सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
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सत्य को स्वीकारने के स्थान पर उसे मौथला करने वालों की भीड तेजी से बढ रही है। राष्ट्रीय परिवेश से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक शक्ति के आगे विकल्पों का नितांत अभाव होता जा रहा है। राजनैतिक मापदण्डों पर आदर्शों की निरंतर धज्जियां उडाई जा रहीं हैं।
देश के पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के परिणामों की कसौटी पर स्वयं की पीठ थपथपाने वालों से लेकर चिन्तन करने वालों तक की लम्बी-लम्बी कतारें लगने लगीं है। वास्तविकता को दरकिनार करते हुए स्वयं की भागीदारी को रेखांकित किया जाने लगा है। एक ओर परिवार की पीढियों में सिमिटकर रह जाने वाले नेतृत्व की आत्मा तो दूसरी ओर राष्ट्रवादी प्रकृति वालों का सिद्धान्तों को पिण्डदान करना, एक ओर जाति विशेष का बोलवाला तो दूसरी ओर विभिन्न जातियों को मिलाकर एक वर्ग की ठेकेदारी करने का दंभ, एक दल सीमित दायरे में कैद हितों का संरक्षण कर रहा है तो दूसरा व्यक्तिगत स्वार्थ की बुनियाद पर खडा समूह।
इस तरह की अनेक धारायें राजनैतिक समुद्र में मिल रहीं हैं। आम आवाम विकल्पविहीन बनकर अपने शोषण का प्रतिशत कम करने की प्रत्यासा में मतदान की औपचारिकतायें निभाने के लिए बाध्य है। आक्रोशित मतदाता व्दारा सत्ता के विरोध में किया गया प्रयास वास्तव में विकल्पविहीनता का परिचायक है। ऐसा ही प्रयास देश की राजधानीवासियों ने किया था परन्तु तब उनके सामने आम आदमी पार्टी का सशक्त विकल्प एक आईएएस अधिकारी के अनुभवपूर्ण नेतृत्व के रूप में मुखरित था किन्तु कालांतर में परिणाम ढाक के तीन पातों से आगे नहीं बढ सका।
वर्ग विशेष का मत प्राप्त करने की ललक से बनाये गये कानून ने जहां अन्य जातियों को एक जुट होने के लिए विवस कर दिया वहीं गरीबों को अकर्मण्य बनाने वाली योजनाओं पर खर्च होने वाली धनराशि का बोझ मध्यम वर्गीय परिवारों के व्दारा दिये जाने वाले टैक्स पर थोप दिया गया। ऐसी ही स्थिति अब किसानों की आड में नई सरकारों व्दारा पैदा की जा रहीं है। कर्जा माफी के फरमान के पीछे मध्यम वर्गीय परिवारों पर लादा जाने वाला अतिरिक्त दबाव ही है। उच्च वर्गीय लोगों के साथ कानूनों के लचीलेपन का फायदा उठाने वाले जानकारों की फौज होती है, जो टैक्स के वास्तविक स्वरूप को अपने दावपेचों से चकमा देते हैं। वहीं निम्न वर्गीय परिवारों को पहले ही टैक्स मुक्त किया जा चुका है।
ऐसे में नियमों को महात्व देने वाले लोगों में केवल और केवल मध्यम वर्गीय परिवार ही बचते हैं। जो कानून को मानते हैं, उन्हें इस स्वीकारोक्ति का खामियाजा भी भुगतना है। इस सब के पीछे उनकी शक्तिहीनता ही है जिसे वर्तमान समय में धनशक्ति, पदशक्ति जैसे शब्दों की परिभाषाओं के रूप में प्रकाशित किया जा सकता है। चिन्तन कुछ ज्यादा ही गहराता जा रहा था कि तभी फोन की घंटी ने व्यवधान उत्पन्न कर दिया। हमारे पूर्व परिचित हशमत उल्ला खान की आवाज वर्षों बाद सुनाई पडी। मन गदगद हो गया। खान साहब का नाम समाजसेवा के क्षेत्र में बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है।
उन्होंने स्वयं के प्रयासों से जरूरतमंदों तक हमेशा मदद पहुंचाई और वह भी बिना किसी हो-हल्ला के। प्रचार से दूर, काम में विश्वास रखने वाले व्यक्तित्व का फोन हमारे लिए बिलकुल अत्याशित था। उन्होंने एक घंटे के अन्दर हमारे घर पहुंच कर मुलाकात की इच्छा जाहिर की। हमारा भी वीकली आफ था। सो आफिस जाने की बाध्यता भी नहीं थी। निर्धारित समय पर वे घर आ गये। हम लोग अतीत को स्मृतियों ताजा करने लगे। बीते पलों के मधुर स्पन्दन में गोते लगाते वक्त ही हमने उनसे कुछ समय पहले चल रहे चिन्तन पर चर्चा शुरू कर दी। विषय ने उनके मुस्कुराते चेहरे को गम्भीरता का आवरण दे दिया।
वर्तमान राजनीति से वास्तविक सिद्धान्तों का पटाक्षेप हो जाने की स्थिति को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि देश को एकता के सूत्र में पिरोने वाले ही जब उसे विभाजन के मुहाने पर खडा कर दें, तो फिर उसका संगठनात्मक स्वरूप विकृत होने की दिशा में गतिशील होगा ही। राष्ट्र से अधिक पार्टी का हित साधने वाले खद्दरधारी स्वयं भू कर्णधार बनकर प्रगट हो जाते हैं। धनबल पर पार्टी खडी करते हैं, और जुट जाते हैं व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए। प्रारम्भिक काल में दलों के सिद्धान्त, आदर्श और मान्यतायें लोकलुभावन नारों की तरह गूंजतीं हैं।
मासूम आवाम को ललचाया जाता है। सब्जबाग दिखा कर ठगा जाता है। मृगमारीचिका के पीछे दौडाया जाता है और जब तक हकीकत सामने आती है तब तक खद्दरधारी का स्वार्थ सफलता से भी कोसों आगे पहुंच चुका होता है। विकल्पों की भ्रूण हत्या का सिलसिला देश में स्वाधीनता संग्राम के दौर से ही चला आ रहा है। थोपे गये लोगों के हाथों में ही सत्ता होती है। हमने बीच में ही टोकते हुए उन्हें विषय पर केन्द्रित रहने के लिए कहा। राष्ट्रीय परिवेश का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा कि जनता के पैसे पर वाहवाही लूटने की सियासत हो रही है।
सैद्धान्तिक विभेद का परिचायक है मध्यमवर्ग का शोषण। इस तरह के कार्यों से विकास के मापदण्ड स्थापित नहीं हो सकते। जब तक समाज के आखिरी छोर पर बैठे व्यक्ति को सुविधा सम्पन्न नहीं किया जायेगा तब तक प्रगति की दुहाई देना बेमानी ही है। चर्चा चल ही रही थी कि तभी नौकर ने कमरे में प्रवेश करके स्वल्पाहार लाने की अनुमति मांगी। चर्चा में व्यवधान उत्पन्न हुआ किन्तु तब तक हमें अपने चिन्तन को नई दिशा देने के लिए सामग्री मिल चकी थी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए खुदा हाफिज।
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