चिंतन- गिरीश सक्सेना जिला आगर मालवा
Present by - toc news
भारत एक लोकतान्त्रिक देश हे अर्थात एक ऐसा देश जिसमे वही होता हे जिसे ज्यादातर लोग करना चाहेे, यहाँ वहीँ सत्य हे जिसे ज्यादातर लोग सत्य कहे ।
आपको लग रहा होगा में लोकतंत्र का विरोध कर रहा हूँ पर ऐसा नहीं हे । पर यह भी सत्य हे कि हर व्यवस्था के कुछ नकारात्म पहलू होते हे उसी तरह लोकतंत्र का भी उपरोक्त एक नकारात्मक पहलू हे ।
लोकतंत्र से वहां तो देश मजबूत हो सकता हे जहाँ के देशवासी जिनमे राजनेता भी हे अपने परिवार, समाज से भी ऊपर देश हित को रखते हो पर जब देश हित से ऊपर परिवार और समाज हो जाए तो फिर यही लोकतंत्र देश के लिए नासूर बन सकता हे ।
बड़े दुःख की बात हे कि अभी कुछ वर्षो से हमारे देश में भी कुछ ऐसे घटनाक्रम सामने आ रहे हे जहाँ राजनेताओ और नागरिको ने देश हित की सोच को तिलांजलि देते हुए अपनी हित साधना को ही सर्वोपरि रखा हे । शायद वे सोच रहे हे कि जब देश के अस्तित्व पर संकट आएगा तभी देशभक्ति कर लेंगे ।
अब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को ही ले लीजिए जिस समय यह प्रदेश अजाक्स और अपाक्स के संघर्ष में उलझा हुआ हे और न्यायालय अपना कार्य कर रहा हे वहां ऐसे जिम्मेदार पद पर बेठे व्यक्ति द्वारा एक वर्ग को खुश करने के लिए ऐसे बयान देना जिससे उस वर्ग विशेष के मन में न्यायालय का सम्मान ही समाप्त हो जाए या दूसरे शब्दों में कहा जाए की एक वर्ग विशेष में इस प्रकार का आक्रोश भरना की यदि तुम्हारे पक्ष में हो तो सब सही और तुम्हारे पक्ष में ना हो तो सब गलत और आप चिंता ना करे में और मेरी सरकार सबसे ऊपर हे कहाँ तक उचित हे ।
हमारे लोकतंत्र में एक मात्र न्यायालय ही हे जो वास्तविक सत्य और असत्य के मध्य भेद करता हे उसे उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि सत्य को कहने वाले कितने हे और असत्य को कहने वाले कितने ।
जैसा की हम सभी जानते हे की मानव मन लालची होता हे और इसलिए ही उसे कितना भी मिल जाए वह कम लगता हे और इसी कारण वह अधिक और अधिक की चाहत में दोडता रहता हे तथा अपने इसी स्वार्थ की पूर्ती हेतू हजारो तर्क वितरकों से इस प्रकार लेस रहता हे मानो मुँह में शब्द नहीं मशीनगन लगा राखी हो ।
यही कारण हे की जब तक परिवार में पिता,माता अथवा बुजुर्ग की मर्यादा का बंधन होता हे परिवार संगठित रहता हे और उनकी मर्यादा के भंग होते ही अक्सर परिवार बिखर जाता हे ।
इसी प्रकार हमारे देश के लोकतंत्र में सर्वोच्च न्यायालय या उसके अधीनस्थ न्यायलय माता, पिता और दादा के समान हे । यदि हमने उनकी मर्यादा भंग की तो फिर तय मानिये से स्वार्थी मन इस देश की कीमत पर भी सिर्फ
अपना हित साधेगा ।
इसलिए हमें प्रण लेना होगा की चाहे कुछ भी हो जाए हम न्यायलय की मर्यादा को कभी भंग नहीं होने देगे क्योकि हमारे देश के लिए यही सही हे और इसलिए ही न्यायलय को कानूनों की समीक्षा का भी अधिकार दिया गया हे क्योकि यही एक संस्था हे जो निःस्वार्थ भाव से सत्य को सत्य और गलत को गलत कह सकती हे वरना जनप्रतिनिधियो की मजबूरियो और उनके स्वार्थ से तो हम सब अच्छे से वाकिफ हे ही ।
आप क्या सोचते हे ?
प्रणाम 🙏
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भारत एक लोकतान्त्रिक देश हे अर्थात एक ऐसा देश जिसमे वही होता हे जिसे ज्यादातर लोग करना चाहेे, यहाँ वहीँ सत्य हे जिसे ज्यादातर लोग सत्य कहे ।
आपको लग रहा होगा में लोकतंत्र का विरोध कर रहा हूँ पर ऐसा नहीं हे । पर यह भी सत्य हे कि हर व्यवस्था के कुछ नकारात्म पहलू होते हे उसी तरह लोकतंत्र का भी उपरोक्त एक नकारात्मक पहलू हे ।
लोकतंत्र से वहां तो देश मजबूत हो सकता हे जहाँ के देशवासी जिनमे राजनेता भी हे अपने परिवार, समाज से भी ऊपर देश हित को रखते हो पर जब देश हित से ऊपर परिवार और समाज हो जाए तो फिर यही लोकतंत्र देश के लिए नासूर बन सकता हे ।
बड़े दुःख की बात हे कि अभी कुछ वर्षो से हमारे देश में भी कुछ ऐसे घटनाक्रम सामने आ रहे हे जहाँ राजनेताओ और नागरिको ने देश हित की सोच को तिलांजलि देते हुए अपनी हित साधना को ही सर्वोपरि रखा हे । शायद वे सोच रहे हे कि जब देश के अस्तित्व पर संकट आएगा तभी देशभक्ति कर लेंगे ।
अब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को ही ले लीजिए जिस समय यह प्रदेश अजाक्स और अपाक्स के संघर्ष में उलझा हुआ हे और न्यायालय अपना कार्य कर रहा हे वहां ऐसे जिम्मेदार पद पर बेठे व्यक्ति द्वारा एक वर्ग को खुश करने के लिए ऐसे बयान देना जिससे उस वर्ग विशेष के मन में न्यायालय का सम्मान ही समाप्त हो जाए या दूसरे शब्दों में कहा जाए की एक वर्ग विशेष में इस प्रकार का आक्रोश भरना की यदि तुम्हारे पक्ष में हो तो सब सही और तुम्हारे पक्ष में ना हो तो सब गलत और आप चिंता ना करे में और मेरी सरकार सबसे ऊपर हे कहाँ तक उचित हे ।
हमारे लोकतंत्र में एक मात्र न्यायालय ही हे जो वास्तविक सत्य और असत्य के मध्य भेद करता हे उसे उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि सत्य को कहने वाले कितने हे और असत्य को कहने वाले कितने ।
जैसा की हम सभी जानते हे की मानव मन लालची होता हे और इसलिए ही उसे कितना भी मिल जाए वह कम लगता हे और इसी कारण वह अधिक और अधिक की चाहत में दोडता रहता हे तथा अपने इसी स्वार्थ की पूर्ती हेतू हजारो तर्क वितरकों से इस प्रकार लेस रहता हे मानो मुँह में शब्द नहीं मशीनगन लगा राखी हो ।
यही कारण हे की जब तक परिवार में पिता,माता अथवा बुजुर्ग की मर्यादा का बंधन होता हे परिवार संगठित रहता हे और उनकी मर्यादा के भंग होते ही अक्सर परिवार बिखर जाता हे ।
इसी प्रकार हमारे देश के लोकतंत्र में सर्वोच्च न्यायालय या उसके अधीनस्थ न्यायलय माता, पिता और दादा के समान हे । यदि हमने उनकी मर्यादा भंग की तो फिर तय मानिये से स्वार्थी मन इस देश की कीमत पर भी सिर्फ
अपना हित साधेगा ।
इसलिए हमें प्रण लेना होगा की चाहे कुछ भी हो जाए हम न्यायलय की मर्यादा को कभी भंग नहीं होने देगे क्योकि हमारे देश के लिए यही सही हे और इसलिए ही न्यायलय को कानूनों की समीक्षा का भी अधिकार दिया गया हे क्योकि यही एक संस्था हे जो निःस्वार्थ भाव से सत्य को सत्य और गलत को गलत कह सकती हे वरना जनप्रतिनिधियो की मजबूरियो और उनके स्वार्थ से तो हम सब अच्छे से वाकिफ हे ही ।
आप क्या सोचते हे ?
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