Written by Rizwan Chanchal
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वैसे तो सारे कुओं में ही भांग पड़ी हुई है इसलिए किसी एक पेषे को क्या गरियाना मगर चिकित्सा क्षेत्र में हद तक आई गिरावट से अब ज्यादातर लोगों की आस्था दिनोदिन डाक्टरांे से उठती जा रही है अभी मेरे एक मिलने वालों के साथ डॉक्टरों द्वारा किया गया कारनामा हतप्रभ कर बैठा हुआ यूं कि चार बेटियों के बाप साथी ने पत्नी के गर्भ ठहरने पर दो जगह अलग अलग डाक्टरों से सोनोग्राफी कराई दोनो ही जगह उन्हे बेटी हीेने का संकेत दिया गया अन्ततः पत्नी को एबार्सन की सलाह दी वह नहीं राजी हुई समय गुजरा और हुआ बेटा। सारे परिवार के लोग यही कहते दिखे ये भगवान नही बल्कि शैतान है । हाल ही में एक खबर पढ़ने को मिली महाराष्ट्र के एक छाटे अस्पताल में डॉक्टर के पास एक गर्भवती स्त्री को लाया गया उसे दो बेटियों के बाद बेटा हुआ था लेकिन ससुराल वालों को विश्वास नहीं हुआ कि उसे लड़का हुआ है। वजह यह थी कि उस औरत की भी उसके पति ने सोनोग्राफी करवाई थी और उसे बताया गया था कि उसके गर्भ में बेटी है। खैर एक डॉक्टर ने माना भी तथा नाम न छापने का अनुरोध कर बताया कि औरत के गर्भ मे पल रहे बच्चे के बारे में गलत सूचना इसलिए दी जाती है ताकि गर्भपात कराने से डाक्टरों की आमदनी हो सके। हाला कि हर चिकित्सक ऐसा नही है लेकिन ज्यादातर पैसा कमाने की धुन में ब्यस्त हीे इस पवित्र पेशे को पूरी तरह बदनाम करने पर आमादा हैं न जानें कितनी मासूम जानें पैसे के चक्कर आये दिन ये भगवान कहे जाने वाले शैतान ले रहें होंगें देश में हर तरफ यही आलम है इस पर मैने एक रचना भी लिखी है इसे पढ़ें और प्रतिक्रिया भी दें -गर्भ में चीख पड़ी लाचार, देखकर खंजर की वो धाररूह भी कांप गई उसकी, रो पड़ी ले ले के सिसकी जुटा कर साहस वो बोली, न चाहूं ‘सजना’ न ‘डोली’ न हम पे खंजर ये तानो, मेरी पीड़ा को पहचानोंकरूॅगी बढ़-चढ़ कर हर काज, सभी को होगा हम पर नाजरहूंगी सदा आत्म निर्भर,करूंगी सेवा जीवन भर रोक लो हाथ बढ़ रहा है, पास खंजर आ रहा है खड़े हो हे पापा क्यों चुप, ये खंजर कहीं न जाये घुपहूॅ जीना चाहती मैं भी, हूॅ बेटों की जैसी बेटीबचा लो मुझे बचा लो तुम, मूर्छित मम्मी भी गुम सुम हुआ खंजर का तब तक वार, रक्त रंजित हुई लाचारहिचकियां लेकर वो बोली, सजा दी गर्भ में डोलीबिगाड़ा मैने किसका क्या, मिला ‘चंचल’ सिला जिसका। डॉक्टरी पेशे के पतन की यह कोई पराकाष्ठा नहीं है। दिल्ली के एक हृदय रोग अस्पताल के बारे में किस्सा सुनने में आया कि वहां मर चुके आदमी का ऑपरेशन करने के नाम पर भी उसके बेटे से पैसे वसूल किए जा रहे थे। वह तो बचपन में उसके साथ पढे़ एक युवा मित्र ने, जो वहां डॉक्टर था, ने उसे इशारे में बता दिया कि तुम्हें ऑपरेशन के नाम पर फालतू में लूटा जा रहा है तब वह और ज्यादा लुटने से बचा लेकिन इस तरह से कितने लोग लुट जाते होंगे। लखनऊ के निजी अस्पताल पैैसे वसूल करने के लिए मरीज की लाश न देने के लिए भी कई बार बदनाम हो चुके हैं और जो लखनऊ मे हो रहा है, मेरी समझ से वह सारे देश में भी हो रहा होगा। मुझे स्वयं इसी सप्ताह डंेगू बुखार की आशंका हुई मित्र की सलाह से एक बुजुर्ग डॉक्टर के पास गया। उन्होने कई टेस्ट बता दिये। एक को छोंडकर बाकी सभी टेस्ट करवा लिए इस बीच पत्नी ने देखा कि उनके नौकर- जिनके पास कंपाउंडर होने की भी योग्यता नहीं है- सभी को एक खास दुकान से न केवल दवाएं लाने को कह रहे हैं बल्कि डॉक्टर का नौकर हरेक की पर्ची के आधार पर सभी को एक जैसी ही हिदायतें दे रहा है। मैने उसकी बात नहीं मानी और बहुत अच्छा किया वर्ना हजारों के वारे न्यारे भी होते नई बीमारी अलग से आती। अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली में कुछ नागरिक समूहों ने राष्ट्रीय स्तर पर एक चर्चा आयोजन की, जिसमें केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी तथा योजना आयोग के कुछ सदस्य भी शामिल हुये वहां बताया गया कि अस्पताल में भर्ती होने वाले 40 प्रतिशत लोग या तो उधार लेकर या अपनी जमीन-जायदाद बेचकर इलाज करवाते हैं भयानक गरीबी के कारण 23 प्रतिशत लोग तो अस्पतालों की तरफ झांकते भी नहीं क्योंकि भारत में आर्थिक उदारीकरण के जन्मदाता प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की विचारधारा का क्रियान्वयन करने के लिए अब सरकारी अस्पतालों ने भी परीक्षणों का काफी पैसा मांगना शुरू कर दिया है। फिर भी लोग प्रति वर्ष 95,000 करोड़ रूपया दवाइयों-इलाज-डॉक्टरों पर खर्च करते हैं। दवाई कंपनियां 60 से लेकर 1500 गुना तक मुनाफा कमाती हैं और इसमें सभी मदद करते हैं, हमारी सरकारी अस्पतालों की चौपट व्यवस्था भी, सरकारी डॉक्टर भी, उनके कर्मचारी भी, निजी डॉक्टर भी, निजी अस्पताल भी, दवाई कंपनियां भी और न जाने कौन-कौन और हां हमारा स्वास्थ्य मंत्रालय भी। जिस देश मंे भारतीय चिकित्सा परिषद का अध्यक्ष- जो देश के स्वास्थ्य मंत्री का चहेता भी बताया जाता था- रिश्वत लेने के आरोप में गिरफतार होता है, उस देश में कहां-कहां, कितनी-कितनी तरह से, कितने-कितने स्तरांे पर साधारण जनता के स्वास्थ्य की कीमत पर कौन-कौन खा और डकार रहा है, हम तो उन सबको न जानते हैं, न जान सकते हैं और जान भी लें तो क्या बिगाड़ सकते हैं। बड़ी-बड़ी विदेशी दवा कम्पनियां हैं यहां, जिनका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार-प्रसार का बजट ही इतना ज्यादा है कि प्रधानमंत्री-मंत्री अगर उनके इशारे पर नाचने को तैयार हो जाएं तो वे जहां चाहें, जितना चाहें, इन्हें भी नचा सकती हैं। दरअसल, डॉक्टरी पेशे को नियंत्रित करने की इच्छा किसी में नहीं है, न संकल्प शक्ति हैं वरना क्या यह लूट किसी को नहीं दिखती। ऐसा क्यों है कि सरकार स्वास्थ्य सुविधाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का महज 0।9 प्रतिशत ही खर्च करती है और अभी कहीं पढ़ा था कि शिक्षा पर महज दो प्रतिशत तथा विकसित देश तो अपने सकल घरेलू उत्पाद का दस प्रतिशत इस पर खर्च करते हैं। हमारी सरकार चाहती तो देश में आज 90,000 तरह की ब्रांडेड दवाइयां न बिकतीं, क्यांेकि कुछ सौ जेनेटिक दवाओं से ही लोगों का काम चल सकता है और वह भी बेहद सस्ते में। लेकिन सरकार लोगों की नहीं बड़ी कंपनियांे की है।और बात सिर्फ चिकित्सा पर खर्च की ही नहीं है। अभी कुछ समय पहले क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लौर के डॉक्टर के।एस. जैकब का एक लेख पढ़ा था, जिन्होंने बताया कि डायरिया जैसे तमाम रोग मूलतः अस्वच्छ पानी तथा आसपास फैली गंदगी के कारण होते है। टी.बी. का भी मुख्य कारण घर के आसपास फैली गंदगी तथा लोगों को पोषक पदार्थ न मिलना है लेकिन शुद्ध पेयजल तो क्या अशुद्ध पेयजल तक गरीब जनता को उपलब्ध नहीं है। डॉक्टर जैकब बताते हैं कि डॉक्टरांे के पास जाने वाले एक-तिहाई लोगों को दरअसल कोई बीमारी नहीं होती। वे तो जीवन की दिनोदिन बढ़ती मांगों से थके घबराए परेशान लोग होते हैं। डॉक्टर खुद व्यक्तिगत रूप से उनकी जांच करके मानवीय ढंग से उनकी चिंता दूर कर सकते हैं लेकिन नहीं, तरह-तरह के परीक्षण करवाने को लिख देते हैं। जाहिर है कि इससे डॉक्टरों की आमदनी होती है। निजी अस्पतालों के डॉक्टरों की तो आमदनी उससे तय होती है कि वे कितने अधिक परीक्षण करवाते हैं और कितना अधिक कमीशन उससे खुद हासिल करते हैैं।
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