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भोपाल। बीते वित्त वर्ष में शराब व्यवसाय में उतरे नए ठेकेदारों ने आबकारी विभाग के साथ ही पुराने ठेकेदारों का आर्थिक गणित बिगाड़ दिया। गणित बिगडऩे से पुराने ठेकेदारों को भारी भरकम घाटा उठाना पड़ा है तो वहीं इस साल के लिए विभाग को ठेकेदारों की तलाश मुश्किल हो गई। दरअसल नए ठेकेदारों ने भारी कीमत लगाकर ठेके हासिल कर लिए थे, लेकिन उसमें घाटा लगने से व्यवसाय छोड़ गए। जबकि विभाग उसी कीमत में 15 फीसदी की वृद्धि कर ठेका देने पर अड़ी थी। बीते वित्त वर्ष में प्रदेश में ठेके सबसे महंगे गए। क्योंकि दूसरे व्यवसाय से जुड़े लोगों को शराब का धंधा ज्यादा मलाईदार लगा। रियल एस्टेट, ट्रांसपोर्ट, खनिज व्यवसायी, बड़े बिजनेसमैन और पुश्तैनी रईसों ने भी महंगे ठेके लिए। कहीं कहीं बेनामी भी। 2015-16 में जब सरकार ने ठेकों की दर 15 प्रतिशत बढ़ाई तो नौसीखियों ने पुराने ठेकेदारों को मात देने के लिए आगे बढ़कर दरें 70-80 प्रतिशत बढ़ाकर दुकानें ले ली। नतीजा ये हुआ कि सरकार के खजाने में अनुमान से ज्यादा राजस्व आया। सरकार को भी विश्वास नहीं था कि उसे अनुमान से इतनी ज्यादा कमाई होगी। यही कारण था कि सरकार ने इस बार भी 2015-16 के ही आंकड़े में 15 प्रतिशत बढ़ाने का दांव चला, जो उल्टा पड़ गया।
आबकारी महकमे ने ठेकों के 2015-16 के आंकड़ों में ही 15 प्रतिशत जोड़कर ठेकेदारों को नई दर पर ठेके लेने के लिए मजबूर करना शुरू कर दिया। इंदौर जैसे बड़े शहरों जहां खपत अच्छी थी, वहां मुश्किल नहीं आई, पर ज्यादातर स्थानों पर ठेकेदारों के गु्रप राजी नहीं हुए। क्योंकि, दुकानों की जो दरें बढ़ीं थी, उसका खामियाजा वो भुगतने को राजी नहीं थे। बात इसलिए भी सही थी कि धंधे में आए गए ठेकेदारों ने बिना सोचे समझे महंगी दुकनों लीं और कमाई होते नहीं दिखी तो पल्ला झाड़ लिया। अब परंपरागत ठेकेदार 2015-16 की दरों में कटौती चाहते हैं। सरकार ने दबाव में 15 प्रतिशत बढ़ी दर तो कम तो की हीं, मूल ठेका दर में भी 10 प्रतिशत की कमी कर दी। लेकिन फिर भी बात नहीं बनी। वास्तव में इस बिंदु पर न तो सरकार गलत है न ठेकेदार। सरकार को ठेकों की वही कीमत सही लगी, जिसके उसे देनदार मिले थे, जबकि ठेकेदारों को लगा कि उनके घाटे का सबसे बड़ा कारण ही ऊंची कीमत पर ठेके लेना था। इसलिए इस बार वे कोई रिस्क लेना नहीं चाहते। यही सब वजह रही कि प्रदेश की कई दुकानें बच गईं। अब मजबूरी में इन शराब दुकानों को सरकार को संचालित करना पड़ेगा।
इस धंधे से जुड़े जानकारों के मुताबिक 2014-15 और 2015-16 में शराब का धंधा 15 से 20 प्रतिशत घटा है। आने वाले वित्त वर्ष में यही स्थिति रहने का अनुमान है। ऐसे में यदि ठेकेदार महंगी दर पर दुकानें लेते हैं तो उन्हें फिर घाटा होना तय है। इसीलिए वे अंत तक सरकार की कीमत पर ठेका लेने से बचते रहे।
को-आपरेशन सिस्टम
जानकारी के अनुसार पुराने ठेकेदारों के गु्रप के रवैये को देखकर सरकार ने को-आपरेशन सिस्टम लागू करने का फैसला किया है। यदि ऐसा हुआ तो आबकारी विभाग के कर्मचारी शराब बेचते नजर आएंगे। को-आपरेशन सिस्टम के तहत सरकार ही आबकारी अमले से दुकानों में शराब बिकवाती है। जिला स्तर पर एक समिति गठित की जाती है। जिसकी देखरेख में ये शराब दुकानें संचालित की जाती हैं। बताते हैं कि सरकार ने घोषणा तो नहीं की पर इसकी तैयारी जरूर कर ली। तमिलनाडू में ऐसे ही हालात 1998 में निर्मित हुए थे। तब ठेकेदारों ने अपनी कीमत पर सरकार से ठेके लेना चाहे थे। वित्तीय वर्ष पूरा होने पर उन्होंने न्यूनतम दर (लोएस्ट रेट) पर टेंडर लेने की प्रक्रिया की गई थी। मजबूर होकर तमिलनाडू सरकार ने विधानसभा में विधेयक लाकर को-आपरेशन सिस्टम लागू किया था। जिसके तहत विभाग ने खुद शराब की बिक्री शुरू कर दी थी।
ऐसे बिकेगी शराब
यदि मजबूरी में प्रदेश में को-आपरेशन सिस्टम लागू होता है तो हर जिले में शराब दुकानों पर जिला प्रशासन के साथ ही आबकारी विभाग का नियंत्रण होगा। विभाग द्वारा बनाई समितियों द्वारा दुकान का संचालन राशन दुकानों की तर्ज पर किया जाएगा। रोज की आय को सरकार खजाने में जमा करना होगा। आय-व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना होगा। हो सकता है कि नागरिक आपूर्ति निगम के माध्यम से शराब बेची जाए। आबकारी विभागीय सूत्रों का भी कहना है कि यदि शराब दुकानें शर्तों के मुताबिक नीलाम नहीं हुई तो सरकार नागरिक आपूर्ति निगम के माध्यम से भी शराब बिकवाने का फैसला कर सकती है।
शराब कारोबार: आंकड़ों के आईने में
– मध्यप्रदेश में 1060 अंगे्रजी शराब और 2624 देशी शराब की दुकानें हैं।
– 2002-03 में देशी शराब की खपत 390.58 लाख लीटर और विदेशी शराब की खपत 350 लाख लीटर थी।
भोपाल। बीते वित्त वर्ष में शराब व्यवसाय में उतरे नए ठेकेदारों ने आबकारी विभाग के साथ ही पुराने ठेकेदारों का आर्थिक गणित बिगाड़ दिया। गणित बिगडऩे से पुराने ठेकेदारों को भारी भरकम घाटा उठाना पड़ा है तो वहीं इस साल के लिए विभाग को ठेकेदारों की तलाश मुश्किल हो गई। दरअसल नए ठेकेदारों ने भारी कीमत लगाकर ठेके हासिल कर लिए थे, लेकिन उसमें घाटा लगने से व्यवसाय छोड़ गए। जबकि विभाग उसी कीमत में 15 फीसदी की वृद्धि कर ठेका देने पर अड़ी थी। बीते वित्त वर्ष में प्रदेश में ठेके सबसे महंगे गए। क्योंकि दूसरे व्यवसाय से जुड़े लोगों को शराब का धंधा ज्यादा मलाईदार लगा। रियल एस्टेट, ट्रांसपोर्ट, खनिज व्यवसायी, बड़े बिजनेसमैन और पुश्तैनी रईसों ने भी महंगे ठेके लिए। कहीं कहीं बेनामी भी। 2015-16 में जब सरकार ने ठेकों की दर 15 प्रतिशत बढ़ाई तो नौसीखियों ने पुराने ठेकेदारों को मात देने के लिए आगे बढ़कर दरें 70-80 प्रतिशत बढ़ाकर दुकानें ले ली। नतीजा ये हुआ कि सरकार के खजाने में अनुमान से ज्यादा राजस्व आया। सरकार को भी विश्वास नहीं था कि उसे अनुमान से इतनी ज्यादा कमाई होगी। यही कारण था कि सरकार ने इस बार भी 2015-16 के ही आंकड़े में 15 प्रतिशत बढ़ाने का दांव चला, जो उल्टा पड़ गया।
आबकारी महकमे ने ठेकों के 2015-16 के आंकड़ों में ही 15 प्रतिशत जोड़कर ठेकेदारों को नई दर पर ठेके लेने के लिए मजबूर करना शुरू कर दिया। इंदौर जैसे बड़े शहरों जहां खपत अच्छी थी, वहां मुश्किल नहीं आई, पर ज्यादातर स्थानों पर ठेकेदारों के गु्रप राजी नहीं हुए। क्योंकि, दुकानों की जो दरें बढ़ीं थी, उसका खामियाजा वो भुगतने को राजी नहीं थे। बात इसलिए भी सही थी कि धंधे में आए गए ठेकेदारों ने बिना सोचे समझे महंगी दुकनों लीं और कमाई होते नहीं दिखी तो पल्ला झाड़ लिया। अब परंपरागत ठेकेदार 2015-16 की दरों में कटौती चाहते हैं। सरकार ने दबाव में 15 प्रतिशत बढ़ी दर तो कम तो की हीं, मूल ठेका दर में भी 10 प्रतिशत की कमी कर दी। लेकिन फिर भी बात नहीं बनी। वास्तव में इस बिंदु पर न तो सरकार गलत है न ठेकेदार। सरकार को ठेकों की वही कीमत सही लगी, जिसके उसे देनदार मिले थे, जबकि ठेकेदारों को लगा कि उनके घाटे का सबसे बड़ा कारण ही ऊंची कीमत पर ठेके लेना था। इसलिए इस बार वे कोई रिस्क लेना नहीं चाहते। यही सब वजह रही कि प्रदेश की कई दुकानें बच गईं। अब मजबूरी में इन शराब दुकानों को सरकार को संचालित करना पड़ेगा।
इस धंधे से जुड़े जानकारों के मुताबिक 2014-15 और 2015-16 में शराब का धंधा 15 से 20 प्रतिशत घटा है। आने वाले वित्त वर्ष में यही स्थिति रहने का अनुमान है। ऐसे में यदि ठेकेदार महंगी दर पर दुकानें लेते हैं तो उन्हें फिर घाटा होना तय है। इसीलिए वे अंत तक सरकार की कीमत पर ठेका लेने से बचते रहे।
को-आपरेशन सिस्टम
जानकारी के अनुसार पुराने ठेकेदारों के गु्रप के रवैये को देखकर सरकार ने को-आपरेशन सिस्टम लागू करने का फैसला किया है। यदि ऐसा हुआ तो आबकारी विभाग के कर्मचारी शराब बेचते नजर आएंगे। को-आपरेशन सिस्टम के तहत सरकार ही आबकारी अमले से दुकानों में शराब बिकवाती है। जिला स्तर पर एक समिति गठित की जाती है। जिसकी देखरेख में ये शराब दुकानें संचालित की जाती हैं। बताते हैं कि सरकार ने घोषणा तो नहीं की पर इसकी तैयारी जरूर कर ली। तमिलनाडू में ऐसे ही हालात 1998 में निर्मित हुए थे। तब ठेकेदारों ने अपनी कीमत पर सरकार से ठेके लेना चाहे थे। वित्तीय वर्ष पूरा होने पर उन्होंने न्यूनतम दर (लोएस्ट रेट) पर टेंडर लेने की प्रक्रिया की गई थी। मजबूर होकर तमिलनाडू सरकार ने विधानसभा में विधेयक लाकर को-आपरेशन सिस्टम लागू किया था। जिसके तहत विभाग ने खुद शराब की बिक्री शुरू कर दी थी।
ऐसे बिकेगी शराब
यदि मजबूरी में प्रदेश में को-आपरेशन सिस्टम लागू होता है तो हर जिले में शराब दुकानों पर जिला प्रशासन के साथ ही आबकारी विभाग का नियंत्रण होगा। विभाग द्वारा बनाई समितियों द्वारा दुकान का संचालन राशन दुकानों की तर्ज पर किया जाएगा। रोज की आय को सरकार खजाने में जमा करना होगा। आय-व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना होगा। हो सकता है कि नागरिक आपूर्ति निगम के माध्यम से शराब बेची जाए। आबकारी विभागीय सूत्रों का भी कहना है कि यदि शराब दुकानें शर्तों के मुताबिक नीलाम नहीं हुई तो सरकार नागरिक आपूर्ति निगम के माध्यम से भी शराब बिकवाने का फैसला कर सकती है।
शराब कारोबार: आंकड़ों के आईने में
– मध्यप्रदेश में 1060 अंगे्रजी शराब और 2624 देशी शराब की दुकानें हैं।
– 2002-03 में देशी शराब की खपत 390.58 लाख लीटर और विदेशी शराब की खपत 350 लाख लीटर थी।
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