[ कृष्ण मोहन झा ]
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लगभग तीन माह बाद होने जा रहे लोकसभा चुनावों में मुख्य मुकाबला तो कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच ही होना तय है परंतु देश के इन दो सबसे बड़े राजनीतिक दलों को इस हकीकत का पूरा-पूरा एहसास है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का सहयोग लिये बिना वे केन्द्र में सत्तारूढ़ होने का स्वप्न साकार करने में सफल नहीं हो सकते इसीलिये दोनों बड़े राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं के जब बयान आते हैं तो सिद्धांतवादी राजनीति को प्रतिबिंबित करने के बजाय उनमें सुविधा की राजनीति की झलक अधिक दिखाई देती है। शायद इसीलिये राजनीति को सुविधा के लिये किया गया विवाह कहा जाता है। राजनीति में कोई स्थायी शत्रु या स्थायी मित्र नहीं होता है। अगर ममता बैनर्जी राजग सरकार में रेलमंत्री पद हासिल कर सकती हैं तो उन्हें संप्रग सरकार में भी रेल मंत्री पद पर आसीन होने में सफलता मिल जाती है।
आज मायावती अगर केन्द्र में संप्रग सरकार का समर्थन कर रही हैं तो अतीत में वे राज्य में भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से मुख्यमंत्री पद हासिल करने में भी नहीं झिझकीं। अन्नाद्रमुक की सुप्रीमो जयललिता और द्रमुक के सुप्रीमो करुणानिधि ने कांग्रेस और भाजपा दोनों के नेतृत्व में केन्द्र में सत्तारूढ़ हुए गठबंधनों में शामिल होने से परहेज नहीं किया। केन्द्र में आज सत्तारूढ़ कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के एक महत्वपूर्ण घटक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार ने हाल में ही जब कांग्रेस के सबसे बड़े शत्रु नरेन्द्र मोदी का गुजरात दंगों के मामले में बचाव किया था तब उनके बयान से यही जाहिर होता था कि वे सारे विकल्प खुले रखे हुए हैं।
प्रधानमंत्री पद के लिये भाजपा के घोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी अगर बंगाल में जाकर मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की नेतृत्व क्षमता और उनकी सरकार की नीतियों की तारीफ कर रहे हैं तो उसका संदेश भी यही है कि उन्हें प्रधानमंत्री पद हासिल करने के लिये ममता-राग अलापने से कोई गुरेज नहीं है। यह बात अलग है कि ममता बैनर्जी खुद यह घोषणा कर चुकी हैं कि उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस की आगामी लोकसभा चुनावों में किसी दल से समझौता करने में कोई रुचि नहीं है। ममता बैनर्जी में स्वयं भी प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने की महत्वाकांक्षा मोदी से कम नहीं है। वे एक ऐसे संघीय मोर्चा का नेतृत्व करने की महत्वाकांक्षा पाले हुए हैं जो गैर कांग्रेसी व गैर भाजपाई राजनीतिक दलों का गठबंधन हो। ऐसा तभी संभव हो सकता है जबकि ऐसे गठबंधन में शामिल दलों में सर्वाधिक शक्ति उनकी अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के पास हो।
यही कारण है कि बंगाल की 42 लोकसभा सीटों पर अकेले चुनाव लडक़र अधिक से अधिक सीटों पर कब्जा करने की रणनीति पर काम करना उन्होंने शुरू कर दिया है। बंगाल की प्रसिद्ध मूर्धन्य लेखिका महाश्वेता देवी भी यह बयान दे चुकी हैं कि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी में भारत का प्रधानमंत्री बनने की सारी योग्यताएं मौजूद हैं। ममता बैनर्जी ने हाल में कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान में अपनी पार्टी की एक विशाल जनसभा में गरजते हुए दिल्ली चलो भारत गोरो (हम दिल्ली चलकर नये भारत का निर्माण करें) का नारा दिया था तो उस समय में मौजूद लाखों लोगों की भीड़ ने ममता फार पीएम के नारे गुंजाए थे। इस भीड़ को संबोधित करते हुए ममता बैनर्जी ने कहा था कि हम न तो ऐसी सरकार चाहते हैं जो दंगे भडक़ाती है और न ही हम ऐसी सरकार चाहते हैं जो ईंधन के मूल्यों में वृद्धि करती है।
इसका तात्पर्य यही है कि वे भाजपा और कांग्रेसनीत गठबंधनों में शामिल होने के बजाय तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करना अधिक पसंद करेंगी। वे यह अच्छी तरह जानती हैं कि भाजपा और कांग्रेसनीत गठबंधन का हिस्सा बनकर प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने की महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हो सकती। ममता बैनर्जी की भांति तमिलनाडु की मुख्यमंत्री और अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता भी प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने की लालसा रखती हैं।
बंगाल से चुने जाने वाले लोकसभा सदस्यों की संख्या अगर 42 है तो तमिलनाडु और पुडुचेरी से भी लोकसभा के लिये 40 सदस्य चुने जाते हैं और ममता बैनर्जी के समान ही जयललिता का यह मानना है कि अगर तमिलनाडु में अन्नादमुक 40 में से अधिकांश सीटों पर विजय पाने में सफल हो जाती है तो प्रधानमंत्री पद के लिये सौदेबाजी करने में उन्हें मुश्किल नहीं है। बंगाल में वाममोर्चा से जो दुश्मनी ममता बैनर्जी की है वैसी ही दुश्मनी तमिलनाडु में जयललिता की द्रमुक से है। बंगाल में वाम मोर्चा अगर अभी भी ममता बैनर्जी को कड़ी चुनौती पेश करने की शक्ति अर्जित नहीं कर पाया है तो तमिलनाडु में द्रमुक आज भी जयललिता को बराबरी की टक्कर देने की स्थिति में नहीं है।
द्रमुक सुप्रीमों करुणानिधि के परिवार में वैमनस्य का बढ़ता दायरा उसकी ताकत में लगातार पलीता लगा रहा है। करुणानिधि की अपने परिवार में एकजुटता कायम करने की सारी कोशिशें नाकामयाब रही हैं। जयललिता की सारी उम्मीदें भी करुणानिधि के परिवार में बढ़ते रागद्वेष पर ही टिकी हुई हैं। अगर राज्य के लोकप्रिय अभिनेता विजयकांत की डीएमडीके, द्रमुक और कांग्रेस मिलकर चुनाव लडऩे को तैयार हो जाएं तो वे जयललिता को कड़ी चुनौती पेश करने की स्थिति में आ सकती हैं।
परंतु अभी तक द्रमुक और कांग्रेस को इस दिशा में किये गये प्रयासों में कोई सफलता नहीं मिल पाई है। दक्षिणी तमिलनाडु में अच्छे-खासे लोकप्रिय विजयकांत की ओर से ऐसा कोई संकेत नहीं दिया गया है कि वे कांग्रेस और द्रमुक के साथ चुनावी तालमेल में कोई रुचि रखते हैं। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की तरह ही उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी इस बार प्रधानमंत्री पद के लिये अपनी संभावनाओं को बलवती मानकर चल रही हैं।
उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि बंगाल और तमिलनाडु मिलकर अगर 82 सदस्य लोकसभा में भेजते हैं तो अकेले उत्तरप्रदेश से ही लोकसभा के लिये चुने जाने वाले सदस्यों की संख्या 80 है। उत्तरप्रदेश में वर्तमान सपा सरकार ने दंगों को रोक पाने में जो कुख्याति अर्जित की है उससे मायावती यह अनुमान लगाने लगी हैं कि लोकसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को समाजवादी पार्टी से अधिक सीटें हासिल करने में कामयाबी मिलना तय है। बहुजन समाज पार्टी को कुछ दूसरे राज्यों में भी थोड़ी सफलता मिल जाती है तो मायावती प्रधानमंत्री के लिये अपनी दावेदारी पेश कर सकती हैं। मायावती को राज्य में कांग्रेस या सपा से अधिक अब भाजपा की ओर से अधिक चुनौती मिलने की संभावना अधिक है।
प्रधानमंत्री पद के लिये भाजपा के घोषित प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी जिस तरह उत्तरप्रदेश में भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने में जुटे हुए हैं उसे सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव भी अपनी पार्टी के लिये खतरा मानने लगे हैं। मुलायम सिंह यादव खुद भी तीसरा मोर्चा बनाने के लिये इसीलिये हाथ-पैर मारते रहे हैं कि केन्द्र में कांग्रेसनीत संप्रग और भाजपानीत राजग को लोकसभा चुनावों में अगर बहुमत हासिल नहीं होता है तो वे तीसरे मोर्चे के नेता के रूप में प्रधानमंत्री पद के लिये अपना दावा पेश कर सकें।
देश के वर्तमान राजनीतिक हालातों में एक ओर जहां भाजपा यह मानकर चल रही है कि प्रधानमंत्री पद के लिये नरेन्द्र मोदी को उम्मीदवार घोषित करने से केन्द्र में सत्तारूढ़ होने का उसका सपना साकार होने में अब मात्र तीन- चार माह ही शेष बचे हैं वहीं कांग्रेस को अभी भी यह उम्मीद है कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता भले ही कितनी भी अधिक क्यों न बढ़ जाये परंतु वह भाजपा को सत्ता के गलियारे तक पहुंचाने में सफल नहीं होगी।
उधर सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बैनर्जी, अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता, बसपा सुप्रीमों मायावती आदि महत्वाकांक्षी नेताओं की सारी उम्मीदें अब इस अनुमान पर टिकी हैं कि देश में इस बार त्रिशंकु लोकसभा के पक्ष में जनादेश आना तय है और उसके बाद देश में लगभग वैसे ही राजनीतिक समीकरण बनने की स्थिति निर्मित होगी जैसे सन् 1996 में बने थे। जब एचडी देवगौड़ा ने अनायास ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने का सौभाग्य अर्जित कर लिया था।
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