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बीजेपी भले ही तरह-तरह के दावे कर रही हो लेकिन पार्टी के लिए यह चुनाव मुश्किलों भरा है वहीं परिणाम आने से पहले ही उसके कई सहयोगी उसका साथ छोड़ रहे हैं। ऐसे में उसकी मुश्किलें बढ़ती ही जा रही है। पांचवे चरण के मतदान से पहले ही सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओमप्रकाश राजभर ने बीजेपी से अलग होने की घोषणा कर दी है।
यह पूर्वी यूपी में बीजेपी के लिए बड़ी मुसीबत है। एक अनुमान के मुताबिक राजभर समाज पूर्वी यूपी में कुल जनसंख्या का 20 फीसदी है और यादव जाति के बाद सबसे बड़ी राजीतिक भूमिका निभाता है। बीजेपी के 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत मिली थी और इसमें ओमप्रकाश राजभर की बड़ी भूमिका थी। ओमप्रकाश राजभर ने बीजेपी की जीत में अहम योगदान दिया था। 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने ओमप्रकाश राजभर की पार्टी को 8 सीटें दी थीं।
अब पूर्वी यूपी के सीटों पर ही चुनाव होना बाकी है, ऐसे में बीजेपी के लिए राजभर की पार्टी का अलग हो जाना बड़ा झटका माना जा रहा है। इसका असर वाराणसी लोकसभा सीट पर भी पड़ सकता है जहां से पीएम नरेंद्र मोदी चुनाव लड़ रहे हैं। यहां सातेंव चरण में चुनाव होना है।
छठे चरण में भी बीजेपी के लिए कई परेशानियां हैं। इस चरण में एसपी-बीएसपी गठबंधन बीजेपी को कई सीटों पर मात देती दिख रही है। आजमगढ़ से इस बार समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव चुनाव लड़ रहे हैं। उन्हें कांग्रेस का भी समर्थन हासिल है, ऐसे में यहां बीजेपी के लिए कुछ बचता नहीं है। 2014 में भी बीजेपी को इस सीट पर सिर्फ 28 फीसदी ही वोट मिले थे। जौनपुर में भी वोट प्रतिशत बीएसपी-एसपी प्रत्याशी के पक्ष में ही है। लालगंज में भी यही हाल था, हालांकि बीजेपी सिर्फ 36 फीसदी वोट पा कर जीत गई थी। लेकिन इस बार हालात अलग हैं।
अंबेडकर नगर सीट पर बीजेपी को 41.77 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन इस बार यहां भी बीजेपी का जितना मुश्किल लग रहा है। यह बीएसपी का पारंपरिक सीट है। बीएसपी की मुखिया मायावती यहां से सांसद भी रह चुकी हैं। पहले यह सीट अकबरपुर से नाम से जाना जाता था। परिसीमन के बाद यह अंबेडकर नगर के नाम से जाना जाने लगा। मायावाती ने ऐलान भी कर दिया है कि अगर जरूरत पड़ी तो वो यहां से उपचुनाव लड़ सकती हैं। 2014 के चुनाव में बीएसपी और एसपी के वोट को मिला दिया जाए तो महागठबंधन को यहां 51 प्रतिशत वोट मिले थे। वहीं विधानसभा में भी यहां की पांचों सीटों पर बीएसपी का ही कब्जा है।
श्रावस्ती सीट भी बीजेपी से दूर जाती दिख रही है। 2014 में बीजेपी का उम्मीदावर 35 फीसदी वोट पा कर यहां से जीता था, जबकि बीएसपी-एसपी के उम्मीदवारों का संयुक्त रूप से 64 प्रतिशत मत मिले थे। विधानसभा में भी अगर दोनों पार्टियां गठबंधन करतीं तो बीजेपी के लिए यहां खाता खोलना भी मुश्किल हो जाता। मछलीशहर का भी यही हाल था। 2014 में बीजेपी को 44 प्रतिशत वोट मिले थे। हालांकि उसके उम्मीदवार की जीत हुई थी, लेकिन बीएसपी-एसपी उम्मीदवारों के वोट प्रतिशत को मिला दिया जाए तो यहां वो 46 फीसदी हो जाता है जो बीजेपी से 2 फीसदी ज्यादा है। मतलब साफ है यहां भी बीजेपी के लिए रास्ता आसान नहीं है।
बात करें सुलतानपुर की तो पिछले चुनाव में बीजेपी के वरुण गांधी यहां से चुनाव जीते थे। उन्हें कुल 42.51 प्रतिशत वोट मिले थे। वहीं एसपी-बीएसपी के उम्मीदवारों का मत प्रतिशत 47 फीसदी था। हालांकि बीजेपी ने इस बार यहां से मेनका गांधी को उम्मीदवार बनाया है। लेकिन स्थिति कमोबेश पहले ही जैसा दिख रहा है। यहां भी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ सकता है।
2014 के चुनाव में फुलपुर लोकसभा सीट पर उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या जीते थे। उन्हें 52 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे। लेकिन उपचुनाव में बीजेपी को यहां से हार का सामना करना पड़ा था। बीजेपी को सिर्फ 38 फीसदी वोट मिले।
यही हाल इलाबादा का है। यहां बीजेपी सिर्फ 35 फीसदी वोट पा कर जीत गई थी। लेकिन तब बीएसपी और एसपी अलग अलग चुनावी मैदान में थे। इस बार दोनों साथ हैं। 2014 के चुनाव में मिले दोनों के उम्मीदवारों के वोट को जोड़ दें तो इन्हें 46 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे। हार का डर बीजेपी को भी है। पार्टी ने मौजूदा सांसद का टिकट काट दिया है। कांग्रेस छोड़ बीजेपी में गईं रीता बहुगुणा जोशी यहां से उम्मीदवार हैं।
डुमरियागंज में भी बीजेपी को सिर्फ 32 फीसदी ही वोट मिले थे। हालांकि बीजेपी का उम्मीदवार यहां से जीतने में कामयाब रहा था। लेकिन तब भी महागठबंधन का संयुक्त मत 40 प्रतिशत से ज्यादा था। बस्ती और संतकबीरनगर में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। लेकिन इस बार हालात बिल्कुल बदले हुए हैं। बाकी चरणों की तरह ही आखिर के दो चरण में भी बीजेपी के लिए राह आसान नहीं है। ओमप्रकाश राजभर के साथ छोड़ने से बीजेपी की हालात और पतली हो गई है। ऐसे में 2014 चुनाव के जीत को दोहराना बीजेपी के लिए असंभव सा लग रह है।
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