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बाला बच्चन दिखायें साहस ये सवाल पूछने का ?
कांग्रेस विधायक बाला बच्चन ने एक सवाल क्या पूछा भोपाली मीडिया के पत्रकार एक—दूसरे के कपड़े फाड़ने पर उतारू हो गये। खुराफाती लोग पड़ गये वेबसाईटों को दिये गये विज्ञापनों के पीछे। इस सब में जो दिग्गज नाम गिरामी लोग थे उनका तो कुछ नहीं लेकिन जो नये काम करने वाले पत्रकार थे उनका सारे मध्यप्रदेश के पत्रकारों ने फोन मैसेज करके जीना मुश्किल कर दिया। ऐसे में मल्हार मीडिया ने वो सवाल उठाये हैं जो वास्तव में पत्रकारिता के हित में खुद पत्रकारों को पूछने चाहिए और बाला बच्चन से उम्मीद की जाती है कि वे इन्हें विधानसभा के अगले सत्र में जरूर उठायें
पत्रकारिता की आढ़ में दलाली और वो सारे काम करने वाले जो गैरवाजिब माने जाते हैं करने वाले लोग न्यूज वेबसाईट्स को लेकर बूढ़ी बुआओं की तरह छाती पीटते नजर आ रहे हैं। अब तक कईयों को सफेद साड़ी पहना चुकी इन बूढ़ी बुआओं का हाजमा इसलिये बिगड़ गया क्योंकि ये लोग स्वीकार ही नहीं कर सकते कि तमाम पत्रकार ईमानदारी से वेबसाईट चलाकर काम करके खुद प्रगति कर सकते हैं और अपना घर चला सकते हैं। यहां सवाल न तो पत्रकारिता की बूढ़ी बुआयें हैं और न इनके सिरमौर बने कांग्रेस विधायक बाला बच्चन।
यहां सवाल यह है कि क्या बाला बच्चन में इतनी ताकत है कि वो दैनिक भास्कर, पत्रिका, नई दुनिया, दैनिक जागरण, स्वदेश, देशबंधु, या वेंटीलेटर पर पड़े मरीजों की तरह निकलने वाले कई छोटे अखबार मैगजीन को मिलने वाले विज्ञापनों के बारे में सवाल पूछ सकते हैं। बाला बच्चन की नासमझी तो इस बात से ही जाहिर हो गई कि उन्हें पता ही नहीं कि वेब मीडिया होता क्या है? उन्होंने अपने सवाल में वेबसाईट, वेबपोर्टल दोनों शब्दों का जिक्र किया है।
बाला बच्चन न तो नये जमाने से सरोकार रखते हैं और न ही नये जमाने के मीडिया से। अपनी विधायकी में रंगे हुये तमाम सारे बाला बच्चनों से निवेदन है कि वो विधानसभा में सवाल लगायें और पूछें कि दैनिक भास्कर और उससे जुड़े अन्य संस्थानों को कितना विज्ञापन मिला। हम जानते हैं इतना करने की क्षमता नहीं है अगर उन्होंने ऐसी गलती की तो उनका हश्र भी वैसा ही हो जायेगा जैसा उन तमाम विधायकों का हुआ जो अब विधायक नहीं हैं। इस समय के राजनेताओं की क्षमता सिर्फ छोटों पर आक्रमण और बड़ों के तलवे सहलाने से ज्यादा नहीं है।
बाला बच्चन से निवेदन है कि अगर वो पत्रकारिता का भला चाहते हैं तो सवाल लगायें और पूछें कि मध्यप्रदेश में ऐसे कितने पत्रकार हैं जिनके उपर गंभीर आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। ऐसे कितने पत्रकार हैं जिनके अदालतों से वारंट और स्थायी वारंट जारी हैं और ये रसूख के दम पर अपना साम्राज्य फैलाये हुये हैं।
बाला बच्चन से निवेदन है कि वो ये सवाल भी सरकार से पूछें कि ऐसे कितने लोग हैं जो पत्रकारिता की आढ़ में गलत काम कर रहे हैं साथ ही सरकार से अधिमान्यता भी लिये हुये हैं। अधिमान्यता के सामान्य नियम हैं कि सरकार किसी भी अपराधी को पत्रकार होने का सरकारी तमगा नहीं देगी। वे यह भी पूछें आमतौर पर आवेदन लगाने के कितने समय बाद पत्रकारों को अधिमान्यता आसानी से मिल जाती है नियमों के तहत। लेकिन ऐसा करने के लिये जिस साहस की जरूरत है वो बाला बच्चन में नजर नहीं आता है।
बाला बच्चन पत्रकारों के हित में सवाल लगाकर यह भी पूछें कि ऐसे कितने न्यूज चैनल हैं जो सैटेलाईट पर तो कम और व्हाट्सएप पर ज्यादा नजर आते हैं उनको कितने—कितने विज्ञापन और क्यों चलाये जाते हैं। बाला बच्चन से एक निवेदन और है कि आम श्रमजीवी मेहनतकश खबरों से सरोकार रखने वाले पत्रकारों के हित में वे यह भी पूछें कि ऐसे कितने अखबार हैं जो मजीठिया आयोग की सिफारिशों को लागू किये हुये हैं।
बाला बच्चन सरकार से यह भी पूछें कि क्या आम पत्रकार को वो सभी सुविधायें मिल रही हैं जिसके वे हकदार हैं? नये जमाने के नये वेबमीडिया को लेकर बाला बच्चन ने अपने सवाल के जरिये जो काठ की हांडी चढ़ाई थी वो तो अब जल चुकी है लेकिन सवाल बाला बच्चन की नियत का है।
एक आम पत्रकार के हक में वो ये सवाल भी विधानसभा में पूछें और उन पत्रकारों के खिलाफ कार्यवाही भी करवायें जो दशकों से सरकारी मकानों में कब्जा जमाये बैठे हैं? सरकार से नाममात्र की राशि पर खैरात में जमीन लिये बैठे हैं और उसके बाद सरकारी मकानों का करोड़ों रूपये का किराया भी दबाये बैठे हैं। बाला बच्चन यह भी पूछें कि ऐसे कितने पत्रकार हैं जिन्होंने सरकारी मकान खाली कर दिये जमीनें मिलने के बाद। वे यह भी पूछें जमीन आवंटन के लिये बनाई गई सोसायटियों में पिता अध्यक्ष तो बेटे को भी जमीन मिल गई? मीडिया में बैठे इन बड़े कहे जाने वाले पत्रकारों के बारे में अगर बाला बच्चन खुलासा कर पायेंगे तो बधाई के पात्र होंगे।
लेकिन इतना सब अगर बाला बच्चन पूछ लेंगे तो ये तय है कि वेबसाईटों पर सवाल उठाने वाली मीडिया की बूढ़ी बुआयें बाला बच्चन को अभिमन्यू की तरह चरक्रव्यूह में घेर देंगे। बाला बच्चन पुराने कांग्रेसी नेता हैं उनको उनकी पार्टी के सर्वश्रेष्ठ नेता मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का शासन याद होगा।
विज्ञापन बांटने दिग्विजय सिंह भी किसी से पीछे नहीं थे तब बाला बच्चन भी उस सरकार का हिस्सा हुआ करते थे वो जमाना वेब मीडिया का नहीं था लेकिन तब दिग्विजय सिंह ने बिना रजिस्ट्रेशन वाली तमाम समाचार और आलेख सेवाओं को कैसे उपकृत किया था इसका जवाब बाला बच्चन विधानसभा में 1993 से लेकर अब तक हिसाब मांगें तो दूध का दूध और पानी का पानी करनें में ज्यादा समस्या नहीं होगी।
बाला बच्चन को तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के दौर के पर्चे भी याद होंगे। दिग्विजय सिंह बहुत स्प्ष्ट कहा करते थे पत्रकार मेरे पास चार कामों से आते हैं पहला मकान मांगने दूसरा विज्ञापन मांगने तीसरा पत्नियों की नौकरी लग जायेगा और चौथा तबादले कराने।
अब बाला बच्चन थोड़ा सा साहस जुटायें और सवाल लगाकर पता करें कि वो कौन पत्रकार थे जो कांग्रेस के शासन में पत्नियों की नौकरी तबादले विज्ञापन और मकान लेने में सफल रहे? पत्रकारिता की आढ़ में तमाम गोरखधंधे करने वाले इन लोगों के खुलासे के लिये जरूरी है कि ईश्वर बाला बच्चन को इतना सामर्थ्य दे कि वो इन सारी बातों पर मनन कर सवाल उठा सकें।
ये बातें इसलिये भी लाजिमी हैं कि मध्यप्रदेश में पत्रकारों का एक गिरोह नेताओं से पैसे लेता है सरकारी मकानों पर कब्जा करता है सरकार से सस्ती दरों पर जमीनें लेता है अपनी पत्नियों की सरकारी नौकरियां लगवाता है वक्त—बेवक्त तबादले कराता है और उसके बाद उसकी कोशिश होती है कि कोई आम पत्रकार कभी फलक को देखने की कोशिश भी न कर पाये।
मीडिया में एक वर्ग ऐसा है जो हर चीज को अपनी कमांड में रखना चाहता है। इन्हीं में ये बूढ़ी बुआयें शामिल हैं जो पत्रकारिता के नाम पर दलाली करती हैं। इनकी नैतिकता कहां चली जाती है जब इन पर लिखे सवाल पूछे जाते हैं और खुद के हितों की बात आती है ?
एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है पत्रकारों में जो महिला पत्रकारों को आगे बढ़ता नहीं देख सकता। इन्हें महिलायें अपने अधीन काम करते और दूसरों द्वारा तनख्वाह खाने का रोना रोते हुये ही अच्छी लगती हैं तब कोई किसी महिला के हक में खड़ा नहीं होता। तब नैतिकता कहां जाती है। क्यों ये सवाल पहली बार विधानसभा पहुंची महिला पत्रकार से पूछ लिया जाता है अरे आप यहां? क्यों ये सवाल उससे पूछा जाता है कि आपने विज्ञापन पाने के लिये क्या किया? इस क्या किया का आशय क्या था यह सवाल पूछने के अंदाज पर निर्भर करता है। क्या महिलाओं में काबिलियत नहीं कि वो अपने दम पर काम कर सकें?
बात वेबसाईट की है तो बाला बच्चन जी ये जरूर पूछें कि सभी वेबसाइट्स को विज्ञापन देने में समानता क्यों नहीं बरती जाती ?
और आखिर में एक सीधा सवाल उन पत्रकारों से जो खुद को विशुद्ध सही पत्रकार मानते हैं वे ही अपने हक के लिये आवाज क्यों नहीं उठाते क्यों चुप रहते हैं? और जो आवाज उठाता है उसे यह क्यों कहते हैं चलता है ये सब चुप रहो। कहीं न कहीं तो शुरूआत करिये बोलिये। निशाना वेब मीडिया ही क्यों? बाला बच्चन जी पत्रकार हित में आप यह सब पूछेंगे क्या सरकार से ?
बाला बच्चन दिखायें साहस ये सवाल पूछने का ?
कांग्रेस विधायक बाला बच्चन ने एक सवाल क्या पूछा भोपाली मीडिया के पत्रकार एक—दूसरे के कपड़े फाड़ने पर उतारू हो गये। खुराफाती लोग पड़ गये वेबसाईटों को दिये गये विज्ञापनों के पीछे। इस सब में जो दिग्गज नाम गिरामी लोग थे उनका तो कुछ नहीं लेकिन जो नये काम करने वाले पत्रकार थे उनका सारे मध्यप्रदेश के पत्रकारों ने फोन मैसेज करके जीना मुश्किल कर दिया। ऐसे में मल्हार मीडिया ने वो सवाल उठाये हैं जो वास्तव में पत्रकारिता के हित में खुद पत्रकारों को पूछने चाहिए और बाला बच्चन से उम्मीद की जाती है कि वे इन्हें विधानसभा के अगले सत्र में जरूर उठायें
पत्रकारिता की आढ़ में दलाली और वो सारे काम करने वाले जो गैरवाजिब माने जाते हैं करने वाले लोग न्यूज वेबसाईट्स को लेकर बूढ़ी बुआओं की तरह छाती पीटते नजर आ रहे हैं। अब तक कईयों को सफेद साड़ी पहना चुकी इन बूढ़ी बुआओं का हाजमा इसलिये बिगड़ गया क्योंकि ये लोग स्वीकार ही नहीं कर सकते कि तमाम पत्रकार ईमानदारी से वेबसाईट चलाकर काम करके खुद प्रगति कर सकते हैं और अपना घर चला सकते हैं। यहां सवाल न तो पत्रकारिता की बूढ़ी बुआयें हैं और न इनके सिरमौर बने कांग्रेस विधायक बाला बच्चन।
यहां सवाल यह है कि क्या बाला बच्चन में इतनी ताकत है कि वो दैनिक भास्कर, पत्रिका, नई दुनिया, दैनिक जागरण, स्वदेश, देशबंधु, या वेंटीलेटर पर पड़े मरीजों की तरह निकलने वाले कई छोटे अखबार मैगजीन को मिलने वाले विज्ञापनों के बारे में सवाल पूछ सकते हैं। बाला बच्चन की नासमझी तो इस बात से ही जाहिर हो गई कि उन्हें पता ही नहीं कि वेब मीडिया होता क्या है? उन्होंने अपने सवाल में वेबसाईट, वेबपोर्टल दोनों शब्दों का जिक्र किया है।
बाला बच्चन न तो नये जमाने से सरोकार रखते हैं और न ही नये जमाने के मीडिया से। अपनी विधायकी में रंगे हुये तमाम सारे बाला बच्चनों से निवेदन है कि वो विधानसभा में सवाल लगायें और पूछें कि दैनिक भास्कर और उससे जुड़े अन्य संस्थानों को कितना विज्ञापन मिला। हम जानते हैं इतना करने की क्षमता नहीं है अगर उन्होंने ऐसी गलती की तो उनका हश्र भी वैसा ही हो जायेगा जैसा उन तमाम विधायकों का हुआ जो अब विधायक नहीं हैं। इस समय के राजनेताओं की क्षमता सिर्फ छोटों पर आक्रमण और बड़ों के तलवे सहलाने से ज्यादा नहीं है।
बाला बच्चन से निवेदन है कि अगर वो पत्रकारिता का भला चाहते हैं तो सवाल लगायें और पूछें कि मध्यप्रदेश में ऐसे कितने पत्रकार हैं जिनके उपर गंभीर आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। ऐसे कितने पत्रकार हैं जिनके अदालतों से वारंट और स्थायी वारंट जारी हैं और ये रसूख के दम पर अपना साम्राज्य फैलाये हुये हैं।
बाला बच्चन से निवेदन है कि वो ये सवाल भी सरकार से पूछें कि ऐसे कितने लोग हैं जो पत्रकारिता की आढ़ में गलत काम कर रहे हैं साथ ही सरकार से अधिमान्यता भी लिये हुये हैं। अधिमान्यता के सामान्य नियम हैं कि सरकार किसी भी अपराधी को पत्रकार होने का सरकारी तमगा नहीं देगी। वे यह भी पूछें आमतौर पर आवेदन लगाने के कितने समय बाद पत्रकारों को अधिमान्यता आसानी से मिल जाती है नियमों के तहत। लेकिन ऐसा करने के लिये जिस साहस की जरूरत है वो बाला बच्चन में नजर नहीं आता है।
बाला बच्चन पत्रकारों के हित में सवाल लगाकर यह भी पूछें कि ऐसे कितने न्यूज चैनल हैं जो सैटेलाईट पर तो कम और व्हाट्सएप पर ज्यादा नजर आते हैं उनको कितने—कितने विज्ञापन और क्यों चलाये जाते हैं। बाला बच्चन से एक निवेदन और है कि आम श्रमजीवी मेहनतकश खबरों से सरोकार रखने वाले पत्रकारों के हित में वे यह भी पूछें कि ऐसे कितने अखबार हैं जो मजीठिया आयोग की सिफारिशों को लागू किये हुये हैं।
बाला बच्चन सरकार से यह भी पूछें कि क्या आम पत्रकार को वो सभी सुविधायें मिल रही हैं जिसके वे हकदार हैं? नये जमाने के नये वेबमीडिया को लेकर बाला बच्चन ने अपने सवाल के जरिये जो काठ की हांडी चढ़ाई थी वो तो अब जल चुकी है लेकिन सवाल बाला बच्चन की नियत का है।
एक आम पत्रकार के हक में वो ये सवाल भी विधानसभा में पूछें और उन पत्रकारों के खिलाफ कार्यवाही भी करवायें जो दशकों से सरकारी मकानों में कब्जा जमाये बैठे हैं? सरकार से नाममात्र की राशि पर खैरात में जमीन लिये बैठे हैं और उसके बाद सरकारी मकानों का करोड़ों रूपये का किराया भी दबाये बैठे हैं। बाला बच्चन यह भी पूछें कि ऐसे कितने पत्रकार हैं जिन्होंने सरकारी मकान खाली कर दिये जमीनें मिलने के बाद। वे यह भी पूछें जमीन आवंटन के लिये बनाई गई सोसायटियों में पिता अध्यक्ष तो बेटे को भी जमीन मिल गई? मीडिया में बैठे इन बड़े कहे जाने वाले पत्रकारों के बारे में अगर बाला बच्चन खुलासा कर पायेंगे तो बधाई के पात्र होंगे।
लेकिन इतना सब अगर बाला बच्चन पूछ लेंगे तो ये तय है कि वेबसाईटों पर सवाल उठाने वाली मीडिया की बूढ़ी बुआयें बाला बच्चन को अभिमन्यू की तरह चरक्रव्यूह में घेर देंगे। बाला बच्चन पुराने कांग्रेसी नेता हैं उनको उनकी पार्टी के सर्वश्रेष्ठ नेता मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का शासन याद होगा।
विज्ञापन बांटने दिग्विजय सिंह भी किसी से पीछे नहीं थे तब बाला बच्चन भी उस सरकार का हिस्सा हुआ करते थे वो जमाना वेब मीडिया का नहीं था लेकिन तब दिग्विजय सिंह ने बिना रजिस्ट्रेशन वाली तमाम समाचार और आलेख सेवाओं को कैसे उपकृत किया था इसका जवाब बाला बच्चन विधानसभा में 1993 से लेकर अब तक हिसाब मांगें तो दूध का दूध और पानी का पानी करनें में ज्यादा समस्या नहीं होगी।
बाला बच्चन को तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के दौर के पर्चे भी याद होंगे। दिग्विजय सिंह बहुत स्प्ष्ट कहा करते थे पत्रकार मेरे पास चार कामों से आते हैं पहला मकान मांगने दूसरा विज्ञापन मांगने तीसरा पत्नियों की नौकरी लग जायेगा और चौथा तबादले कराने।
अब बाला बच्चन थोड़ा सा साहस जुटायें और सवाल लगाकर पता करें कि वो कौन पत्रकार थे जो कांग्रेस के शासन में पत्नियों की नौकरी तबादले विज्ञापन और मकान लेने में सफल रहे? पत्रकारिता की आढ़ में तमाम गोरखधंधे करने वाले इन लोगों के खुलासे के लिये जरूरी है कि ईश्वर बाला बच्चन को इतना सामर्थ्य दे कि वो इन सारी बातों पर मनन कर सवाल उठा सकें।
ये बातें इसलिये भी लाजिमी हैं कि मध्यप्रदेश में पत्रकारों का एक गिरोह नेताओं से पैसे लेता है सरकारी मकानों पर कब्जा करता है सरकार से सस्ती दरों पर जमीनें लेता है अपनी पत्नियों की सरकारी नौकरियां लगवाता है वक्त—बेवक्त तबादले कराता है और उसके बाद उसकी कोशिश होती है कि कोई आम पत्रकार कभी फलक को देखने की कोशिश भी न कर पाये।
मीडिया में एक वर्ग ऐसा है जो हर चीज को अपनी कमांड में रखना चाहता है। इन्हीं में ये बूढ़ी बुआयें शामिल हैं जो पत्रकारिता के नाम पर दलाली करती हैं। इनकी नैतिकता कहां चली जाती है जब इन पर लिखे सवाल पूछे जाते हैं और खुद के हितों की बात आती है ?
एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है पत्रकारों में जो महिला पत्रकारों को आगे बढ़ता नहीं देख सकता। इन्हें महिलायें अपने अधीन काम करते और दूसरों द्वारा तनख्वाह खाने का रोना रोते हुये ही अच्छी लगती हैं तब कोई किसी महिला के हक में खड़ा नहीं होता। तब नैतिकता कहां जाती है। क्यों ये सवाल पहली बार विधानसभा पहुंची महिला पत्रकार से पूछ लिया जाता है अरे आप यहां? क्यों ये सवाल उससे पूछा जाता है कि आपने विज्ञापन पाने के लिये क्या किया? इस क्या किया का आशय क्या था यह सवाल पूछने के अंदाज पर निर्भर करता है। क्या महिलाओं में काबिलियत नहीं कि वो अपने दम पर काम कर सकें?
बात वेबसाईट की है तो बाला बच्चन जी ये जरूर पूछें कि सभी वेबसाइट्स को विज्ञापन देने में समानता क्यों नहीं बरती जाती ?
और आखिर में एक सीधा सवाल उन पत्रकारों से जो खुद को विशुद्ध सही पत्रकार मानते हैं वे ही अपने हक के लिये आवाज क्यों नहीं उठाते क्यों चुप रहते हैं? और जो आवाज उठाता है उसे यह क्यों कहते हैं चलता है ये सब चुप रहो। कहीं न कहीं तो शुरूआत करिये बोलिये। निशाना वेब मीडिया ही क्यों? बाला बच्चन जी पत्रकार हित में आप यह सब पूछेंगे क्या सरकार से ?
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