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आलोक सिंघई
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भारतीय जनता पार्टी और संघ से जुड़े कुछ संकीर्ण सोच
वाले बुद्धिजीवियों ने सांची में स्थापित होने जा रहे बौद्ध विश्वविद्यालय
का सारा मजा किरकिरा कर दिया है। दुनिया भर में फैले बौद्ध धर्मावलंबियों
को जोड़ने के लिए सांची में बनाए जा रहे बौद्ध विश्वविद्यालय की जो खुशबू
बीस से अधिक देशों में सहज ही फैल जानी थी वह अब शंकाओं के कुहासे में घिर
गई है।
इसका सबसे बड़ा कारण विश्वविद्यालय का नामकरण है। ये विश्वविद्यालय
खासतौर पर बौद्ध धर्म के अध्ययन अध्यापन और उसकी पहचान स्थापित करने के लिए
बनाया जा रहा है।इस लिहाज से इसका नाम केवल सांची बौद्ध विश्वविद्यालय रखा
जाना प्रस्तावित था। एन वक्त पर ये नाम बदलकर सांची बौद्ध एवं भारतीय
ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय कर दिया गया। राज्य सरकार के इस फैसले से बौद्ध
अनुयायियों में बैचेनी है। इसके बावजूद वे फिलहाल खामोश हैं उनका सोचना है
कि बरसों बाद बौद्ध धर्म को पहचान दिलाने के लिए वे कम से कम एक कदम तो
आगे बढ़े हैं।
अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध विश्वविद्यालय के गठन का
प्रस्ताव वैसे तो लगभग नौ साल पहले तैयार किया गया था। तब भारत के बौद्धों
ने विश्विविद्यालय की रूपरेखा बनाकर सरकार को दी थी। लेकिन जब इसके गठन की
बारी आई तो सरकार ने भारतीय बौद्ध विद्वानों के बजाए श्रीलंका के बौद्ध
विद्वानों को ज्यादा प्राथमिकता दी। इससे नाराज भारतीय बौद्ध विवि के
संविधान की छानबीन कर रहे हैं कि कहीं इसके मूल स्वरूप में कोई छेड़छाड़ तो
नहीं की गई है। उनका कहना है कि यदि वे अपने उद्देश्यों में कोई छेड़छाड़
पाएंगे तो बौद्धों का सम्मेलन बुलाकर सरकार को संशोधन करने के लिए दबाव
बनाएंगे। बौद्ध विवि के सपने को साकार होने में इतना लंबा समय इसलिए लगा
क्योंकि राज्य सरकार इसकी स्थापना के लिए बजट देने को तैयार नहीं थी।आज
बौद्धों की मौजूदगी को सरकारें इसलिए स्वीकार करने लगी हैं क्योंकि बरसों
से नव बौद्धों की तादाद बढ़ती रही है। दलितों का बौद्ध धर्म स्वीकार कर
लेना इस दिशा में सबसे कारगर पड़ाव साबित हुआ है। लेकिन इससे भी बड़ी
भूमिका तो उत्तरी सीमा पर युद्ध की दस्तक दे रही चीन की सेनाओं ने निभाई
है। कम्युनिस्ट चीन के जनमानस पर बौद्ध धर्म की छाप बहुत गहरी है। तिब्बत
इस धर्म के प्रसार का प्रमुख केन्द्र रहा है। पीढ़ियों से तिब्बती लामाओं
ने चीन के जनमानस का विश्वास अर्जित किया है। चीन की सेना में भी बड़ा तबका
बौद्ध धर्म को अपना ही धर्म मानता है। भले ही वहां हान राजवंश का सिक्का
चलता रहा हो लेकिन हिंदुस्तानी बौद्ध धर्म की हीनयान और महायान दोनों
परंपराओं को चीन के लोग अच्छी तरह समझते हैं। वे बौद्ध भिक्षुओं के प्रति
आदर रखते हैं और तिब्बत में समय समय पर चलने वाले बौद्धों के दमन के प्रति
करुणा का भाव भी रखते हैं।
वैसे तो हिंदुस्तान बौद्ध धर्म की जन्म भूमि है। भगवान बुद्ध ने वर्तमान बिहार
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झारखंड की धरती से ही बौद्ध धर्म की आधारशिला रखी थी। धीरे धीरे ये धर्म श्रीलंका
,
बर्मा
,
तिब्बत होता हुआ चीन तक जा पहुंचा। समृद्ध जापान
,
यूएसए
,
थाईलैंड
,
कंबोडिया
,
यूके
,
कोरिया
,
भूटान
,
नीदरलैंड
,
ताईवान
,
नेपाल जैसे देशों में तो बौद्ध धर्म राजनीतिक
सत्ता का प्रमुख आधार है।बरसों से इस धर्म ने आधुनिक मानवता को समृद्ध
बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बौद्ध धर्म जिन समाजों में
फैला वे न केवल आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बने बल्कि उन्होंने मानवता के
उत्थान के कई नए मापदंड भी स्थापित किए हैं। इन सभी देशों के करोड़ों बौद्ध
अनुयायियों के बीच कसक है कि बौद्ध धर्म अपने उद्भव वाले देश हिंदुस्तान
में क्यों नहीं फैल सका। यहां उसे वह महत्व क्यों नहीं हासिल हो सका जो
दूसरे तमाम देशों में वह हासिल कर चुका है। इसके कई सामाजिक और आर्थिक कारण
हैं।
भारत में बौद्ध धर्म के पिछड़ने का सबसे बड़ा आधार तो हिंदु धर्म ही है। हिंदु धर्म ने न केवल बौद्ध बल्कि
,
ईसाईयत और इस्लाम की विकास यात्रा पर भी लगाम लगाई
है। ये धर्म यहां आकर अपना मूल रूप ही खो चुके हैं और उनके अनुयायी भी
हिंदुत्व के ही रंग में रंग गए हैं। वास्तव में हिंदुत्व कोई कट्टरता नहीं
है बल्कि एक जीवन शैली है। इसके बीच कई तरह के रंग हैं। लगभग तेईस करोड़
देवी देवताओं की विविधता को समेटे चलने वाला ये धर्म किसी भी कोण से
कट्टरता नहीं पनपने देता है। हिंदुत्व को अपना प्राण मानने वाले जिन कट्टर
पंथियों को सांप्रदायिक बताया जाता है दरअसल वे हिंदु धर्म की मूल भावना से
दूर चले गए हैं। उन पर कट्टर पंथी इस्लाम और ईसाईयत ने असर डाला है। इन
दोनों धर्मों के चीखते प्रचार और बलात धर्म परिवर्तन के दबाव ने सहज
,
सरल हिंदुओं के बीच से भी कुछ लोगों को कट्टर पंथी
बना दिया है। इसी सोच ने बौद्ध विश्वविद्यालय की मूल भावना का भी कबाड़ा
निकाल दिया है। भारतीय मुसलमानों और भारतीय ईसाईयों के समान ही भारतीय
बौद्धों पर अविश्वास करके हिंदुत्व के कुछ पैरवीकारों ने संघ की भावना का
लगभग तिरस्कार कर दिया है। यही वर्चस्व वादी सोच वास्तव में फूलों की सेज
साबित हो सकने वाले इस कदम की राह में शूल बिछा रही है।
दलित नेता प्रकाश अंबेडकर के आगमन से नामकरण का ये
विवाद भले ही शांत नजर आ रहा हो लेकिन अंदर ही अंदर बौद्ध मतावलंबियों के
बीच नामकरण विवाद असंतोष का कोना बना हुआ है। दलित नेता उदित राज ने अपनी
किताब में लिखा है कि बौद्ध धर्म के विकास में हिंदुस्तान के हिंदू शासकों
ने खलनायक की भूमिका निभाई है। बौद्ध विश्वविद्यालय धराशायी किए गए और
बौद्ध धर्म के अनुयायियों को इतना प्रताड़ित किया गया कि वे अपना देश
छोड़कर अन्य देशों की ओर कूच कर गए। हालांकि इस संबंध में न तो कोई प्रमाण
मौजूद हैं और न ही इतिहास में इस तरह का कोई उल्लेख है। फिर क्यों बौद्ध
धर्म हिंदुस्तान में न फैल सका और अन्य राष्ट्रों में ये प्रमुख राजधर्म बन
गया। दरअसल इसके पीछे हिंदुस्तान की गुलामी और आजादी की छटपटाहट सबसे
प्रमुख कारण रही है। इस्लामिक शासकों के आक्रमण और आजादी के संग्राम के बीच
जब हिंदू धर्म ही अपना मूल स्वरूप बरकरार न रख सका तो भला बौद्ध धर्म कैसे
अपनी पहचान बनाए रख सकता था। ये बात मानी जा सकती है कि बौद्ध धर्म के
विकास में यहां के शासकों ने कोई रुचि नहीं ली। लेकिन इसके पीछे किसी
प्रकार की नफरत कोई कारण नहीं थी। विदेशी आक्रमण कारियों से लड़ाई के दौरान
जिन धर्मों के अनुयायियों ने प्रमुख भूमिका निभाई वे अपने धर्म को भी
बचाते रहे और उन धर्मों का विकास होता रहा। जबकि बौद्ध धर्मावलंबियों ने
अपेक्षाकृत शांति का मार्ग अपनाया और बगैर किसी झमेले में पड़े वे अन्य
देशों की ओर रुख करते रहे।
आज दक्षिण एशिया के देशों के बीच चीन के बढ़ते कदम
चिंता का कारण बन गए हैं। तिब्बत को तो लगभग कुचलकर चीन ने अपने बीच मिला
लिया है। वहां की शासन व्यवस्था पर चीन का अधिकार है। इसी तरह उसने नेपाल
,
भूटान
,
बर्मा
,
श्रीलंका और आसपास के अन्य देशों में अपने डैने
फैला लिए हैं। इन देशों की शासन व्यवस्था को चीन लगभग लील चुका है केवल
हिंदुस्तान में उसे अपने पैर जमाने हैं। विदेशी संधियों के जाल में उलझ
चुके हिंदुस्तान को आज चीन के शासक लगभग मलाई कोफ्ता समझ रहे हैं। इस बड़े
बाजार में चीनी माल खपाने का सबसे लुभावना सपना चीनियों के मन में हूक जगा
रहा है। ये बात अलग है कि हिंदुस्तान कोई बंगाली मिठाई नहीं जिसे जो चाहे
गड़प कर ले। इसके बावजूद हिंदुस्तान आज भी चीन से कई मोर्चों पर मीलों पीछे
खड़ा है।
भारत के शासकों की असफलताओं और भ्रमित सोच के चलते
आज भी देश की तीन चौथाई आबादी लगभग बेरोजगार है। आर्थिक आजादी के
पूंजीवादी सोच ने नौकरियां घटाई हैं और देश का जनमानस दिमागी तौर पर खुद को
छला महसूस कर रहा है। आर्थिक विपन्नता
,
मंहगाई
,
भ्रष्टाचार जैसे कई कारण हिंदुस्तान के आम लोगों
का उत्साह छीन चुके हैं। लोगों के मन टूटे हैं। उनमें अविश्वास घर करता जा
रहा है कि वे अपने प्यारे देश को बचाने के लिए कुछ न कर पाएंगे। इसकी तुलना
में चीन का आर्थिक विकास तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है। वहां के लोगों के
सामने कोई दुविधा नहीं है। बस केवल माल बनाओ और उसे बेचने के लिए बाजार
तलाशो। इस सोच ने न केवल चीन का खजाना भर दिया है बल्कि उसकी सेनाएं
विस्तार वादी अभियान पर निकल पड़ी हैं। लिट्टे के वेलुपिल्लई प्रभाकरन को
हिंदुस्तान की सरकारें ये जानते हुए भी बचाती रहीं कि उसने ही हिंदुस्तान
के प्रधानमंत्री स्व
.
श्री राजीव गांधी की हत्या कराई थी।उसे चीन के
शासकों ने सिंहलियों को साधकर मरवा दिया। आज जब चीन से जुड़ाव रखने वाले
मुल्क
,
हिंदुस्तान से बौद्ध धर्म के कारण जुड़ना चाह रहे
हैं तब बौद्ध विवि के नाम में भारतीय ज्ञान अध्ययन शब्द जुड़वाकर भाजपा और
संघ के कुछ लोगों ने अपनी संकीर्णता उजागर कर दी है। बौद्ध विवि की स्थापना
में प्रमुख तौर पर जुड़े रहे विनय सहस्त्रबुद्धे और प्रकाश जावड़ेकर को
उम्मीद है कि ये नाम जुड़ जाने के कारण विश्वविद्यालय पर भारतीय समाज की
पकड़ भी बनाई रखी जा सकती है। इसके लिए ही मध्यप्रदेश पुलिस के आईजी आईपीएस
राजेश गुप्ता को विश्वविद्यालय का प्रभारी बनाया गया है। भाजपा और संघ के
इन बौद्धिक ठेकेदारों की भूमिका को देखते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह
चौहान ने खुद को थोड़ा पीछे खींच लिया और उन्होंने खुद को विश्वविद्यालय
स्थापना की प्रक्रियाओं तक ही सीमित कर लिया। बौद्धों का राजनीतिक
प्रतिनिधित्व करने वाले भारतीय बौद्ध धम्म परिषद के अध्यक्ष और मप्र राज्य
अनुसूचित जाति एवं जनजाति वित्त विकास निगम के अध्यक्ष इंद्रेश गजभिए सरकार
की पहल से संतुष्ट हैं उनका कहना है कि यदि नाम और उद्देश्य को लेकर कोई
बात बाद में सामने आएगी तो संशोधन करना कोई कठिन काम नहीं है।
श्रीलंका के राष्ट्रपति महिन्द्रा राजपक्षे
,
भूटान के प्रधानमंत्री श्री जिग्मे वाय थिनले
,
राज्यपाल रामनरेश यादव
,
स्वामी परमात्मानंद सरस्वती
,
श्री वेन वानगल उपतिस्स नायक थेरो जैसे दिग्गजों
ने अपनी सक्रिय भागीदारी निभाकर भले ही बौद्ध विश्वविद्यालय की आधारशिला रख
दी हो लेकिन जब तक ये विश्वविद्यालय अपने अध्ययन अध्यापन के लायक
विश्वसनीय बौद्ध भिक्षु हासिल नहीं कर लेता है तब तक इसकी विकास यात्रा
बोंसाई से ज्यादा विस्तार नहीं पा सकती है। सबसे निराशाजनक बात तो ये है कि
जो विश्विद्यालय सीमा पर गुर्राते चीन को पूंछ हिलाने के लिए मजबूर कर
सकता था वह आज केवल एक औपचारिक कवायद साबित हो रहा है।
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