डॉ.शशि तिवारी
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जिसे ईश्वर दुख, दण्ड देना चाहता है उसकी बुद्धि को वह पहले ही हर लेता है। इतिहास एवं वेद पुराण ऐसी कहानियों एवं कथाओं से भरे पड़े हैं। रावण को मंदोदरी समेत अनेकों ने समझाया कि राम मनुष्य के रूप में भगवान है, राजा कंस को भी कितना समझाया कि कृष्ण मनुष्य के रूप में भगवान है, नहीं माना और अंत हुआ कहते हैं साधना में प्रारंभ के साधन ही अंत में बाधक बन जाते है, लक्ष्य प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि समय रहते साधनों को छोड़ना ही बेहतर होता है। यहां मैं इसे एक उदाहरण से समझाना चाहूंगी मान लो कि कोई रोगी किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित है और किसी औषधि के सेवन से वह भला चंगा हो जाता है उसके बाद वही रोगी इसी औषधि के जिन्दगी भर सेवन करने पर अड़ा रहे कि इसी ने मेरी जान बचाई है इसे मैं कैसे छोड़ दूं? कैसे हितकर हो सकता है? बीमारी गई अब औषधि को भी छोड़ना पडे़गा तभी आगे सब कुछ ठीक-ठाक रह सकेगा।
आज वर्तमान राजनीति में कुछ इसी तर्ज पर ’’आरक्षण’’ के संदर्भ में हाल ही में कांग्रेस के वरिष्ठ एवं वफादार जर्नादन द्विवेदी के द्वारा जाति कि जगह अब ’’आर्थिक आधार’’ पर आरक्षण देने के वक्तव्य में राजनीति की रणभूमि पर भूचाल सा ला दिया है।
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् और आज न केवल लोगों की सोच बदली है बल्कि समाज भी बदला गया है, लोगों की जरूरतें भी बदली है जिससे पूरा परिदृश्य ही बदल गया है।
आखिर भारत को 21वीं सदी में प्रगति के सौंपने पर जो चढ़ना है। यदि आज भी हम जाति धर्मों में उलझे रहे तो प्रगति कैसे करेंगे? बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर भी ’’आरक्षण’’ के अंतहीन चलने के पक्ष में नहीं थे, इसलिए उन्होंने भी इसे केवल 10 वर्षों के लिए ही कहा। अब, जब भारत जाति-धर्म को जंजीरों से मुक्त होना चाह रहा है तो अब हमें जाति आधारित आरक्षण की औषधि से मुक्त होना ही होगा। नहीं तो पुनः दूसरी गंभीर बीमारी से ग्रसित हो सकने की पूरी संभावना है।
द्वापर काल में विदुर की नीतियां जो कारगर सिद्ध भी वही उन्हें के समय में असफल भी सिद्ध हुई तब उन्हें मानना पड़ा था जिस तरह रोग पर औषधि के काम करने के समय सीमा होती है जिसमें वह प्रभावी होती है समय के पश्चात् वही ज़हर बन जाती है अब वक्त आ गया है मर्ज के हिसाब से अब औषधि ’’आरक्षण’’ का भी आधार बदला जाए।
आज भारत मनु आधारित जाति से नहीं वर्तमान में निर्मित नई जाति ’’अमीरी’’ और गरीबी के झंझावत से जूझ रहा है। लेकिन राजनीति के मामले में आज भी समाज को बांटने वाले नेता जाति आधारित आरक्षण को ही मुफीद समझते हैं निःसंदेह कंाग्रेस का अपना एक पुराना इतिहास रहा है, लेकिन अब पुराने फार्मूले कारगर होने की जगह उसे और कमजोर एवं बीमार कर रहे हैं। मण्डल-कमण्डल के बीच खड़ी कांग्रेस ने न केवल कई राज्यों में अपना आधार खोया बल्कि दिन-प्रतिदिन जाति आधारित औषधि के सेवन से कमजोर ही होती जा रही है।
चूंकि, अब मर्ज ’’अमीरी’’ एवं गरीबी का है सो अब उसे अपनी आरक्षण की औषधि का नया प्रोडक्ट ’’आरक्षण आर्थिक’’ आधार पार्टी का जीवन बचाने के लिए करना ही होगा, यही परिवर्तन की भी मांग है, यही विकास की प्रक्रिया भी है? अन्य राजनीतिक दलों को भी लोगों की भावनाओं से खेलने का गंदा खेल छोड़ ’’गरीबी’’ और ’’अमीरी’’ की खाई को पाटने के लिए खुले दिलों दिमाग से न केवल स्वास्थ्य बहस करे बल्कि इसके विकास के लिए कारगर नई रणनीति को भी बनाए तभी संविधान की मूल भावना के अनुरूप समभाव, धर्म, पंथ, जाति निरपेक्ष समाज निर्माण के साथ विकास होगा, क्योंकि, आज नई सोच एवं युवाओं का भारत एक नया इतिहास जो गढ़ने को बेबात है।
होना तो यह भी चाहिए प्रत्येक पांच वर्ष में आरक्षण की समीक्षा की जाए, एक पीढ़ी में एक को ही आरक्षण मिले, चरणबद्ध कार्यक्रम धीरे-धीरे आरक्षण की कम कर सुविधाएं बढ़ाएं, ताकि अधिकाधिक मुख्य धारा में जुड़ देश को विकास में सहायक हो सके!
शशि फीचर.ओ.आर.जी.
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