बैतूल // राम किशोर पंवार (टाइम्स ऑफ क्राइम)
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सार्वजनिक वितरण प्रणाली का कड़वा सच
बैतूल। जबसे सरकारी दुकानो पर एपीएल और बीपीएल की आड़ में राशन वितरण प्रणाली शुरू की गई है अमीर बीपीएल कार्ड धारक और गरीब एपीएल कार्ड धारक बन गया है। गरीबों को अमीर बता कर उनके हिस्से का राशन आखिर जाता कहां है इस सवाल का उस ग्राम पंचायत के सरपंच और सचिव के पास कोई जवाब नहीं है लेकिन गांव की सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सेल्समेन कहता है कि हम क्या करे सर्वे में के आधार पर बने राशन कार्डो के हिसाब से राशन देना हमारी मजबुरी है। बैतूल जिले की घोड़ाडोंगरी जनपद की ग्राम पंचायत पचामा पूरी दुनिया में एक मात्र ऐसी ग्राम पंचायत होगी जहां पर टाटा - बिरला - अम्बानी से कम अधिक आय वाले आदिवासी - दलित और पिछड़े वर्ग के लोग रहते है। पूरी ग्राम पंचायत की आबादी सरकारी रिकार्ड में मात्र 18 सौ के लगभग है। इस ग्राम पंचायत में पचामा, पलासपानी, घुडक़ी गांव आते है जिनकी उक्त 18 सौ की जनसंख्या में मात्र पांच लोग ही बीपीएल कार्ड धारक है। पहले छै बीपीएल कार्ड धारक थे लेकिन एक व्यक्ति का कार्ड गुम हो जाने के बाद उसने दुसरा नहीं बनाया। पांच साल पहले शिक्षको के भरोसे करवाए गए सर्वे में ग्राम पंचायत के अधिनस्थ गांवो में मात्र छै बीपीएल कार्डधारक है। एक व्यक्ति को पीला कार्ड धारक बनाया है तथा शेष &84 लोगो को एपीएल का कार्ड धारक बनाया है।गांव के लोगों के पास जीविका पार्जन का कोई आधार नहीं है। पूरा गांव दुसरो के घरो एवं खेतो मे तथा अन्य जगहो पर काम करता है लेकिन पिछले पांच सालों से एपीएल और बीपीएल के चक्कर में पूरा गांव अजूबा बना हुआ है। बैतूल जिला मुख्यालय पर टीवी फ्रीज और वाशिंग मशीन वाले बीपीएल कार्ड धारक है लेकिन उस गांव में लंगोट पहनने वाला गरीब मजदूर आदिवासी -दलित एपीएल कार्ड धारक बना हुआ है। सरकारी सर्वे के सच के बाद गांव की पीड़ा से रूबरू हुई यूएफटी न्यूज की टीम को जो चौकान्ने वाले तथ्य सामने आए वह भी सर पीटने वाले है। पूरे ग्राम पंचायत की आबादी को शक्कर के नाम पर साल भर में मात्र 50 किलो शक्कर मिलती है जो बीपीएल कार्ड धारक को प्रति माह 1 किलो 7 सौ ग्राम मिलती है। गांव में कुल &90 कार्ड धारक है। गांव के लिए को साल भर में मात्र दो सौ किलो चावल तथा साढ़े चार सौ किलो गेहूं बीपीएल कार्ड धारक को मिलता है। एक साल में छै लोगों को सरकार जो राशन देती है वह उस कहावत को भी झुठलाने के लिए काफी है कि ऊंट के मुंह में जीरा का उदाहरण देती है। जब इस बारे में गांव के सरपंच तुलसीदास वरकड़े से जानकारी चाही गई तो पता चला कि सरपंच साहब गांव में नहीं है।
गांव के सरपंच के घर में चल रही राशन की दुकान को चलाने वाला सेल्समेन सुभाष मालवीय का दुखड़ा भी कुछ कम नहीं है। उसके पास की शिकायत और निरीक्षण पुस्तिका में वर्ष 2009 से आज तक किसी ने टीप तक नहीं लिखी है। गांव में एपीएल के गेंहू के सडऩे की बात को कबूल करने वाले सेल्समेन सुभाष मालवीय का कहना है कि गांव के गरीब लोग कल तक सात रूपए किलो बिकने वाले गेहूं को अब एक जून से बढ़ी दर नौ रूपए प्रति किलो के हिसाब से खरीदने को तैयार नहीं है। आज एपीएल का नौ रूपए प्रति किलो गेहूं भरी बरसात में सरपंच के किराये के मकान में पड़े - पड़े सडऩे जा रहा है। गांव में उक्त गेहूं की खरीदी न होने से गेहूं का उठाव भी नहीं हो पा रहा है। गांव में हजार से आठ सौ लीटर मिटट्ी का तेल तो बकायदा आ रहा है लेकिन मिटट्ी का तेल का भी मूल्य बढ़ जाने से गांव के लोग अपने दिया को भगवान भरोसे जलाने को मजबुर है।
गांव के सचिव मधुसुदन नामदेव के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि उसके गांव के लोग आज तक एपीएल कार्ड धारक कैसे बने हुए है जबकि उनके पास खाने के लिए दो वक्त की रोटी तक के लाले पड़ जाते है यदि वे किसी के घर पर काम पर यदि न जाए तो.....ग्राम पंचायत पचामा में अीते पांच वर्षो में करोड़ो रूपए के काम करवाए गए लेकिन गांव के जाब कार्ड धारको को काम के बदले दाम तो मिलना दूर उन्हे अनाज भी नहीं मिल पा रहा है। ग्राम पंचायत में इस समय चार सौ जाब कार्डधारक है जिन्हे साल भर में सौ रूपए की मजदूरी मिलना है लेकिन सौ रूपए साल भर में सरकारी रिकार्ड पर कमाने वाले इस गांव के लोगो के बीच मात्र एक ही व्यक्ति का परिवार अति गरीब की श्रेणी में आता है। गांव के कड़वे सच का ठीकरा अब गांव के सचिव और सरपंच सर्वे करवाने वाले मास्टर पर थोप कर अपनी जवाबदेही से बचना चाह रहे है। नेशनल हाइवे से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम पंचायत पचामा के बारे में कहा जाता है कि घोड़ाडोंगरी विधानसभा एवं जनपद का यह गांव आज भी विकास की डगर से कोसो दूर है। गांव के लोगो का मुख्य धंधा मजदूरी है।
गांव के लोग हर साल काम की तलाश में पलायन कर जाते है। गांव के लोगो को अब नए सर्वे का इंतजार है लेकिन सरपंच - सचिव कहते है कि सर्वे में नए नाम नहीं जुड़ पाएगें। पूरी 18 सौ की जनसंख्या सरकारी सर्वे की कथित खानापूर्ति का खामियाजा भुगत रही है। तीन गांवों को सरकारी राशन की दुकान सेल्समेन मजे से अपनी बनियान पर सरपंच के घर खाट पर लेटा राशन लेने आने वालो का इंतजार करता है और लोग राशन नहीं लेने आते है। कारण पुछने पर वह बताता है कि कोई बोनी करने गया है तो कोई निंदाई करने गया है। गांव वाले भी सेल्समेन की मोटर साइकिल को देख कर अंदाजा लगाते है कि आज दुकान खुलेगी या नहीं।
गांव के लोगो को यह तक नहीं पता कि गांव में कितना राशन कब और किस आता है। गांव की त्रासदी यह है कि पूरे गांव में पुरूष और महिलाए काम की तलाश में निकल जाते है। गांव में बच जाते है ब‘चे और बुढ़े लोग जिन्हे कुछ भी पता नहीं। सबसे मजेदार बात तो यह है कि गांव के स्कूल के मास्टर तक को पता नहीं कि ग्राम पंचायत की जनसंख्या कितनी है। तीन - चार मास्टर मिल कर अंदाज लगा कर बताते है कि 18 सौ 19 सौ के लगभग होगी। सवाल यह उठता है कि क्या सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत विभिन्न सहकारी समितियों द्वारा संचालित की जाने वाले राशन की दुकानो की स्थिति को क्या किसी ने भी शासन को अवगत कराने का प्रयास किया था।
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