अन्ना पर अंगुली उठाना यानी ईमानदारी के सूरज के सामने जाकर खड़े हो जाने के बराबर है. जो जायेगा, भस्म हो जाएगा. लेकिन क्या यह सूरज इतना बेदाग है कि इसकी पवित्रता पर पूरी तरह से विश्वास कर लिया जाए? या फिर अंगुली उठाकर भस्म होने की तैयारी कर ली जाए? निजी तौर पर अन्ना हजारे ईमानदार हैं इसमें किसी को कोई शक नहीं होगा लेकिन क्या उनके द्वारा शुरू किये गये अभियान भी उतने ही ईमानदार और पारदर्शी हैं?
शायद नहीं. पहले भी उनके ट्रस्ट सवालों के घेरे में आते रहे हैं और अब अमेरिकी राजनयिक द्वारा अन्ना के समर्थन में बयान देने से साफ हो गया है कि अन्ना हजारे का आंदोलन आखिरकार किसे फायदा पहुंचा रहा है?
दुनिया के मानचित्र पर एक देश है अमेरिका. वैसे तो यह महज देशभर है लेकिन यह अपने आपमें एक विश्व है. दुनिया की सभी शीर्ष संस्थाएं इसके प्रभाव में काम करती हैं और दुनिया के लगभग हर देश पर इसका किसी न किसी रूप में प्रभाव है. दुनिया के देशों को प्रभावित करने के लिए अमेरिका तरह तरह के हथकंडे अख्तियार करता है. कभी वह सीधे राजनीतिक दलों का इस्तेमाल करके अपना काम करता है तो कभी वहां काम करनेवाली संस्थाएं गैर राजनीतिक समूहों के जरिए अमेरिका का हित साधती हैं. देश की कंपनियों का आखिरी उद्येश्य अमेरिका हो जाना ही होता है इसलिए उनका अमेरिकीकरण करने के लिए अमेरिका को कुछ खास नहीं करना होता है.
अन्ना हजारे ने आज से करीब एक साल पहले देश में एक ऐसे आंदोलन का साथ दिया जो कोई लोकपाल वगैरह के लिए चल रहा था. जो लोग आंदोलन चला रहे थे उन्हें एक चेहरे की तलाश थी और चेहरे की तलाश में भटकते हुए वे अन्ना हजारे तक पहुंच गये. बात बीते नवंबर की है जब भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम शुरू करने की वकालत की गई. इसकी शुरूआत जंतर मंतर से हुई और इसके पीछे मुख्य रूप से अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया नामक दो व्यक्ति थे. अरविन्द केजरीवाल सरकारी सेवा से रिटायर हुए हैं और मनीष सिसौदिया पत्रकारिता छोड़कर आंदोलन करने आये हैं. इन दोनों का दिल्ली के पांडव नगर में दफ्तर है और विवाद हो जाने के बाद दोनों अलग अलग संस्थाएं बनाकर आंदोलन कर रहे हैं.
लोकपाल के लिए जिस आंदोलन की रूपरेखा तैयार की गयी उसमें मुख्य भूमिका में मनीष सिसौदिया और अरविन्द केजरीवाल ही हैं. इन्हीं दोनों ने इस आंदोलन की रुपरेखा तैयार की और लोगों को जौड़ने का काम किया. योजना बहुत साफ थी कि केवल गैर राजनीतिक लोगों को ही इसमें जोड़ा जाएगा. इसलिए सामाजिक पृष्ठभूमि वाले लोगों में अन्ना हजारे को जोड़ा गया तो धार्मिक पृष्ठभूमि के बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर को जोड़ा गया था. लेकिन धीरे धीरे ये धर्मगुरू अलग होते गये क्योंकि जिस जनता को आकर्षित करने के लिए इन्हें जोड़ा गया था वह अपने आप आकर्षित हो चली थी. काम बन चुका था. लेकिन यह काम किसके लिए बन रहा था? आखिर क्या कारण है कि अन्ना हजारे और उनका आंदोलन भ्रष्टाचार के नाम पर एक ऐसे लोकपाल की वकालत कर रहे हैं जो देश का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी होगा? प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश भी जिसकी जद में होंगे. और उसका चुनाव कुछ ऐसे लोग करेंगे जिनकी योग्यता सिर्फ यह होगी उन्हें मैगसेसे पुरस्कार मिला होगा? सवा अरब की आबादीवाले देश के जनप्रतिनिधियों को एक लोकपाल के दायरे में ला देने की वकालत का असली राज क्या है?
षण्यंत्र बड़ा है. अभी जो हो रहा है वह सिर्फ शुरूआत है. लोकपाल आखिरी लक्ष्य नहीं है बल्कि शुरूआती कदम है. खुद अन्ना के आंदोलन से बेहद करीब से जुड़े लोग बताते हैं कि आंदोलन का आखिरी लक्ष्य भारतीय संसद के ऊपर एक समिति बैठाना है जो संसद के समस्त विधायी अधिकारों पर निगरानी रखेगी. यानी इरादा पारदर्शिता के नाम पर भारतीय संसद को गिरवी रखने का है. यह समिति संसद को उसके असीमित अधिकार से वंचित कर देगी ताकि संसद संविधान में मनमाने संशोधन न कर सके. ऐसे किसी भी कानून को यह समिति ही आखिरी मंजूरी देगी तभी वह मान्य होगा अन्यथा टकराव की अवस्था में जनमत संग्रह कराना होगा.
सुनने में भले ही ये बातें अविश्वसनीय लगें लेकिन अमेरिकी राजनयिक द्वारा अन्ना हजारे के आंदोलन के समर्थन में दिये गये बयान से इस आंदोलन के लिए धक्का साबित होगा। अमेरिका ने यह बयान क्या भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करने के लिए दिया है? ऐसा नहीं है. अन्ना हजारे के आंदोलन के पीछे जो मनीष सिसौदिया काम कर रहे हैं उनकी एक संस्था है कबीर. कबीर संस्था को साल 2011 के लिए अमेरिका की बदनाम फण्डिंग संस्था फोर्ड फाउन्डेशन से दो लाख डॉलर अनुदान मिला है. यानी करीब नब्बे लाख रूपये. यह अनुदान उनकी संस्था को "प्रमोटिंग ट्रांसपेरेन्ट एण्ड एकाउण्टबल गवर्नमेन्ट" के खाते में दिया गया है. कोई भी सरकार कैसे पारदर्शी और जवाबदेह होगी? उसके लिए जो अभियान चलेगा, उसे चलाए रखने के लिए यह आंदोलन चलाया जा रहा है.
साभार - विस्फोट डोट कॉम
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