Sunday, January 3, 2016

पत्रकार लिमटी खरे से सिवनी पुलिस निकाल रही खुंनश

रविवार विशेष
2016 के पहले दिन की सौगात
(लिमटी खरे की जुबानी)

अभी बारह भी नहीं बजे थे। 31 दिसंबर को बिदाई देने सड़कों पर लोग उमड़ रहे थे। हम भी अपना कार्यालय बंद कर घर के रास्ते पर थे। रास्ते में जो कुछ हुआ वह जीवन का पहला अनुभव ही माना जा सकता है। सालों से नये साल में बहुत ज्यादा ज़श्न जैसा तो नहीं मनाते हैं पर 2016 के पहले ही क्षण पुलिस ने जो कुछ किया वह हमारे जीवन का सबसे काला क्षण ही माना जायेगा। हमने अपने जीवन में पहली बार इस तरह की ज़बरिया दादागिरी वाली कार्यवाही के चलते शर्मिंदगी और त्रास झेला है, जिसे एक गंदा सपना समझकर भुलाने की कोशिश अवश्य करूंगा, क्योंकि अधिकारी अधिकारी होते हैं, पुलिस पुलिस होती है, वे चाहें तो कभी भी किसी भी मोड़ पर किसी भी मामले में दो सेकेण्ड में उलझा सकते हैं। हमें अधिकारियों और पुलिस की कार्यवाही की चिंता नहीं है, पर हम इसका फैसला जनता जनार्दन पर ही छोड़ना चाहेंगे कि वे ही फैसला करें कि 33 साल के पत्रकारिता जीवन में हमने पीत पत्रकारिता की है अथवा सकारात्मक और विकासशील सोच के साथ एक पत्रकार के रूप में अपने दायित्वों को निभाया है। वैसे भी देश भर में पत्रकारों के साथ इस तरह की घटनाएं अब आम हो चुकी हैं। सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं की कहावत को मूल मंत्र मानते हुये हमारा प्रयास सत्य के लिये लड़ना ही रहा है, हो सकता है हम गलत रहे हों पर सत्य की राह छोड़ना हमने मुनासिब नहीं समझा।

0 तीन लोगों में से दो लोगों पर वह भी दो जिम्मेदार संपादकों पर जिनके खिलाफ कभी भी किसी भी पुलिस थाने में अब तक कोई भी अपराध पंजीबद्ध न हो के साथ, पुलिस अगर जरायमपेशा लोगों जैसा बर्ताव करती है तो इसे क्या उचित माना जा सकता है। अगर पुलिस के नगर पुलिस अधीक्षक जैसे वरिष्ठ अधिकारी से, अधीनस्थ कर्मचारी के द्वारा की गयी बदतमीज़ी की शिकायत अगर की जाये तो क्या यह अनुचित है?

0 इसके पहले 25 दिसंबर की रात को बाहुबली चौक पर यातायात पुलिस के रघुराज सिंह के द्वारा दैनिक हिन्द गजट के वाहन को रोका गया। इसके बाद जब मौके पर हम पहुंचे तब रघुराज सिंह द्वारा पांच सौ रूपये के चालान बनाने की बात कही गयी। हमने पांच सौ रूपये निकाल कर दिये, पर आज तक चालान नहीं मिल पाया। इसी बीच अन्य वाहनों को सगा सौतेला व्यवहार करते हुये राघुराज सिंह के द्वारा छोड़ा जाता रहा।

0 यातायात पुलिस को विशेष कैमरों से बहुत पहले ही लैस कर दिया गया है। इन कैमरों का उपयोग अब तक यातायात पुलिस के द्वारा क्यों नहीं किया गया है यह भी शोध का ही विषय माना जा सकता है। कैमरा अगर चालू कर कार्यवाही की जाती है तो इसमें पारदर्शिता की पूरी पूरी उम्मीद रहती है। यातायात पुलिस के द्वारा पारदर्शिता क्यों नहीं बरती जाती है, यह शोध का ही विषय माना जा सकता है।

0 इसी बात को हमारे द्वारा 31 दिसंबर और एक जनवरी की दर्म्यानी रात को नगर पुलिस अधीक्षक राजेश तिवारी को बताया गया था। पता नहीं उन्हें इसमें क्या आपत्तिजनक लगा कि उन्होंने मौके पर ही पुलिस की धाराओं का उल्लेख करते हुये हमें और दैनिक हिन्द गजट के संपादक को शातिर अपराधियों के मानिंद यातायात पुलिस के वाहन में बैठाकर पहले कोतवाली में ले जाकर बैठाया गया, फिर मुलाहजे़ के लिये ले जाया गया। बिना रक्त परीक्षण के ही चिकित्सक के द्वारा नगर निरीक्षक से मोबाईल पर बात कर लिख दिया जाता है कि दोनों नशे में नहीं हैं। फिर रात दो ढाई बजे तक कोतवाली में ही निरूद्ध कर बैठाया जाता है। उसके बाद बिना किसी कार्यवाही के ही छोड़ दिया जाता है।

0 समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया और दैनिक हिन्द गजट के द्वारा लगातार ही कोतवाली पुलिस के रवैये के बारे में विस्तार से खबरों का प्रकाशन किया जाता रहा है। नये कोतवाल शैलेष मिश्रा ने जैसे ही कोतवाली की कमान सम्हाली थी वैसे ही उन्होंने कोतवाली पुलिस को निकम्मी करार दिया था।

0 जब यह अखबार आपके हाथ में होगा तब तक घटना को घटे हुये 60 घंटे के लगभग बीत चुके होंगे। इस मामले में पुलिस ने आगे क्या कार्यवाही की है इस बारे में शायद ही कोई जानता हो। इन परिस्थितियों में क्या माना जाये? क्या यह सारा घटनाक्रम पूर्व नियोजित था? क्या पुलिस के खिलाफ खबरों के प्रकाशन और प्रसारण का खामियाज़ा दो संपादकों के द्वारा भुगता गया है। दोनों ही संपादकों के चाल चलन, आचार विचार, सकारात्मक और नकारात्मक सोच और मान प्रतिष्ठा के बारे में आम जनता से राय ली जाकर जिले के वरिष्ठ अधिकारी बेहतर तस्दीक कर सकते हैं।

0 क्या यह कार्यवाही समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया और दैनिक हिन्द गजट को चमकाने धमकाने के लिये की गयी थी? अगर यह मान भी लिया जाये कि कोई नशे में वाहन चला रहा है (वस्तुतः जैसा कि नहीं था) तो भी क्या शातिर अपराधियों के मानिंद उसे पुलिस की जीप में बैठाकर पहले कोतवाली ले जाया जायेगा, फिर उसे जघन्य अपराधियों की तरह कोतवाली में बैठाया जायेगा? फिर क्या दोबारा उसे पुलिस जीप में ले जाकर मनमाने तरीके से उसका मुलाहज़ा कराया जायेगा? देश प्रदेश में कानून नाम की चीज है अथवा हिटलरशाही ही हावी है कि जैसा अधिकारी के मन में आयेगा वैसा ही वह करेगा?

(31 दिसंबर और एक जनवरी की दर्म्यानी रात पुलिस और दोनों संपादकों के मध्य कुछ ऐसे वार्तालाप भी हुये हैं जिनका उल्लेख करना हम मुनासिब नहीं समझते हैं। हमारा उद्देश्य पाठकों के बीच पुलिस की खाकी वर्दी की छवि बिगाड़ने का कतई नहीं है, पर अगर ज्यादती हुयी है तो उसे हम जनता की अदालत में रखना अपना कर्त्तव्य समझते हैं)

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