शाम को आठ बजे डासना जेल के मुख्य गेट से यशवंत सिंह बाहर आएं। चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। जिस तरह हंसते हुए गए थे, वैसे ही आएं। उनकी हंसी उनके तमाम विरोधियों और उनके खिलाफ साजिश रचने वालों को मुंह चिढ़ा रही थी। गोया कह रही हो, देख लो, मैं टूटा नहीं। अब भी वैसे ही अटल हूं। बल्कि पहले से ज्यादा मजबूत हूं। जो मित्र लेने पहुंचे थे, वो भावुक थे। लेकिन बंदा एकदम बिंदास था। वहीं हंसी-मजाक शुरू। जेल के बाहर आते ही अपने स्वभाव के मुताबिक जेल के किस्से। उनकी बातों से मित्रों में एक ऊर्जा सी भर गई, जिसकी कमी वो बीते ढ़ाई महीने से महसूस कर रहे थे। यही यशवंत की खासियत है।
गाड़ी में बैठने के बाद फोन शुरू। गाढ़े वक्त में साथ देने वाले मित्रों को धन्यवाद देने लगे। "गुरू, भैया, सर, बाबू, आ गया हूं। मिलते हैं।" जिससे जैसा नाता था, वैसे ही भाव थे। हालांकि यशवंत की बातों में थोड़ी शिकायत भी थी और थोड़ी बेचैनी भी। शिकायत उन मित्रों से थी, जिन्होंने इस मुश्किल दौर में उनका साथ नहीं दिया। और बेचैनी अपने साथी अनिल सिंह को छुड़ाने को लेकर थी। मस्ती कर लेने के बाद थोड़े संजीदा हुए तो मन की बात जबान पर आ गई। बोले- 'यार ऐसा वक्त भी आना चाहिए, अपना कौन है-पराया कौन, पता लग जाता है।' लेकिन दूसरे ही पल फिर मस्ती शुरू। "यार हम जैसे लोगों को जेल जरूर जाना चाहिए। बहुत अच्छी जगह है। बिला वजह डरते हैं हमलोग। वहां गजब की सामूहिकता है। वहां की लाइब्रेरी में बहुत किताबें हैं। बहुतों को पढ़ डाला। खूब योगा किया। " दिल्ली से बाहर रहने वाले एक वरिष्ठ और बुजुर्ग पत्रकार, जो हर वक्त यशवंत को लेकर चिंतित रहे, उनको फोन घुमा डाला। "दादा अच्छा हूं। पता चला कि आपने बहुत याद किया। ठीक हूं दादा।" घर पहुंचे तो मां और बाबूजी की आंखे डबडबाई थी, जो इनदोनों दिल्ली आकर रह रहे थे। पत्नी और बच्चों के चेहरे खिले थे। पत्नी ने टीका लगाया, आरती उतारी। पति का या यूं कहें हर आम मीडियाकर्मी के हीरो का सभी की तरफ से स्वागत किया। हम सबकी तरफ से आपका स्वागत है यशवंत।
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