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कालेधन की प्राप्ति के लिये आम आदमी के खिलाफ छेड़ी गई ‘देश हित’ की जंग में अब तक 56 मौतें हो चुकी हैं, यह संख्या अभी और बढ़ेगी शायद शतक लगाये या फिर दोहरा तिहरा शतक लगा दे.
सोशल मीडिया पर और संसद में सवाल उठ रहे हैं कि सरकार की गलत नीति से होने वाली इन मौतों की जिम्मेदारी आखिर सरकार की नहीं तो किसकी है ? विपक्ष के इस सवाल का जवाब तो प्रधानमंत्री ने जापान से आते ही दिया था जब उन्होंने कहा था कि पचास दिनों में अगर कोई समस्या आये तो उन्हें जिंदा जला देना।
दरअसल प्रधानमंत्री ने अपने लिये कोई भी सजा, सजा ऐ मौत से कम नहीं चुनी है। वे अक्सर चुनावी सभा में कहते थे कि सौ दिन में अगर कालाधन वापस (स्विस बैंक/विदेश की बात थी देश की नहीं) न ला पाऊं तो उन्हें फांसी पर चढ़ा देना वे सो दिन तो क्या हजार दिनों में भी कालाधन वापस नहीं ला पाये मगर किसी ने उनसे पूछने की जरूरत नहीं समझीं की सौ दिन गुजर चुके हैं अब वे अपने वादे के मुताबिक फांसी पर लटक जायें। फिर उन्होंने अगला लॉलीपॉप दिया कि दलितों को न मारा जाये, चाहे तो उन्हें गोली मार दी जाये।
यह भाषा न तो किसी प्रधानमंत्री की लगती है और न ही उस ‘शूरमा’ की जिसकी छाती का साईज बकौल उसके 56 इंच है। अब अगला सवाल है करेंसी बैन पर फैली आर्थिक अराजकता का, जिसमें अब तक 56 लोगों की जानें जा चुकी हैं इत्तेफाक देखिये यह संख्या प्रधानमंत्री की छाती के साईज तक जा पहुंची है। प्रधानमंत्री ने जैसा कहा कि 50 दिन बाद किसी को समस्या आये तो जिंदा जला देना, अव्वल तो यह समस्या 50 दिन से ज्यादा चलने वाली है और अगर 50 दिन में इस पर काबू भी कर लिया गया और लाशों की संख्या दोहरे या तिहरे शतक पर पहुंच गई तब उनके लिये कौन जिम्मेदार होगा ? क्या सरकार की गलत नीति के कारण मरे इन लोगों को न्याय मिलेगा ?
क्या प्रधानमंत्री पर इन लोगों की हत्या का मुकदमा चलेगा ? क्योंकि ये लोग मरे नहीं बल्कि मारे गये हैं एक मनमानी नीति को देशहित का नाम देकर इनकी हत्या की गई है। इन लोगों के पास पैसे थे मगर उसके बाद भी दवा नहीं खरीद पाये क्योंकि करेंसी बैन थी, सरकार ने कहा था कि अस्पतालो में पुरानी करेंसी चल सकेगी मगर अस्पतालो ने करेंसी ली ही नहीं। ये मौत अगर किसी आतंकी हमले में हुई होती तो अब तक भावनाऐं भड़क चुकी होती, मीडिया में चर्चा परिचर्चा का दौर शुरु हो चुका होता, अखबारो के पृष्ठ नये नये मास्टरमाईंड प्रस्तुत कर रहे होते मगर ये मौत सरकार के गलत फैसले से हुई हैं इसलिये सरकार के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं हो पा रही है।
कहीं हम खामोश रहकर लोकतंत्र को तानाशाही में तो नहीं बदल रहे हैं ? आखिर क्या वजह है कि सरकार के एक गलत फैसले ने अपने ही देश के इतने नागरिक मार डाले और किसी ने चूं तक नहीं की। सरकार नहीं जानती क्या किन लोगो के पास कालाधन है ? अगर सरकार को नहीं मालूम कि कालाधन किसके पास है फिर आयकर विभाग किस लिये बनाया गया है ? अक्सर मुद्दा उठता था कि कालाधन रखने वाले वालो के नाम बताये जायेंगे फिर वे नाम क्यों नहीं बताये गये ? क्या वे नाम इतने बड़े हैं कि सरकार को भी उनसे डर लगता है?
बजाय सरकार ने कालेधन के आरोपियो के नाम सार्वजनिक करने के आम जनता को लाईन में लगा दिया। ऊपर से तुर्रा यह कि यह तो देशहित में हो रहा है यह कैसा देश हित जो सप्ताह भर में 56 जिंदगियां निगल गया ? क्या ऐसे बेवकूफी, तानाशाही से सुसज्जित फैसले को देश हित कहा जायेगा ? भाजपा के भाड़े के गुंडे बैंकों पर लगी लाईन में जाकर पत्रकारों को धमका रहे हैं ताकि वे अवाम की परेशानियों को न दिखायें, यह कैसा देश हित है ?
जिसने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। उसके सामने दोहरी मार है वह मजूरी करने जाये लाईन में लगे। यह भी एक तरह का आतंकवाद ही जो दूसरे देशो में धर्म व नस्ल भेद के नाम पर आया था और भारत में राष्ट्रवाद का लबादा ओढ़कर फल फूल रहा है। आखिर इन लाशों का कातिल कौन है ? ध्यान रहे जितने लोग करेंसी बेन के चलते हैं उनके पास एक फूटी कौड़ी भी काले धन की नहीं थी बल्कि वे तो अपनी ही गाढी कमाई हासिल करने के लिये मर गये।
उनमें से न तो किसी का स्विस बैंक में कोई खाता था और न ही उन्होंने बिस्तरों, या सूटकेश में छिपाकर नोटों की गड्डियां रखी थी। मगर स्विस बैंक से जो कालाधन वापस आना था वह अभी तक नहीं आ पाया है। और न ही उस पर कोई चर्चा हो रही है।
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