स्वास्थ्य को उद्योग बनाकर भाजपा ने एफडीआई को बिछाया लाल कार्पेट
- आलोक सिंघई -
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अफसरों के इशारे पर चल रही मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार जाने अनजाने में वैश्विक ताकतों के चंगुल में फंस ही गई। प्रत्यक्ष विदेश निवेश ( एफडीआई ) के मसले पर संसद और सड़कों पर संग्राम करने वाली भाजपा ने मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य को उद्योग का दर्जा देने का फैसला कर लिया है। मंत्रिपरिषद की बैठक में सर्व सम्मति से फैसला लिया गया कि बाहिरी निवेशकों को आमंत्रित करने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को उद्योग का दर्जा दे दिया जाए। शासन में प्रमुख सचिव स्वास्थ्य का पद संभालने वाले अफसर प्रवीर कृष्ण इस फैसले के प्रमुख आर्कीटेक्ट बताए जा रहे हैं। बिहार के रहने वाले श्री कृष्ण कुछ समय पहले तक दिल्ली में कामनवेल्थ गेम्स के विशेष आफिसर रह चुके हैं। इस चर्चित खेल आयोजन के बाद वे मध्यप्रदेश लौटे और यहां उन्होंने नारा दिया सबके लिए स्वास्थ्य। तेजी से सुधार की पटरी पर लौट रहीं मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं के लिए ये अच्छा नारा था इसलिए सरकार और खासतौर पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उनके प्रशंसक बन गए। अब जबकि सरकार ने स्वास्थ्य को उद्योग का दर्जा दे दिया है तब राजनीतिक दलों के लोग भौंचक्के हैं और उनके पल्ले नहीं पड़ रहा है कि सुपर स्पेशियलिटी मंहगे अस्पतालों से राज्य सरकार सबके लिए स्वास्थ्य कैसे मुहैया करा पाएगी।
स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्र ने कैबिनेट बैठक में लिए गए फैसले का उल्लेख करते हुए बताया कि स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश बढ़ाने के लिए ही ये फैसला लिया जा रहा है। नामचीन असपतालों की शाखाएं जब मध्यप्रदेश में आएंगी तो लोगों को अच्छी गुणवत्ता का इलाज मिल सकेगा। स्वास्थ्य उद्योग के क्षेत्र में निजी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए सरकार उन्हें सस्ती जमीनें भी मुहैया कराएगी और निवेश के मुताबिक सब्सिडी भी प्रदान करेगी। नगरीय निकायों की सीमा से बाहर अस्पताल खोलने वालों को नाममात्र के शुल्क पर जमीनें दी जाएंगी .
सरकार के इस फैसले ने बरसों पुरानी स्वास्थ्य सेवाओं की उपयोगिता पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। स्वास्थ्य प्रमुख सचिव का कार्यभार संभालते ही श्री प्रवीर कृष्ण ने निर्देश दिए थे कि वे मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने के लिए दूरस्थ अंचलों में बैठकें लेंगे। लेकिन बाद में उन्होंने निर्देश दिए कि अस्पतालों में तैनात वरिष्ठ चिकित्सक ये बैठकें लें। हालांकि इसके लिए आवश्यक संसाधन स्वास्थ्य विभाग ने मुहैया नहीं कराए। आज छह महीने बीत जाने के बाद भी गांवों में बैठकें लेने का काम शुरु भी नहीं हो पाया है। इसके बजाए स्वास्थ्य सेवा को उद्योग का दर्जा देकर राज्य सरकार ने प्रदेश के लोगों को मंहगे विकल्प की ओर धकेल दिया है।
जब भाजपा देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के फैसले को वापस लेने के लिए सड़क से संसद तक संघर्ष कर रही है तब मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने आनन फानन में स्वास्थ्य सेवाओं को उद्योग का दर्जा प्रदान कर दिया। कहा जा रहा है कि इस फैसले को देखते हुए अपोलो , मेदान्ता , राकलैंड , ओटीस , एस्कार्टस , टेवा , हास्टीमेक्स , रैनबैक्सी , ग्लेक्सो , संचेती , एपॉस , मार्पेन , मूलचंद डि वाय पाटिल ग्रुप , आदि संस्थाओं ने निवेश में अपनी रुचि दिखाई है। हालांकि सरकार का ये फैसला वैश्विक निवेशकों के लिए भी है। पर सरकारी नुमाईंदे इसके बारे में कोई स्पष्टीकरण देने तैयार नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश के लिए जब वैश्विक कंपनियां भारत में अपने असपताल खोलने का आवेदन देंगे तो जाहिर है कि सरकार उन्हें न केवल अनुमति देगी बल्कि जमीन और सब्सिडी भी देगी। देश में जब सब्सिडी की प्रथा समाप्त की जा रही है। डीजल और गैस पर सब्सिडी हटाकर सरकार ने अपनी मंशा साफ कर दी है तब मध्यप्रदेश सरकार अस्पतालों के लिए सब्सिडी देने का फैसला ले रही है वह भी तब जबकि गांव गांव तक फैले प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के माध्यम से प्रदेश के सात करोड़ लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं देने का तंत्र सरकार के पास मौजूद है। उसमें सुधार की अपेक्षा बरसों से की जा रही है।
उद्योग के नाम पर स्वास्थ्य सेवाओं का ये निजीकरण इतने आनन फानन में किया जा रहा है कि न तो इसके कोई नियम बने हैं और न ही सरकारी तंत्र को समेटने का कोई संकेत है। लेकिन ऊपरी तौर पर लालीपाप नजर आने वाली ये प्रक्रिया सरकारी तंत्र के लिए विष का रसगुल्ला साबित होने वाली है। शीर्ष स्तरीय निवेश संवर्धन साधिकार समिति कब गठित होगी इसके चेयरमेन कौन होंगे इस विषयों पर न कोई चिंतन हुआ है और न ही कोई रूपरेखा बनाई गई है। हालांकि सरकार की मौजूदा नीतियों में भी निवेशकों को सुविधाएं देने का प्रावधान है पर सब्सिडी का गणित समझाकर उन्हें आकर्षित करने का बचकाना प्रयास कितना सफल होगा ये जल्दी ही सामने आ जाएगा। कहा जा रहा है कि दस लाख से कम आबादी वाले क्षेत्रों में अस्पताल खोलने वालों को तीन करोड़ की सब्सिडी दी जाएगी। श्री प्रवीर कृष्ण कहते हैं कि तीन करोड़ की सब्सिडी देकर हम करीब दो सौ करोड़ का निवेश करा लेंगे लेकिन सच ये है कि उन्हें गलत जानकारी देकर गुमराह किया गया है। चालीस करोड़ रुपए में अच्छा खासा अस्पताल बन सकता है लेकिन वह अस्पताल कमाई कितनी करेगा इसका कोई आकलन नहीं किया गया है। इसी तरह स्वास्थ्य संस्थाओं की स्थापना के लिए तीस लाख रुपए के अनुदान का कोई मतलब नहीं है।सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं में इस बदलाव के लिए कितनी सब्सिडी का लक्ष्य रखा है इसका भी कोई आकलन नहीं किया गया है और हवा में ही स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की तैयारी कर ली गई है।
अभी तक सरकार स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करती रही है लेकिन इस वैकल्पिक तंत्र में उनके लिए कोई गुंजाईश नहीं रहने वाली है। स्वास्थ्य सुधारों के नाम पर ढिंडोरा पीटने वाली सरकार ने हाल ही में नर्सिंग होम एक्ट बनाया है। जिसमें अपेक्स बाडी बनाए जाने का प्रावधान किया गया है पर आज तक कोई अपेक्स बाडी नहीं बनाई गई। ये एक्ट 1973 का है जबकि नियम 2007 में बनाए गए तबसे लेकर आज तक इलाज और सुविधाओं की तमाम व्यवस्थाएं पूरी तरह बदल गईं हैं। अब इन अधकचरी व्यवस्थाओं के बीच नर्सिंग होम की निगरानी करने की क्या व्यवस्था बनाई गई इसका कोई अता पता नहीं है। नई व्यवस्था को लागू करने का वादा यह कहकर किया जा रहा है कि दस फीसदी गरीबों का इलाज मुफ्त करने की व्यवस्था इन आधुनिक अस्पतालों में भी की जाएगी। जो 70 फीसदी गरीबों के लिए कतई पर्याप्त नहीं है।
सरकारी अस्पतालों के माध्यम से मध्यप्रदेश सरकार हर साल लगभग 2600 करोड़ रुपए खर्च करती है। जबकि भारत सरकार की ओर से 1000 करोड़ रुपए का बजट खर्च किया जाता है। सात करोड़ लोगों पर खर्च की जाने वाली इस 3600 करोड़ की राशि को विधिवत खर्च करने की व्यवस्था किए बिना एक वैकल्पिक खटराग सुनाना मध्यप्रदेश के गरीब लोगों के साथ घनघोर अन्याय नहीं तो क्या कहा जाएगा। भारत सरकार की एक महत्वाकांक्षी योजना के तहत आशा कार्यकर्ता पूरे देश में बनाई गई हैं। इन्हें सिर्फ देश के दूरस्थ अंचलों में स्वास्थ्य जागरूकता संभालने का जिम्मा दिया गया था लेकिन धीरे धीरे उन पर कई जवाबदारियां थोप दी गईँ और अब उन्हें सरकार के गले मढ़ने की योजना बन चुकी है। इन हालात में जनता पर दोहरा बोझ पड़ना अवश्यंभावी है उसे एक तो सरकारी तंत्र की कीमत चुकाते रहना है वहीं निजी क्षेत्र की चकाचौंधभरी लूट का सामना भी करना है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत जो नए लक्ष्य बनाए हैं उनका क्या होगा इसके बारे में स्वास्थ्य महकमा कुछ बोलने को तैयार नहीं है . अनुसूचित जाति जनजाति के हितग्राहियों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता के बारे में सरकार खामोश है कि ये सुविधा अब तक क्यों नहीं दी गई है। सहरिया जनजाति के हितग्राहियों को दी जाने वाली सुविधाएं कहां गई हैं। अनुसूचित जनजाति के हितग्राहियों को मोतियाबिंद के आपरेशन के लिए पांच सौ रुपए दिए जाने की योजना अब तक आकार क्यों नहीं ले सकी है।
सरकार ने प्रदेश भर के असपतालों के लिए चार सौ एंबुलेंस खरीदी हैं। उनका भुगतान भी हो चुका है लेकिन ये वाहन अब तक संबंधित अस्पतालों को नहीं दिए गए हैं। वाहन विक्रेता के गोदामों में खड़े इन वाहनों ने पूरी बारिश झेली है इनकी बैटरियां खराब होने लगी हैं और टायर ट्यूब चोरी होने लगे हैं इसके बारे में केवल इसलिए फैसला नहीं लिया जा रहा कि सरकारी तंत्र को कैसे बोगस साबित किया जाए। कुशासन के ढेरों उदाहरण मौजूद हैं शासन से लेकर स्वास्थ्य महकमे तक सभी को मालूम है कि व्यवस्थाएं कैसे सुधारी जा सकती हैं पर जानबूझकर इन व्यवस्थाओं को चौपट किया जा रहा है।
सरकार से ये पूछा जाना चाहिए कि आज जब सामूहिक स्वास्थ्य बीमा योजना जैसी कई योजनाएं आ चुकी हैं जिनमें अमीर गरीब सभी प्रकार के मरीजों को इलाज मुहैया कराया जा सकता है। आधारभूत ढांचा सरकार के पास मौजूद है इसके बावजूद सेवाओं का औद्योगिकीकरण करके आखिर सरकार किसे फायदा पहुंचाना चाह रही है। स्वास्थ्य विभाग ने एक बीमा कंपनी से बाकायदा अनुबंध कर रखा है उसे प्रीमियम की किस्त भी चुका दी गई है। कंपनी को गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों को तीस हजार रुपए तक का इलाज मुहैया कराना है लेकिनअब तक उनके कार्ड ही नहीं बने हैं। लगभग पचास से साठ लाख तक लोगों को कार्ड बनवाकर इस योजना का लाभ दिया जाना था लेकिन डेढ़ साल बीत जाने के बावजूद आज तक कोई व्यवस्था नहीं बनाई जा सकी है। यह रकम इलाज न होने के कारण बेवजह डूब जाएगी और जनता को फायदा भी नहीं मिलेगा।
स्वास्थ्य विभाग की दुर्दशा के हाल ये हैं कि लगभग चालीस जिलों में मुख्य चिकित्सा और स्वास्थ्य अधिकारी जूनियर डाक्टरों को बना दिया गया है। सूत्र बताते हैं कि उन्हे 10 से 15 लाख रपए की रिश्वत लेकर ये प्रभार दिए गए हैं। हालत ये है कि 1991 बैच के डाक्टर सीएमओ बन नहीं पाए हैं और 2000 बैच तक के डाक्टरों को सीएमओ की कुर्सी थमा दी गई है। प्रशासनिक दक्षता का ढिंडोरा पीटने वाले शासन के अफसरों को क्या इन हालातों की जानकारी अभी तक नहीं मिल सकी है। या फिर फैसला लेने में उनके हाथ कांपते हैं। सागर , सीधी , सिंगरौली , कटनी , झाबुआ , दमोह , पन्ना , छतरपुर , डिंडोरी , सिवनी , ग्वालियर , मुरैना , श्योपुर , जैसे जिलों में प्रभारी सीएमओ बनाकर योजनाओं को पलीता लगवाया जा रहा है। वरिष्ठ अफसरों को संयुक्त संचालक कार्यालयों में फोकट बिठाकर तनख्वाह दी जा रही है। कई स्थानों पर तो चार से पांच वरिष्ठ अफसर केवल तनख्वाह लेने के लिए बिठा रखे गए हैं क्योंकि उनका काम जूनियर अफसरों ने छीन रखा है जिसमें आहरण संवितरण के अधिकार भी शामिल हैं। फील्ड के दो तिहाई सीएमओ , संयुक्त संचालकों , जिला स्वास्थ्य अधिकारियों , के लगभग 2000 से 3000 पद लंबे समय से खाली पड़े हैं पर शासन उन्हें भरने के लिए कोई कदम नहीं उठा रहा है।
वास्तव में पूंजी निवेश के नाम पर स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करना समस्या का समाधान नहीं है। आम लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने की जिम्मेदारी जब बरसों पहले सरकार ने स्वयं अपने हाथ में रखी थी तबसे लेकर अब तक सरकारी अफसर अपनी जवाबदेही ठीक तरह नहीं निभा सके हैं। अपनी इस असफलता को छुपाने के लिए उन्होंने उद्योग के नाम पर निजी क्षेत्र को पैर जमाने का जो अवसर दिया है वह वास्तव में जनता के लिए बड़ा मंहगा सौदा साबित होने वाला है। वेशक स्वास्थ्य सेवाओं में पूंजी लगाने वालों को मोटा मुनाफा काटने का अवसर देकर सरकार में बैठे लोग अपना कमीशन कबाड़ लेंगे लेकिन प्रदेश के लोगों को यह फैसला काफी मंहगा साबित होने वाला है। निश्चित तौर पर इस फैसले का विरोध भी होगा जो भाजपा के यशस्वी सफर को कलंकित अवश्य करेगा।
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