यह भी कि क्या इस अजनबी का दावा सही है कि वह उससे प्यार करती है। युवती के बयान से दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता।
लेकिन वह आदमी क्या कह रहा है? वह युवती को घर से बाहर ही नहीं आने देता, न ही किसी से मिलने देता है। वह बस शादी का सर्टिफिकेट और सात फेरों के फोटो दिखाता है और कहता है कि यही काफी है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि यहां वह आदमी भारत है, युवती कश्मीर और प्रेमी पाकिस्तान। हम उस आदमी की तरह कश्मीर का मुंह बंद रखे हुए हैं कि उसकी इच्छा तो पूछी ही नहीं जाएगी और राजा हरि सिंह के साथ साइन की गई संधि और जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पारित अधिग्रहण की मंजूरी ही काफी है।
स्पष्ट है, जिस तरह मुहल्लेवालों को उस आदमी की बात में दम नहीं नज़र आएगा और उनका संदेह विश्वास में बदल जाएगा कि इसने युवती को जबरन बंधक बना रखा है, वैसे ही दुनिया वाले भी भारत की बात पर विश्वास नहीं करते और वे यही मानते हैं कि कश्मीरियों को जबरन भारत के साथ बांध कर रखा गया है।
चलिए, यह तो मेरा मत है। आपका मत कुछ और हो सकता है। और लोकतंत्र का मतलब ही यही होता है कि हर विवाद पर विचार-विमर्श हो और फिर सर्वसम्मत या बहुमत की राय के हिसाब से फैसला लिया जाए। आज किसी मत को बहुमत का समर्थन हासिल न भी तो तो ऐसा नहीं कि भविष्य में भी नहीं होगा। भारत को सालों तक अंग्रेजी शासन के अधीन रहना पड़ा, कितने आंदोलन हुए, कितने शहीद हुए... लेकिन अंत में उसी अंग्रेजी शासन की एक सरकार ने भारत को स्वाधीन किया। इसी तरह जब पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई तो सवर्णों ने उसका विरोध किया था। लेकिन आज समाज ने उसको स्वीकार कर लिया है। कोई भी देश, कोई भी समाज ऐसे ही आगे बढ़ता है।
कहने का मतलब यह कि कोई विचार किसी खास समय में कितना भी चौंकानेवाला लगे, इसका मतलब यह नहीं कि जिनको वह विचार सही नहीं लग रहा, वे उस व्यक्ति पर लात-घूंसे या गोलियां चलाने लगें। पाकिस्तान में कुछ समझदार लोगों ने कहा कि ईशनिंदा कानून में संशोधन होना चाहिए ताकि निर्दोष लोग उसके शिकार न बनें। लेकिन कट्टरपंथियों द्वारा उसका जवाब यह दिया गया कि उनकी हत्या कर दी गई।
उस हत्या और इस लात-घूंसे के पीछे की भावना में कोई अंतर नहीं है। दोनों असहिष्णु हैं, दोनों को विपरीत विचार मंजूर नहीं और दोनों उन विपरीत विचारों को खत्म करने के लिए हिंसा का सहारा लेने के हामी हैं। नाथुराम गोडसे के हाथ में पिस्तोल थी तो उसने गांधी जी पर गोलियां बरसा दीं, इन तीन युवकों के पास हथियार नहीं था तो उन्होंने लात-घूंसों की वर्षा की।
लेकिन सवाल यह है कि क्या हम विपरीत विचारों से मुकाबला करने के लिए इन्हीं तरीकों का सहारा लेंगे। भई, कई लोगों को मोदी की विचारधारा पसंद नहीं है। तो क्या उसका तरीका यही हो कि एक दिन कोई जाकर मोदी को गालियां देते हुए दे तड़ातड़-दे तड़ातड़ लगा दे।
जो प्रशांत भूषण पर हमले का विडियो देखकर हर्षित हो रहे हैं, उनको नरेंद्र मोदी पर पड़ रहे लात-घूंसों की कल्पना भी करनी चाहिए और उसे भी सही ठहराना चाहिए। क्या वे उसको सही ठहराएंगे?
और यह भी सोचना चाहिए कि आगे क्या-क्या सीन नज़र आएंगे? कोई कांग्रेसी अन्ना हजारे पर लात-घूंसों की बरसात कर रहा है। कोई भाजपाई दिग्विजय सिंह पर मुक्के बरसा रहा है। कोई लालूभक्त आडवाणी की चप्पलों से धुनाई कर रहा है। कोई बसपाई मुलायम सिंह के गालों पर थप्पड़ जमा रहा है। क्या इसी ठोकतंत्र की ओर हम जाना चाहते हैं?