क्राइम रिपोर्टर // वसीम बारी (रामानुजगंज // टाइम्स ऑफ क्राइम)
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रामानुजगंज । कहा जाता है कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। सो तोगडिया और उनके जैसे लोग यह सोचते है कि जब मदरसा ही नही रहेगा, तो मुसलमान बच्चे नमाज रोजा और रमजान की तालीम कहां से सीखेंगे। मैं यह जुमला लिखते हुए यही सोच रहा हुं कि इस मुल्क में शब्दों के उलटफेर करके कैसी खूबसूरती के साथ मुसलमानों और उनकी संस्कृति को खत्म करने की कोशिश की जा रही है। टाइम्स आफ क्राइम के पिछले अंक में आपने पढा ‘‘जिला उर्दू इंचार्ज के दबंगई से मदरसा मुदर्रिस परेशान’’ अब आपके हाथों में है क्राइम रिपोर्टर के कलम से ‘‘मदरसों के खिलाफ साजिश का सच’’ (कुछ बोलीए मत वरना आपका मदरसा भी होगा निशाने पर) जी हाँ। ................ जिला उर्दू प्रभारी के हर अच्छे-बूरे कामों में बराबर का हिस्सेदार और स्वयं को छत्तीसगढ़ मदरसा बोर्ड के सचिव समझने वाला शाहिद खान मोबाइल फोन पर रामचन्द्रपुर निवासी जफीर आलम पर दबाव बनाते हुए कहता है कि ज्यादा मत बोलो वरणा आपका मदरसा भी होगा निशाने पर। जरा गौर फरमाइये, जफीर आज किसी परिचय का मोहताज नही है, अल्पसंखयक मोर्चे का जिला महामंत्री होने के साथ-साथ राजनैतिक क्षेत्र में महारत हासिल व अपने समाज में जबरदस्त पकड़ रखने वाला दानिशवर इंसान जफीर के साथ जब एैसा बेतुका बात शाहिद बोल सकता है तो आम मुदर्रिसों के साथ क्या-क्या बोलता होगा और कैसा सलुक करता होगा इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है। उर्दू प्रभारी व शिक्षक ट्रेनर के व्यवहार से एैसा प्रतित होता है कि छत्तीसगढ़ मदरसा बोर्ड इन्ही दोनो के ईशारे पर काम करती है। यहां पर बताना मुनाशिब होगा कि, कुडु-झारखण्ड का निवासी शाहिद खान जैसे-तैसे रामचन्द्रपुर क्षेत्र में शिक्षा कर्मी वर्ग-3 की नौकरी प्राप्त कर वर्तमान में ट्रेनर के पद पर पदस्थ है जिसका समस्त संबंधित दास्तावेज जांच का विसय है। उर्दू प्रभारी व शिक्षक ट्रेनर से त्रस्त आवाम और आर्थिक व मानसीक रूप से प्रताडित मुदर्रिसों की उम्मीदे अब जफीर से वाबस्ता हैं। मौजूदा वक्त में अन्ना हजारे बनकर जफीर भाई आगे बढो,आवाम आपके साथ है का नारा भी क्षेत्रो में लगने लगा है,‘‘टाइम्स आफ क्राइम’’ में प्रकाशित समाचार का असर है लोगो में नया जोश व हिम्मत देख कर यह कहना गलत नही होगा कि परिवर्तन निष्चित है क्योंकि संबंधित विभाग व स्थानीय जनप्रतिनिधिगण भी अब हरकत में आ गये हैं। इतिहास में कोई शब्द हरफे आखिर या अंतिम नही होता। इतिहास बनता रहता है और हालात के मुताबिक चीजें बदलती रहती है। उसी लेहाज से हमको भी देशकाल और अवस्था के साथ चलना पडता है। मसलन मुसलमानों में पांच वक्त यानी सुबह, दोपहर, तेपहर, शाम और रात को नमाज पढना फर्ज है। लेकिन नार्थ पोल और साउथ पोल में छह महीने दिन और छह महीने रात रहती है। अगर हम नार्थ पोल में हैं, सुबह की नमाज, जहाँ सुबह होती ही नही, कब पढेंगे ? ऐसे वक्त में इस्लाम का हुक्म है कि तुम अपने हिसाब से वक्त को बाँट लो। यह बहुत ही सही और साइंटिफिक तरीका है। जब मैं छोटा था तो एक शब्द ‘प्रोग्रेसिव’ के बारे में अक्सर सुना करता था। तब खुद को प्रोग्रेसिव बोलना एक फैशन बन गया था। दुनिया ने अपने आपको दो हिस्सो- प्रोग्रेसिव और कंजर्वेटिव में बांट लिया था। कहने का अर्थ यह है कि आज से 500 साल पहले हम बैलगाडी में चला करते थे, लेकिन आज हम ट्रेनो और हवाई जहाजो में सफर करते है। अच्छा से अच्छा खाना, - खाना चाहते हैं। ठीक उसी तरह आज कल एक शब्द ‘माडरेट’ निकला है। दलीलें दी जा रही है कि पढे-लिखे मुसलमानों को, जो अपने आपको माडरेट कहते है या कहलाना पसंद करते है, क्या करना चाहिए और क्या नही करना चाहिए। मगर कोई इस मुल्क के मुसलमानो से यह नही पुछता कि तुम क्या करते हो? क्या खाते हो? तुम्हारी आमदनी क्या है? क्या तुम्हारे बाल-बच्चे को ठीक से दो वक्त की रोटी मिलती है? मैं अपने आपको ‘माडरेट’ मुसलमान कहलाने वालों से यह पुछना चाहता हूं कि क्या उन्हे मालूम है कि 1 अरब लोगों के इस मुल्क में मुसलमानों को सरकारी दफ्तरों, पुलिस में या मिलिट्री में क्या एक परसेंट नौकरी भी मिलती है। मैं उन माडरेटों में नही हूं जो गरीब और कम पढे-लिखे मुसलमानों को कंजरवेटिव कहते है। मैं यह नही सोचता कि कोई फखरूददीन अली या नजमा हेपतुल्लाह, जो आजकल भाजपा में है, कैसे रहते है। बल्कि मैं यह कहूंगा कि आज मुल्क में हालात ऐसे बन गये हैं कि ऐसे हजारों फखरूददीन अली और नजमा हेपतुल्लाह और उनके बच्चों को फसादात में कत्ल कर दिया जाता है और उनके घरों को जला दिया जाता है। जो मुसलमान खुद को माडरेट कहलाकर अपने कद को थोडा ऊंचा उठाना चाहते हैं, तो मैं उनसे यही कहूंगा कि माडरेट बनने से पहले वे अपने गिरेबान में नजर डालें। वे इस बारे में सोचे कि मुसलमानों के पिछडेपन की वजह क्या है। पढा-लिखा मुसलमान मुस्लिम समाज को आगे लाने में क्या रोल अदा कर रहा है। खेद की बात है कि मुसलमानों को कंजरवेटिव कहने की एक हवा-सी चल गयी है। असल में यह लाइन संघ परिवार और प्रवीण तोगडिया जैसों की है। अभी हाल में दो साल पूर्व तोगडिया साहब ने कहा था कि इस मुल्क में तमाम मदरसों और दरगाहों को बंद कर देना चाहिए क्योकि यहां आतंकवादी फलते-फूलते हैं।
हिन्दुत्व कट्टर समर्थक तोगडिय़ा साहब के मूंह से यह बात कुछ ठीक लग रही है लेकिन शैक्ष.जि.रा.गंज में शासन द्वारा अधिकृत समाज के जिम्मेदार पद पर पदस्त हो कर उर्दू प्रभारी यह बोले कि जिसको जहां जाना है जाये, हमारा कुछ नही बिगड़ेगा, होगा वही जो हम चाहेंगे, जो पहले पैसा देगा सिर्फ उसी का काम होगा, वरना मदरसा बंद, बकौल उर्दू प्रभारी, के नीचे से लेकर उपर तक सभी पैसा मांगते हैं। मैं पुछना चाहूंगा प्रभारी महोदय से कि क्या छत्तीसगढ ़मदरसा बोर्ड में बैठे सचिव व अध्यक्ष पैसा मांगते है? या जिला शिक्षा अधिकारी द्वारा पैसा मांगा जाता है? या मंत्रीमंडल में बैठे मंत्री महोदय द्वारा पैसा मांगा जाता हैक्या छत्तीसगढ़ शासन को यह नहीं मालुम कि झारखण्ड़ सीमा से सटा शैक्ष.जि.रा.गंज क्षेत्र कितना पिछडा क्षेत्र है? क्षेत्रवासियों को तो दो वक्त की रोटी ठीक से नसीब नही होती तो मदरसा चलाने हेतु पहले दस-बीस हजार रूपया कहां से देंगे? दूसरी तरफ जुम्मा-जुम्मा आठ दिन हुए, शिक्षक ट्रेनर कहता है कि ज्यादा मत बोलो वरना आपका मदरसा भी होगा निशाने पर। तोगडिया साहब के नक्शे कदम पर चलते हुए प्रभारी महोदय व शिक्षक ट्रेनर ऐसा कह कर वह दुनिया के आंखो में धूल डाल रहे हैं। वह जानते हैं कि बच्चा अपनी माँ से ही माँ कहना सीखता है। ठीक उसी तरह जब कोई बच्चा मुसलमान के घर में पैदा होता है, तो उसके कान में अजान दी जाती है। मदरसे में ही वह मजहबे इस्लाम का नाम सीखता है। कहा जाता है कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। सो तोगडिया और उनके जैसे लोग यह सोचते हैं कि जब मदरसा ही नही रहेगा, तो मुसलमान बच्चे रोजा और रमजान की तालीम कहां से सीखेंगे। जैसे उर्दू प्रभारी को उर्दू का ज्ञान बिल्कुल नही है सिर्फ नाम पर उनको प्रभारी बना दिया गया है। ऐसे लोग उर्दू के दर्द को क्या समझेंगे। प्रभारी महोदय मुसलमानों की बिगड़ी हुई हालात पर लम्बीं-चौडी भाषण देना आजकल फैशन बन चुका है जो आप भी लेक्चर देते है। मैं यह जुमला लिखते हुए यही सोच रहा हुं कि इस मुल्क में शब्दों की उलटफेर करके कैसी खूबसूरती के साथ मुसलमानों और उनकी संस्कृति को खत्म करने की कोशिश की जा रही है। फारसी में एक कहावत है जिसका अर्थ है कि ‘हम खूब समझते हैं कि हमें किस तरह बदलने की कोशिश की जा रही है। और जो यह पारसा कह रहा है कि वह कितना पवित्र है और उसकी मंशा क्या है। मुस्लिम समाज खूब समझ रहा है कि प्रभारी महोदय व शिक्षक ट्रेनर का मंशा क्या है। आखिर में वे लोग जो मदरसा बंद कराना चाहते हैं या शासन का योजना का लाभ दिखाकर पहले रूपया का डिमांड कर रहे हैं पहले मुसलमानों के घर की खबर लीजिये और देखिये कि उनके बच्चों को तीन वक्त की रोटी मिलती भी है या नही।
हिन्दुत्व कट्टर समर्थक तोगडिय़ा साहब के मूंह से यह बात कुछ ठीक लग रही है लेकिन शैक्ष.जि.रा.गंज में शासन द्वारा अधिकृत समाज के जिम्मेदार पद पर पदस्त हो कर उर्दू प्रभारी यह बोले कि जिसको जहां जाना है जाये, हमारा कुछ नही बिगड़ेगा, होगा वही जो हम चाहेंगे, जो पहले पैसा देगा सिर्फ उसी का काम होगा, वरना मदरसा बंद, बकौल उर्दू प्रभारी, के नीचे से लेकर उपर तक सभी पैसा मांगते हैं। मैं पुछना चाहूंगा प्रभारी महोदय से कि क्या छत्तीसगढ ़मदरसा बोर्ड में बैठे सचिव व अध्यक्ष पैसा मांगते है? या जिला शिक्षा अधिकारी द्वारा पैसा मांगा जाता है? या मंत्रीमंडल में बैठे मंत्री महोदय द्वारा पैसा मांगा जाता हैक्या छत्तीसगढ़ शासन को यह नहीं मालुम कि झारखण्ड़ सीमा से सटा शैक्ष.जि.रा.गंज क्षेत्र कितना पिछडा क्षेत्र है? क्षेत्रवासियों को तो दो वक्त की रोटी ठीक से नसीब नही होती तो मदरसा चलाने हेतु पहले दस-बीस हजार रूपया कहां से देंगे? दूसरी तरफ जुम्मा-जुम्मा आठ दिन हुए, शिक्षक ट्रेनर कहता है कि ज्यादा मत बोलो वरना आपका मदरसा भी होगा निशाने पर। तोगडिया साहब के नक्शे कदम पर चलते हुए प्रभारी महोदय व शिक्षक ट्रेनर ऐसा कह कर वह दुनिया के आंखो में धूल डाल रहे हैं। वह जानते हैं कि बच्चा अपनी माँ से ही माँ कहना सीखता है। ठीक उसी तरह जब कोई बच्चा मुसलमान के घर में पैदा होता है, तो उसके कान में अजान दी जाती है। मदरसे में ही वह मजहबे इस्लाम का नाम सीखता है। कहा जाता है कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। सो तोगडिया और उनके जैसे लोग यह सोचते हैं कि जब मदरसा ही नही रहेगा, तो मुसलमान बच्चे रोजा और रमजान की तालीम कहां से सीखेंगे। जैसे उर्दू प्रभारी को उर्दू का ज्ञान बिल्कुल नही है सिर्फ नाम पर उनको प्रभारी बना दिया गया है। ऐसे लोग उर्दू के दर्द को क्या समझेंगे। प्रभारी महोदय मुसलमानों की बिगड़ी हुई हालात पर लम्बीं-चौडी भाषण देना आजकल फैशन बन चुका है जो आप भी लेक्चर देते है। मैं यह जुमला लिखते हुए यही सोच रहा हुं कि इस मुल्क में शब्दों की उलटफेर करके कैसी खूबसूरती के साथ मुसलमानों और उनकी संस्कृति को खत्म करने की कोशिश की जा रही है। फारसी में एक कहावत है जिसका अर्थ है कि ‘हम खूब समझते हैं कि हमें किस तरह बदलने की कोशिश की जा रही है। और जो यह पारसा कह रहा है कि वह कितना पवित्र है और उसकी मंशा क्या है। मुस्लिम समाज खूब समझ रहा है कि प्रभारी महोदय व शिक्षक ट्रेनर का मंशा क्या है। आखिर में वे लोग जो मदरसा बंद कराना चाहते हैं या शासन का योजना का लाभ दिखाकर पहले रूपया का डिमांड कर रहे हैं पहले मुसलमानों के घर की खबर लीजिये और देखिये कि उनके बच्चों को तीन वक्त की रोटी मिलती भी है या नही।
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