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यही है बाबा गरमा गरम
बुंदेलखंड का अन्नदाता घटिया बीज के अफलन के सरकारी छल से उभर भी नही पाया था कि उसे प्रकृति के पाला प्रकोप से जूझना पडा। आशावादी भी लगातार निराशा के साथ टूट जाता है। बुंदेलखंड के किसान की भी कुछ ऐसी ही व्यथा है। कृषि को लाभ का धंधा बनाने का आश्वासन देकर छल होता रहा। खरीफ की फसल में वह घटिया बीज बांट दिया गया जिसमें आशा के फसल की जगह तबाही लिखी हुई थी। हुआ भी कुछ ऐसा ही। आज इस तबाही के झंझवात से जूझ कर वह इस कदर टूट चुका है कि आत्महत्या करने पर मजबूर हो चुका है। सरकार के लिये शर्मनाक है कि उसकी तमाम उन्मुखी योजनाओ के दावे के बीच वह अन्नदाता आत्महत्या कर रहा है जिसके प्रदेश का मुखिया स्वयं को किसान का बेटा कहता हो। प्रदेश में अभी तक दस किसान मौत को गले लगा चुके है जिसमें बुंदेलखंड के आठ किसान शामिल है। कालाहांडी, विदर्भ के बाद बुंदेलखंड देश की उस फेहरिस्त में शामिल हो चुका है जहां किसान के बस में दुख सहने की क्षमता समाप्त हो चुकी है। सरकार के लिये शर्मनाक होकर चितां का विषय होगा कि सरकार के कृषि मंत्री के ही जिले से किसानो के आत्महत्या की शुरूआत होती है। वे किसानो के दर्द में शामिल होने के बजाय इस तरह की टिप्पणी करते है जो किसानो के लिये सांत्वना की जगह जहर का काम करती है। सूखाग्रस्त बुंदेलखंड का किसान क्यो आत्महत्या करने पर मजबूर है इसके पीछे भी वह विभाग दोषी जिन्होने खरीफ फसल में घटिया बीज बांटकर उन साहूकारो को अप्रत्यक्ष रूप में लाभ देने की कोशिश की जो किसानो के लिये सरकार की तरह ही शोषण का काम करते आये है। किसानो की हितैषी सरकार का ही असल चेहरा सामने आया कि दगा देने वाला बीज बांटने वालो के सामने सरकार नतमस्तक सी दिखाई दी। लच्छेदार भाषणो में किसानो का दर्द सिमट कर रह गया। करोड़ो के बंदरबाट के बाद सरकार को भी अफलन के मुआवजे के एवज में करोड़ो रूपये की चपत लगी। अगर सरकार किसानो की सच्ची हितैषी होती तो दोषियो के खिलाफ कार्यवाही होती ताकि भविष्य में अन्नदाता के साथ छल करने वाले भविष्य में चेतते। खरीफ फसल में सरकार की दुमुही नीतियो से ठगा किसान पहले ही टूट चुका था। रबी फसल में जब प्रकृति ने पाले का कहर बरपाया तो कर्जीले किसान के सामने मौंत का गले लगाने के सिवाय ओर कोई रास्ता नजर नही आया। राष्टीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आंकडो के अनुसार वर्ष 2002 से 2010 तक के बीच 12563 किसान आत्महत्या कर चुके है। सरकारी राहत की बात की जाये तो अफलन के दायरे में मात्र उड़द और तिल फसली वाले उन किसानों को मुआवजा बांटा जा रहा है जिन्होने सरकार की एंजेसियो अर्थात सहकारी समीतियो से बीज क्रय किया था। जब कि देखा जाये तो सरकार द्घारा वितरीत मूंग, सोयाबीन, अरहर का बीज भी घटिया होने के कारण अफलन का कारण बना था। किसानो के साथ दोहरा मापदंड रबी की फसल के नुकसान के सर्वे और राहत राशि स्वीकृति में भी देखा जा रहा है। बुंदेलखंड की बात की जाये तो सागर जिले में 5500 लाख और दमोह जिले में 902 लाख रूपये की तुषार से पीडि़त किसानो को राहत देने के लिये वहां के जिला कलेक्टरों द्घारा मांग की गई है। सरकार ने सागर जिले के लिये 500 और दमोह के लिये मात्र 200 लाख रूपये स्वीकृत किये है। मजेदार यह है कि किसानो का सच्चा हितैषी बताने के लिये सरकार यह दावा कर रही है कि किसानो के लिये खजाने का मुंह खुला हुआ है। दूसरी तरफ राहत के नाम पर कटौति की जा रही है। इस तरह भूखमरी की ओर धकलने का कुत्सित प्रयास किसानो के गले नही उतर रहा है। इस मामले में सरकार के सिर पर बैठी नौकरशाही का भी असंवेदनशील बर्ताव नजर आता है। बुंदेलखंड के छतरपुर, पन्ना और टीकमगढ़ के कलेक्टर अभी तक राहत राशि के प्रस्ताव तक बनाकर सरकार के पास नही भेज पाये है। जब कि 15 जनवरी तक रिपोर्ट भेजने की अंतिम तिथी तय की गई थी। यह नजारा सरकार के उस प्रशासन का है जिसके दम पर जन्मुखी योजनायें संचालित कर स्वर्णिम म.प्र. की कल्पनाओ में गोते लगाने की कवायद की जा रही है।लब्बोलुआब यह है कि सरकार की कथनी और करनी का अंतर स्पष्ट नजर आने लगा है। सरकार को चािहये की खरीफ की फसल में घटिया बीज बांटकर किसानो को फटेहाल करने वालो पर अपराधिक प्रकरण दर्ज किये जाये। तुषार से तबाही में किसानों का सरकारी साथ तभी मााना जायेगा जब सर्वे कों भ्रष्टाचार से बचाया जाकर पीडित किसानो तक राहत राशि त्वरित पंहुच सके। वरन् आने वाले दिनो में किसानो के आत्महत्या के मामलो से सरकार घिरकर भाजपा के मिशन 2013 को चकनाचूर कर सकती है।
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