Tuesday, February 11, 2014

निर्धन को कानूनी सहायता के नाम पर क्रूर मजाक

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मनीराम शर्मा

जनता को न्याय देना राजा का राजधर्म होता है इसलिए  न्याय बिलकुल  मुफ्त होना चाहिए| अमेरिका जैसे देशों में आज न्याय शुल्क नहीं है जबकि भारत में आज भी कई राज्यों में न्याय मद पर  खर्चे की बजाय आय अधिक हो रही है और न्यायालय एक लाभप्रद उपक्रम की तरह कार्य कर रहे हैं |  फिर भी   निर्धन का तो जिक्र ही क्या करना आज आम व्यक्ति न्याय से वंचित है| एक कहावत प्रचलित है कि भारत में न्याय केवल वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है जिसके लोहे के  ( न थकने वाले ) पैर हों व सोने के ( न खत्म होने वाला धन) के हाथ हों| देश में 70 प्रतिशत जनता प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर आश्रित है जिसका सकल घरेलू उत्पाद में 15 प्रतिश्त से भी कम योगदान है | स्पष्ट है कि देश में आय के वितरण में भारी असमानताएं हैं और स्वतंत्रता के 66 वर्ष बाद भी जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग गरीबी का जीवन यापन कर रहा है| जनसंख्या के इस निर्धन वर्ग के लिए अपना गरिमा मय जीवन यापन करना ही कठिन है ऐसी स्थिति में यह वर्ग मुकदमेबाजी का खर्च उठाने के लिए पूरी तरह असमर्थ ही है|  

भारत की जटिल, खर्चीली, थकाने वाली व ऊबाऊ न्याय प्रक्रिया के बारे में  एक अन्य कहावत यह भी प्रचलित है कि आप अपने जीवन काल में मुकदमा दायर कर उसकी वसीयत तो कर सकते हैं किन्तु अपने जीवन काल में न्याय प्राप्त नहीं कर सकते|  मद्रास उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने भी देश की न्याय-प्रणाली की अविश्वसनीयता के बारे में कहा  है कि जिन लोगों के विवाद हैं उनमें से मात्र 10 प्रतिशत ही न्यायालयों तक पहुँचते हैं|

दिनांक 3 जनवरी 1977 से संविधान में संशोधन कर अनुच्छेद 39 क जोड़कर प्रावधान किया गया है कि राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और , वह विशिष्टतया, यह सुनिश्चित करने के लिए आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से नि:शुल्क    विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा| भारत सरकार ने, निर्धन व्यक्ति न्याय से वंचित न हो इस लक्ष्य को लेकर, विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम बनाया है जिसकी धारा 6  में राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण व धारा 8 ए  में उच्च न्यायालय विधिक सेवा कमिटी के गठन का प्रावधान है| इन कमेटियों के जरिये सरकार वंचित श्रेणी के लोगों को  विधिक सहायता उपलब्ध करवाने का दावा करती है और झूठी  वाहीवाही लूटती  आ रही है|

दूसरी ओर  बहुत से उच्च न्यायालयों के स्तर पर तो स्वतंत्र रूप से अलग से कमेटियों का गठन ही नहीं हुआ है| यहाँ तक की दिल्ली राज्य में अलग से उच्च न्यायालय विधिक सेवा कमिटी कार्यरत नहीं है तथा राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण ही यह कार्य देख रहा है|  इससे भी अधिक दुखदायी तथ्य यह है कि उच्च न्यायालय में एक मामले की पैरवी के लिए कमिटी द्वारा मात्र 500 रूपये की सहायता दी जा रही है जबकि स्वयम सरकार अपने एक एक मामले के लिए वकील के उपस्थित न होने पर भी जनता के लाखों रूपये पानी की तरह बहा रही है| वास्तविकता की ओर दृष्टि  डालें तो   500 रूपये में तो डाक, टाइपिंग , फोटोस्टेट के खर्चों की भी प्रतिपूर्ति तक होना मुश्किल है अत: इतनी  छोटी राशि से  किसी योग्य वकील की सेवाएं किस प्रकार उपलब्ध हो सकती हैं, अपने आप में यह एक यक्ष प्रश्न है |

सरकार के कार्यकरण में पारदर्शिता और शुचिता को बढ़ावा देने के लिए सूचना का अधिकार अधिनियम बनाया है और इन कमेटियों से भी अपेक्षा ही कि वे अपना सम्पूर्ण हिसाब-किताब वेबसाइट पर सार्वजनिक दृष्टिगोचरता में रखें  किन्तु शायद ही किसी कमेटी ने इस अपेक्षा की पूर्ति की है और निहित हितों के लिए उनके कार्य गुप्त रूप से  संचालित हैं – जनता का धन खर्च होने के बावजूद जनता को इस धन के उपयोग से अनभिज्ञ  रखा जा रहा है| अपारदर्शिता भ्रष्टाचार व अनाचार की जननी है| एक  उच्च न्यायालय की विधिक सेवा कमिटी को चालू वर्ष में कुल 52,93,360  रूपये का बजट आवंटन हुआ है जिसमें व्यावसायिक एवं विशेष सेवाओं के लिए मात्र 50,000 रूपये का प्रावधान है जोकि आवंटित बजट के 1 प्रतिशत  से भी कम है| शेष भाग वेतन व कार्यालय खर्चों के लिये आवंटित है | अन्य विधिक कमेटियों की स्थिति भी इससे ज्यादा भिन्न नहीं है|  यह भी ध्यान देने योग्य है कि निर्धन लोगों को इतनी छोटी सी राशि बांटने के लिए वकीलों के अतिरिक्त  12 कार्मिकों का दल लगा हुआ है जिस पर बजट का 99 प्रतिशत  खर्चा हो रहा है| इस प्रकार कमिटी निर्धनों की बजाय कार्मिकों की ज्यादा आर्थिक सहायता कर रही है | एक सामन्य बुद्धिवाले व्यक्ति को भी आश्चर्य होना स्वाभाविक है कि निर्धन को एक रूपये बांटने के लिए  निन्यानवे रूपये खर्चा किया जा रहा है और इसे निर्धन को कानूनी सहायता का जामा पहनाया जा रहा है| अन्य राज्यों में भी आवंटित राशि का मात्र 5 प्रतिशत  तक ही निर्धन लोगों को प्रत्यक्ष सहायता के रूप में उपलब्ध करवाया जा रहा है|

मेरे विचार से मिथ्या प्रचार व सस्ती लोकप्रियता के लिए यह न केवल सार्वजनिक धन की बर्बादी है बल्कि निर्धन लोगों को कानूनी सहायता की बजाय उनके साथ एक क्रूर मजाक किया जा रहा है|  अत: यह नीति बनायी जानी चाहिए  कि प्रत्येक विधिक कमिटी के बजट का न्यूनतम 75 प्रतिशत  भाग निर्धनों को सहायता उपलब्ध करवाने के लिए उपयोग हो और इसके लिए इतना ज्यादा स्टाफ रखने के भी कोई आवश्यकता नहीं है| आरंभिक चरण में इसे 25 प्रतिशत  से प्रारम्भ कर 3 वर्षों में इस लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं|  स्टाफ खर्चे  के भारी  बोझ से छुटकारा पाने के लिये आवेदन एवं स्वीकृति / पुनर्भरण  कार्य को ऑनलाइन कर दिया जाए व वकीलों को उनके खाते में सीधे ही जमा करने की परिपाटी का अनुसरण किया जाए जिससे पक्षपात व भ्रष्टाचार पर नियंत्रण में भी सहायता मिलेगी|  इस कार्य के संचालन के लिए अध्यक्ष व सचिव को मानदेय दिया जा सकता है और शेष कार्य न्यायालय के ही किसी स्टाफ से अंशकालिक तौर पर लिया जा सकता है तथा बदले में उसे भी उचित मानदेय दिया जा सकता है|

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