Sunday, January 13, 2019

सहज संवाद : राजनैतिक दलों में बदले लगीं हैं अपनों की परिभाषा

सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया

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सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
लोक सभा चुनावों की दस्तक होने लगी है। राजनैतिक दलों ने मतदाताओं को लुभाने की नीतियों पर अमल करना शुरू कर दिया है। सत्ताधारी गठबंधन ने नियमों की आड में चालें चलने में तेजी दिखाई तो विपक्ष भी विरोध के तेवरों के साथ मैदान में कूद पडा। छोटे व्यवसायियों से लेकर मध्यम वर्गीय परिवारों तक के लिए लाभ दिखाने वाली योजनाओं को परोसा जाने लगा। वर्ग विशेष के पक्ष में बनाये गये कानूनों से हुए जख्मों पर आरक्षण की मरहम लगाई जाने लगी।
महाकुंभ की धरती पर सुविधाओं के पालने में संतों को झुलाने की व्यवस्था की गई। मंदिर मुद्दे पर सभी दल न्यायपालिका की आड लेकर बचने की कोशिश में लगे हुए हैं। तुष्टीकरण की नीतियां परवान चढने लगीं है। मतदाताओं का रुख हालिया चुनाव में उजागर होते ही खद्दरधारियों के ललाट की रेखायें कुछ ज्यादा ही गहरा गईं। जातिगत, क्षेत्रगत, भाषागत आधारों पर बांटने की पहल तेज होती जा रही है। राष्ट्रवादी भावना निरंतर हाशिये पर पहुंचती जा रही है। स्वार्थवाद, व्यक्तिवाद, परिवारवाद जैसी विकृतियां समाजसेवा का मुखौटा लगाकर खुलकर तांडव करने की तैयारी में लगीं हैं। सिद्धान्तों, आदर्शों और नीतियों को तिलांजलि देकर विरोधी विचारधारा वाली पार्टियां सत्तासीन होने के लिए एक साथ खडी होने लगीं है।
मित्र और शत्रु की परिभाषायें निजी अह्म की पूर्ति के सामने दम तोडने लगीं हैं। मस्तिष्क में चिन्तन की गति तेज होती जा रही थी कि तभी सेंटरहाल में मधुर संगीत ने किसी के आने का संकेत दिया। चिन्तन के आकाश से उतरकर व्यवहार के धरातल पर कदम रखा। मुख्यव्दार पर जानमाने समाजसेवी गौतम शर्मा की उपस्थिति देखकर मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने आगे बढकर बडे भाई का सम्मान देते हुए चरण छूकर अभिवादन करने का प्रयास किया ही था कि हमने उन्हें बीच में ही पकड कर हृदय से लगा लिया। आत्मिक स्पन्दन ने भावनात्मक अभिव्यक्तियों से ओतप्रोत कर दिया। अप्रत्याशित आगमन पर जहां एक ओर रोमांच ने हौले से सहलाया, वहीं लम्बे समय बाद हो रहे प्रत्यक्ष संवाद का हर्ष भी जागृत हो उठा।
कुशलक्षेम पूछने-बताने के बाद चल रहे चिन्तन पर चर्चा छिड गई। श्री शर्मा के सहपाठी रहे एक राजनैतिक पार्टी के मुखिया उनसे निरंतर नीतिगत सलाह मशवरा करते रहते हैं। सो राजनैतिक क्षेत्र में प्रत्यक्ष भागीदारी न होने के बाद भी वे इस दौर के होने वाले राजनैतिक सिद्धान्तों के परिवर्तनों पर खासा ज्ञान रखते हैं। निकट भविष्य में होने वाले लोकसभा चुनावों के संदर्भ में उन्होंने कहा कि वर्तमान के गठबंधनों के अन्तिम नहीं कहा जा सकता। पार्टी के हित, कार्यकर्ताओं की अपेक्षायें और देश की प्रगति के आधार पर ही दलों का सहयोगात्मक पक्ष सामने आयेगा। उनकी बात को बीच में ही काटते हुए हमने कहा कि पार्टी का हित या मुखिया का व्यक्तिगत लाभ। कार्यकर्ताओं की अपेक्षायें या अपनों को रेवडी बांटने की लालसा।
देश की प्रगति या दल का विस्तार। आपके शब्दों में वास्तविक भावों से कहीं अधिक दिखाने वाले अर्थ छुपे हैं। साइकिल के साथ हाथी का दौडना, व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा के आगे पुराने साथी को आंखें दिखाने का पासवानी प्रयास, दक्षिण में गढी गई महागठबंधन की परिभाषा का उत्तर में पहुंचते व्याख्याविहीन हो जाना, ऐसे ही उदाहरण हैं। एक रहस्यमयी मुस्कुराहट के साथ उन्होंने कहा कि समाज के बदलते मापदण्डों के साथ नीतियां बदलतीं है, नीतियों का निर्धारण आधार को मजबूत करने के लिए होता है और राजनैतिक पार्टियों का आधार उसके धरातली कार्यकर्ता ही होते हैं।
ऐसे में पुरानी परम्पराओं की अप्रसांगिक हो चुकी मान्यताओं को ढोने का अर्थ ही नहीं रहता। राष्ट्र के विकास को नागरिकों की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सम्पन्नता के आइने से देखने की आवश्यकता है। परिवारवाद के उमडते सैलाव की ओर ध्यानाकर्षित करते हुए हमने उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए कहा। अंतरिक्ष में उत्तर तलाशते हुए उन्होंने कहा कि व्यापारी का पुत्र जन्म से ही उस विधा में रच-बस जाता है। किसान के पुत्र का ज्ञान खेती-बाडी में अधिक होता है। इस तरह के संकेतों से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि ज्ञान और अनुभव का काफी कुछ अंश पैत्रिक विरासत के साथ मिलता है।
अपवाद अवश्य होते है। इसी आधार पर पिता की गद्दी पर आम राय का सम्मान करते हुए पुत्र को आसीत किया जाना बेमानी नहीं है। हमने फिर उनके उत्तर पर प्रश्नवाचक चिन्ह अंकित करते हुए कहा कि यानी राजनैतिक दलों में भी गद्दी परम्परा है, सक्षम कार्यकर्ताओं की प्रतिभा को अदृष्टिगत करके समर्पण का पुरस्कार उपेक्षा से देने की नीतियां हैं और सदस्यों हेतु तुष्टीकरण अपनाना दलगत सिद्धान्त। उन्होंने कहा कि वर्तमान को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता। जब कथित प्रतिभाओं के मध्य मुखिया पद की जंग शुरू हो जाये तब बीच का रास्ता ही हमेशा कारगर सिद्ध होता है। यह सत्य है कि कुछ राजनैतिक दलों में बदलने लगीं हैं अपनों की परिभाषा। नये गढबंधन आकार ले रहे हैं। सिद्धान्तों को दर किनार किया जा रहा है।
इसे उचित कदापि नहीं कहा जा सकता। चर्चा चल ही रही थी कि तभी फोन की घंटी ने व्यवधान उत्पन्न किया। फोन पर हमें एक आवश्यक कार्य की याद दिलायी गई। आपसी चर्चा में हम इतना खो गये थे कि फोन पर स्मरण दिलाने का अभाव में वह आवश्यक कार्य निश्च ही छूट जाता। हमने चाय पर साथ देने के बाद उन्हें अतिथि कक्ष में पहुंचाकर शाम को मिलने का वायदा किया। उन्होंने भी दिन के कुछ जरूरी काम निपटाने की बात कही। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए खुदा हाफिज।

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