बजरंग मुनि
महिलाओ को हर प्रकार का आरक्षण तथा प्रोत्साहन के बाद भी सार्वजनिक मंचों पर मुश्किल से दो तीन प्रतिशत महिलाएं ही पहुंच पाती हे। वे भी ऐसे मंचो पर सिर्फ महिला अधिकर का रटा रटाया रोना रोने के अलावा कुछ और नही बोलती। ये दो प्रतिशत आधुनिक महिलाएं सार्वजनिक जीवन मे इस प्रकार स्वयं को स्थापित करती है जैसे कि वे अठान्नवे प्रतिशत पारंपरिक महिलाओ का प्रतिनिधित्व करती हो जबकि सच्चाई यह है इन आधुनिक महिलाओ के विषय मे पारंपरिक महिलाओं के मन मे विपरीत धारणा ही भरी रहती है।
समाज मे न तो सभी प्राचीन परंपराएं त्याज्य और नयी अनुकरणीय होती है न ही सभी प्राचीन परंपराएं अनुकरणीय और नयी विरोध करने योग्य। देश काल परिस्थिति अनुसार परंपराओं मे संषोधन, परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। आम तौर पर पुरानी पीढी का बहुमत पुरानी परंपराओं के साथ चिपके रहना चाहता है और नई पीढी का बहुमत उन्हे बदलने के लिये उतावला रहता है। पुरानी पीढी और नई पीढी के बीच का यह अन्तर्द्वंद हमेशा ही देखने को मिलता रहता है।
इसी तरह भावना प्रधान और बुद्धिप्रधान लोगों के बीच भी स्वाभाविक अंतर होता है। भावनाप्रधान लोग आम तौर पर संचालित होते है तथा बुद्धि प्रधान संचालक। चालाक लोग दो गुटों मे बंटकर इन भावनाप्रधान लोगों की भावनाओं का शोषण करते रहते है। इन चतुर चालाक लोगों का एक समूह भावना प्रधान लोगों को पारंपरिक मान्यताओं के साथ चिपकाकर रखना चाहता है तो दूसरा गुट उन्हे सब प्रकार से आधुनिक होने की ओर प्रेरित करता रहता है। जबकि सच बात यह है कि न सभी पुरानी प्रथाएं आख मूंदकर स्वीकार करने योग्य होती है न ही सबका विरोध करके आंख मूंदकर नयी प्रथाएं स्वीकार करने की।
हम कुछ ऐसी पारंपरिक और आधुनिक प्रथाओं का विश्लेषण करें। लम्बे समय से जाति प्रथा एक संगठन के रूप मे चलती रही। जन्म के आधार पर जातियां संगठित हुई जो धीरे धीरे रूढ हो गई। जन्म अनुसार जाति के दुष्प्रभाव से समाज मे पारंपरिक वर्ग बन गये। इन जातीय परंपराओं ने सामाजिक न्याय को बहुत नुकसान पहुंचाया। पारंपरिक जाति प्रथा को कमजोर करके आधुनिक ढांचे मे ढालना आवश्यक था। स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी आदि महापुरूष पारंपरिक जातिवाद को आधुनिक स्वरूप देने के लिये निरंतर प्रयत्नशील थे किन्तु चालाक अम्बेडकर समूह ने इस पारंपरिक कुव्यवस्था से लाभ उठाने के उद्देश्य से जातिवाद को लगातार मजबूत किया। अम्बेडकर शिष्यों के लगातार प्रयत्नों के बाद भी जातिवाद लगातार कमजोर हो रहा है किन्तु जिस जातिवाद को दस बीस वर्षो मे ही कमजोर हो जाना चाहिये था वह साठ वर्ष बाद भी आंशिक रूप से ही कमजोर हो पाया है।
दूसरी ओर धर्म लम्बे समय से कर्तब्य प्रधान रहा। हजारों वर्षो से धर्म कभी संगठन के रूप मे नही रहा। धर्म सामाजिक व्यवस्था मे सहायक रहा, बाधक नहीं। इस्लाम ने सबसे पहले संगठन का स्वरूप लेकर सामाजिक एकता को नुकसान पहुंचाना शुरू किया। संगठित इस्लाम और ईसाइयत के खूनी टकराव जग जाहिर हैं। किन्तु दोनो ही विदेशी मूल के होने से भारत के धार्मिक स्वरूप पर ज्यादा प्रभाव नही डाल सके। यहां तक कि इस्लाम और ईसाइयत कई सौ वर्षो तक भारत को गुलाम बनाकर रखने के बाद भी यहां की पारंपरिक धर्म भावना को ज्यादा कमजोर नहीं कर सकें किन्तु स्वतंत्र भारत मे संघ परिवार, शिवसेना, बजरंग दल आदि ने राजनैतिक उद्देश्यों से धर्म का दुरूपयोग करना शुरू किया। परिणाम सबके सामने है कि धर्म का स्वरूप कर्तब्य प्रधान के पारंपरिक स्वरूप से हटकर आधुनिक टकराव प्रणाली की ओर बढता चला गया। इस्लाम तो कभी धर्म प्रधान रही ही नहीं और इसाइयत भी आंशिक रूप से ही धर्म के प्राचीन अर्थ को मानती रही किन्तु हिन्दू भी धीरे धीरे धर्म के विकृत स्वरूप की ओर बढता चला गया।
धर्म कभी पूजा पद्धति मे शामिल नही रहा। किन्तु यदि मान भी ले कि धर्म का संशोधित स्वरूप पूजा पद्धति से जुड़ गया तब भी भारत में धर्म कभी संख्या बल की छीना झपटी मे शामिल नही रहा। यहां तक कि आज भी हिन्दुत्व अपनी उसी पुरातन धारणा से चिपका हुआ है जिसमे बाहर के धर्मवालों को शामिल होने की स्वतंत्रता तक नही है भले ही अपने लोग दूसरी तरफ कितने भी क्यों न चले जाए। यह मूर्खता तो कहीं जा सकती हैं किन्तु धूर्तता नही कही जा सकती। स्पष्ट है कि मूर्खता धूर्तता से कम खतरनाक होती है। स्वतंत्रता के बाद भारत मे धर्म के नाम पर जो स्वरूप विकसित हुआ वह संख्या बल की छीना झपटी मे बढने लगा। यह तो हिन्दुत्व की गहरी आस्था और विश्वास का परिणाम रहा कि संघ परिवार के लाख प्रयत्नों के बाद भी भारत का हिन्दू संख्या बल की छीना झपटी मे शामिल नही हुआ। धर्म का आधुनिक स्वरूप उसे नही बदल सका। मूर्तिपूजा, अन्धविश्वास सरीखे अवैज्ञानिक पुरातन पंथी विचार हिन्दुओ को छोडने चाहिये थे किन्तु वह पारंपरिक धार्मिक विचारो से इस सीमा तक चिपका रहा कि उसने धर्म मे आधुनिक हानिकर विचारो के साथ साथ लाभदायक आधुनिक विचारो की भी राह नही पकडी।
पारंपरिक और आधुनिक का सर्वाधिक प्रभाव परिवार व्यवस्था पर दिखा। भारतीय व्यवस्था त्रिस्तरीय रही है जिसमें व्यक्ति परिवार और समाज की समान भूमिका रही है। पश्चिम के देशों मे व्यक्ति, सरकार और समाज की त्रिस्तरीय व्यवस्था रही है। इसमे इन तीनो को समान अधिकार प्राप्त है। इस्लाम में व्यक्ति परिवार और धर्म की भूमिका रही हैं इसमे व्यक्ति की भी भूमिका नगण्य ही होती है और समाज तो होता ही नही। साम्यवाद में न व्यक्ति होता है न परिवार न धर्म न समाज। वहां तो सिर्फ सरकार ही अकेली सबकुछ है।
इस संबंध मे हम सिर्फ भारतीय व्यवस्था की चर्चा करें तो यहां पारंपरिक और आधुनिक के बीच का द्वंद बिल्कुल स्पष्ट दिख सकता है। भारतीय पारंपरिक व्यवस्था मे अपवादों को छो़ड़कर लगभग पूरी तरह परिवार अनिवार्य रूप से व्यवस्था का अंग रहा है। इस्लाम और अंग्रेजो की लंबी गुलामी के बाद भी यह व्यवस्था लगभग चलती ही रही किन्तु स्वतंत्रता के बाद यहां व्यक्ति सरकार ओर समाज की आधुनिक व्यवस्था मजबूत होनी शुरू हुई। चूंकि पाश्चात्य व्यवस्था से पूरी तरह प्रभावित पण्डित नेहरू और अम्बेडकर स्वतंत्रता के बाद आधुनिक व्यवस्था के नायक के रूप मे सामने आये इसलिये उन्होने व्यक्ति, सरकार और समाज को तो संवैधानिक मान्यता दे दी किन्तु परिवार व्यवस्था को संविधान से बाहर कर दिया। इन दोनो ने स्त्री और पुरूष बालक या वृद्ध को परिवार का सदस्य होते हुए भी उन्हे व्यक्ति के रूप मे संवैधानिक अधिकार प्रदान कर दिये जबकि परंपरागत मान्यतानुसार परिवार मे शामिल होते ही व्यक्ति के मौलिक अधिकार तो सुरक्षित रहते है किन्तु संवैधानिक अधिकार परिवार के साथ जुड जाते है। चूंकि ये दोनों लोग न मौलिक और न संवैधानिक अधिकारों का अंतर जानते थे न उन्होने कभी यह जानने का प्रयत्न किया, इसलिये आज तक भारत मे यह अव्यवस्था बनी हुई है।
महिलाओ को हर प्रकार का आरक्षण तथा प्रोत्साहन के बाद भी सार्वजनिक मंचों पर मुश्किल से दो तीन प्रतिशत महिलाएं ही पहुंच पाती हे। वे भी ऐसे मंचो पर सिर्फ महिला अधिकर का रटा रटाया रोना रोने के अलावा कुछ और नही बोलती। ये दो प्रतिशत आधुनिक महिलाएं सार्वजनिक जीवन मे इस प्रकार स्वयं को स्थापित करती है जैसे कि वे अठान्नवे प्रतिशत पारंपरिक महिलाओ का प्रतिनिधित्व करती हो जबकि सच्चाई यह है इन आधुनिक महिलाओ के विषय मे पारंपरिक महिलाओं के मन मे विपरीत धारणा ही भरी रहती है।
परिणाम हुआ कि भारत की पारंपरिक परिवार व्यवस्था धीरे धीरे कमजोर होकर आधुनिक व्यक्ति केन्द्रित व्यवस्था की ओर सरकने लगी। अंग्रेजों ने स्वतंत्रता के बहुत पहले ही गुरूकुल प्रणाली की जगह मैकाले शिक्षा पद्धति को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया था जिसका हल्का प्रभाव आधुनिक शिक्षा पद्धति के प्रोत्साहन के रूप मे लगातार दिख भी रहा है किन्तु पण्डित नेहरू और अम्बेडकर की भूमिका परिवार प्रणाली को कमजोर करने मे बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण रही। पारंपरिक शिक्षा पद्धति मे चरित्र का महत्व धन की अपेक्षा कई गुना ज्यादा था। आधुनिक प्रणाली मे चरित्र की जगह धन महत्वपूर्ण हो गया। पारंपरिक पद्धति मे व्यक्ति पर परिवार का तथा परिवार पर समाज का अनुशासन था। अब सारा अनुशासन समाप्त होकर व्यक्ति और सरकार के बीच शासन के रूप में तब्दील हो गया।
यदि हम आकलन करे तो परिवार मे रहते हुए भी स्त्री और पुरूष के बीच पारिवारिक संबंधो मे संदेह की खाईं चौडी होती जा रही है। परंपरागत परिवारों मे यह खाईं धीरे धीरे चौडी हो रही है तो आधुनिक परिवारों मे बहुत तेज गति से। पारंपरिक परिवारो की महिलाएं आज भी सामाजिक अनुशासन को लगभग स्वीकार कर रही है। जबकि आधुनिक महिलाएं तो ऐसे सामाजिक अनुशासन की खिल्ली उड़ाने को ही अपनी योग्यता का मापदण्ड समझकर चल रही है। यह सच है कि सम्पूर्ण महिलाओ मे लगातार पारंपरिक महिलाओ का प्रतिशत घट रहा है और आधुनिक महिलाओ का बढ रहा है किन्तु नेहरू अम्बेडकर संस्कृति के लाख प्रयत्नो के बाद भी बढते बढते आधुनिक महिलाओं का प्रतिषत दो ढाई से ज्यादा नही बढ पाया है। महिलाओ को हर प्रकार का आरक्षण तथा प्रोत्साहन के बाद भी सार्वजनिक मंचों पर मुश्किल से दो तीन प्रतिशत महिलाएं ही पहुंच पाती हे। वे भी ऐसे मंचो पर सिर्फ महिला अधिकर का रटा रटाया रोना रोने के अलावा कुछ और नही बोलती। ये दो प्रतिशत आधुनिक महिलाएं सार्वजनिक जीवन मे इस प्रकार स्वयं को स्थापित करती है जैसे कि वे अठान्नवे प्रतिशत पारंपरिक महिलाओ का प्रतिनिधित्व करती हो जबकि सच्चाई यह है इन आधुनिक महिलाओ के विषय मे पारंपरिक महिलाओ के मन मे विपरीत धारणा ही भरी रहती है।
परिवार व्यवस्था की पारंपरिक प्रणाली को कमजोर करके आधुनिक व्यक्ति केन्द्रित प्रणाली का आधुनिक परिवारो को भौतिक लाभ बहुत हो रहा है। जहां संसद मे पहले पांच सौ परिवारो का प्रतिनिधित्व था वहीं अब धीरे धीरे तीन साढे तीन सौ परिवारो तक सिमट गया है। महिला आरक्षण इस अनुपात को और बिगाडेगा। युवा आरक्षण और वृद्धि करेगा। यही हाल सरकारी नौकरियों का हो रहा है। महिलाओं को प्रोत्साहन सरकारी नौकरियों में भी लाभ के पदों पर परिवारों के बीच सिमटने का सफल प्रयास कर रहा है। मुट्ठीभर आधुनिक परिवार सम्पूर्ण भारत के अधिकतम लाभ को अपने परिवार तक सीमित करने का प्रयत्न कर रहे है। प्राचीनकाल में ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य परिवार की मान्यता थी कि वे महिला और पुरूष के लाभ के अलग अलग संसाधन परिवार तक सीमित नहीं करेंगे। किन्तु आज तो परिवार तक सीमित करने की होड़ सी मची है। यदि सामाजिक संसाधनो की अपने अपने परिवार तक असीमित लूट की छूट ही आधुनिकता है तो हमे आधुनिकता और परंपरागत के लाभ हानि पर फिर से विचार करना चाहिये। एक परिवार को एक लाभ के पद तक सीमित करना चाहिये। देखिये कि किस तरह परिवारो का टूटना रूक जाता है। परिवारो को संवैधानिक मान्यता दीजिये, अधिकार दीजिये। पश्चिम का अंधानुकरण सिर्फ लाभ ही लाभ नही देता। वह यदि कही लाभ देता है तो कही हानि भी दे सकता है। यदि यह अंधानुकरण व्यक्ति और परिवार को भौतिक लाभ दे रहा है तो समाज व्यवस्था को बहुत अधिक नुकसान भी पहुंचा रहा है। दोनो स्थितियां स्पष्ट दिख रही है जो चिन्ता का विषय है।
स्पष्ट है कि परंपरागत और आधुनिकता के बीच द्वंद समाप्त होकर सामंजस्य स्थापित करने की आवष्यकता है। न तो परंपरागत का अन्ध समर्थन उचित है न आधुनिक का अन्ध प्रोत्साहन। जहां जातिवाद के नाम पर परंपरागत मान्यताओ पर पुनर्विचार की आवष्यकता है वही परिवार व्यवस्था की कीमत पर आधुनिकता की भौतिकता के प्रोत्साहन पर भी विचार करना चाहिये। समाज मे धूर्त लोग दो गुटो मे बंटकर हमारी भावनाओं का दुरूपयोग करना चाहते है । ऐसे धूर्त लोग अपने उद्देश्य मे सफल न हों, यह हम आप सबका कर्तब्य है। हम न तो स्वयं को परंपरा का प्रचारक घोषित होने दे न ही आधुनिकता का वकील। हम हर घटना को गुण दोष के आधार पर विवेचना करने की आदत डाले। किसी भी स्थिति मे अतिवादी होना घातक है। स्वार्थी तत्व अतिवादी भावनात्मक मुद्दे उछालकर आपकी परंपरावादी या आधुनिक भावनाओ का लगातार लाभ उठाने का प्रयत्न भी करते रहते है तथा सफल भी हो जाते है। यह आपकी सतर्कता होगी कि आप ऐसे संगठनो से दूरी बनाकर रखे। यदि आपने प्रत्येक विषय पर गुण दोष के आधार पर विचार मंथन करके निष्कर्ष निकालने की आदत डाल ली तो समाज की वर्तमान अनेक समस्याओ का समाधान सहज सरल हो सकता है।
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