अफसरशाही के चंगुल में आखिर फंस ही गई भाजपा
-आलोक सिंघई - 09425376322
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भोपाल। मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की पहली सफल सरकार जब सत्ता में आई तो कहा गया कि ये दिग्विजय सिंह की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ जनता के आक्रोश का नतीजा है। जनता ने जब दूसरी बार भी सत्ता की कमान भाजपा को ही सौंप दी तो कहा गया कि ये प्रशासनिक कृपा का प्रसाद है। अफसरशाही ने इस वाक्य को कई बार दुहराया जिससे भाजपा के खांटी जमीनी नेता भी मान बैठे कि ये जीत नौकरशाही की दया का ही नतीजा है। खुद मुख्यमँत्री शिवराज सिंह चौहान को भी लगने लगा कि नौकरशाही के हाथ बहुत लंबे हैं इसलिए जहां तक बन सके उसे नाराज न किया जाए। नतीजा ये हुआ कि राज्य की कमान पूरी तरह नौकरशाही ने थाम ली। आज जब कार्यकाल की समीक्षा का समय आ रहा है तब पता लग रहा है कि गूंगे और बौड़म अफसरों की जमात ने सरकार की सारी पुण्यायी के गुड़ को गोबर बना दिया है। संवादहीनता का दौर इतना गहरा गया है कि जन संवाद की जवाबदारी संभालने वाले जनसंपर्क महकमे से जुड़े पत्रकार भी आंदोलन करने पर मजबूर हो गए हैं। ये नौबत आखिर क्यों आई। पता करें तो आरोपों की सुई एक गहरे राजनीतिक षड़यंत्र की ओर इशारा करती है।
पत्रकारों की नाराजगी का सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्ट दिग्विजय सिंह के तनखैया पत्रकार की वेवसाईट को दिया गया पंद्रह लाख रुपए का विज्ञापन था। वैसे तो जनसंपर्क विभाग से लगभग दो सौ करोड़ रुपए से ज्यादा की राशि का विज्ञापन कहां और किसे दे दिया गया यह भी पत्रकारों की नाराजगी का बिंदु था लेकिन पंद्रह लाख रुपए का ये विज्ञापन सबकी जुबान पर चढ़ा हुआ था। इस विज्ञापन की कहानी जबकि इतनी रोमांचभरी नहीं है। भारतीय किसान संघ ने जब सरकार के खिलाफ किसानों का आव्हान किया तो सरकार किसानों तक तथ्यों की जानकारी पहुंचाना चाहती थी। इसके लिए सरकार का जनसंपर्क विभाग किसानों तक सीधे एसएमएस, प्रिंट या टीवी चैनल के विज्ञापन से अपनी बात पहुंचा सकता था। ये काम बीएसएनएल बहुत सस्ती दरों पर कर सकता था लेकिन अफसरों ने किसानों तक सूचना पहुंचाने का ये ठेका इस विवादित वेवसाईट को ही दिया। वे एसएमएस कितने किसानों तक पहुंचे और किस हालात में पहुंचे इसकी जांच कोई सरकारी जांच एजेंसी बिल्कुल सटीक कर सकती है पर सरकार तो खुद नहीं चाहती कि इस तरह की कोई जांच हो और सच्चाई सामने आए। जो एसएमएस भेजे गए वे हिंदी में थे और किसानों के मोबाईलों पर वो चौकोर बाक्स के रूप में पहुंचे। जिन्हें पढ़ा जाना संभव नहीं था। ये एसएमएस भी चंद किसानों तक किए गए और भुगतान पूरी संख्या के हिसाब से कर दिया गया। ये तथ्य यदि पत्रकारों को बता दिया जाता तो भी शायद वे इतने उद्वेलित नहीं होते। ये जानते समझते हुए भी जनसंपर्क विभाग के अफसरों ने चुप्पी साधे रखी और सरकार के खिलाफ पत्रकारों के शंखनाद का पहला श्रीगणेश हो गया। जमीनी अफसर तो पत्रकारों तक ये जानकारी पहुंचाना चाहते थे लेकिन शिवराज सरकार के अघोषित सूचना आका को ये मंजूर नहीं था।
आंदोलन हुआ और पत्रकारों ने सरकार के सूचना तंत्र को खूब भला बुरा कहा। आंदोलन की पहल करने वाले आल इंडिया स्माल न्यूजपेपर एसोसिएशन(आईसना) के अध्यक्ष अवधेश भार्गव ने सरकार को अपनी कार्यशैली में सुधार करने की चेतावनी देते हुए कहा कि जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा किन अखबारों चैनलों को दे दिया गया है ये मालूम कर पाना संभव नहीं हो पा रहा है। सरकार की शह पर अफसरों का काकस सूचना के अधिकार अधिनियम में भी जानकारी नहीं देता है और सरकार उसे अपने कर्तव्य निर्वहन के निर्देश नहीं दे रही है। जनसंपर्क महकमा सरकार के कार्यों का प्रचार करने के लिए चैनलों और अखबारों को माध्यम के रूप में इस्तेमाल कर रहा है जबकि सरकार के कामकाज का विश्लेषण करने वाले साप्ताहिक और छोटे समाचार पत्र उपेक्षित हैं। पत्रकारों को बहलाने से लिए सरकार ने श्रद्धानिधि योजना लागू की है जो केवल एक दिखावा है। इस योजना में बीस सालों तक अधिमान्य रहे पत्रकारों को बासठ साल की उम्र पूरी होने पर केवल पांच सालों तक श्रद्धा निधि योजना में पांच हजार रुपए का भुगतान किया जाएगा। इस तरह की दिखावे की योजनाएं बनाकर सरकार आखिर क्या साबित करना चाहती है।
पत्रकार बचाओ आंदोलन के संयोजक विनय डेविड कहते हैं कि जनसंपर्क विभाग अपने आय व्यय को पारदर्शी इसलिए नहीं बनाना चाहता है क्योंकि इससे विभाग के अफसरों और कर्मचारियों के जो फर्जी अखबार और पत्रिकाएं इस बजट पर पल रहे हैं उनकी पोल खुल जाएगी। सरकार ने अपने कार्यकर्ताओं को उपकृत करने के लिए जनसंपर्क विभाग के बजट का इस्तेमाल जिस तरह किया है सरकार उस पर भी चुप्पी साधे रखना चाहती है। इसीलिए मुख्यमंत्री ने पत्रकार पंचायत करने की घोषणा तो की लेकिन बाद में वे खुद इस पर गोलमोल जवाब देने लगे।
सरकार के खिलाफ संघर्ष का शंखनाद करके पत्रकारों ने ये तो बता दिया है कि वे समाज के जागरूक अंग हैं। उन्हें किसी भी तरह बरगलाया नहीं जा सकता। इसके अलावा वे लोकतंत्र के वाचडॉग भी हैं। कोई भी लोकतांत्रिक सरकार यदि अपने दायित्वों के निर्वहन में कोताही करेगी तो उनका प्रतिकार वे आगे बढ़कर जरूर करेंगे। यदि सरकार का संवाद तंत्र पूरी तरह कारगर होता तो शायद पत्रकारों को इस तरह आंदोलन करने की जरूरत भी न पड़ती लेकिन केन्द्र सरकार की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के साथ कदमताल करने वाले राजनेता और अफसरशाह ही जब राज्य सरकार के घुटने टिकाने में लगे हों तब बेहतर जनसंवाद की उम्मीद किससे की जा सकती है।
नोट- इस आलेख का इस्तेमाल कहीं भी किया जा सकता है।
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