अवैध खनन से जुडा़ मामला मध्य प्रदेश के कटनी का भी है, जहां सालों से संगमरमर का अवैध खनन हो रहा था। जहां जिला प्रशासन की संदिग्ध भूमिका के चलते पिछले पांच सालों से सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की लगातार अवमानना होती आ रही है। हैरानी है कि इसके बावजूद कटनी के निमास गांव में न केवल मारबल माफिया सक्रिय हैं बल्कि इन्होंने आईएएस अफसरों को भी साथ ले रखा है, जो मार्बल माफियाओ को फायदा पहुंचाने का काम करते रहे हैं। कटनी के मार्बल माफियाओं पर डायलाग इंडिया के ब्यूरो चीफ कमलेश तिवारी की रिपोर्ट-
देश की बुनियाद व्यवस्था का आधार कहे जाने वाले भारतीय प्रशासनिक सेवा में पदस्थ आई.ए. एस. अफसर आज अकूत धन संग्रह के फेर में कितने पक्ष-भ्रष्ट हो चुके हैं। इसका औसत अनुमान तथाकथित अति-ईमानदार कहे जाने वाले आई.ए.एस. जोशी- दम्पत्ति द्वारा किये गये धन का संग्रह के मिजाज से सहज ही लगाया जा सकता है।आश्चर्य होता है कि ,एक हद तक इनके हाथों में सामाजिक न्याय प्रबंधन के व्यवस्था की, संवेदनशील जिम्मेदारी भी होती है। इसीलिए किसी जिले में इनकी पदस्थापना के साथ इन्हें डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के नाम से भी संबोधित किया जाता है। ऐसे गरिमापूर्ण पद पर आसीन शख्स जब अपने ही लोकतंत्र की आस्तीन का सांप बन जाए तो, देश के आम नागरिकों और उनसे बने समाज तथा देश का क्या होगा? यह एक विचारणीय प्रश्न है ?
मध्यप्रदेश के कटनी जिले में मार्बल माफियाओं से जुड़ा एक ऐसा, ही मामला प्रकाश में आया है जहां जिला प्रशासन की अफसरशाही की सरपरस्ती में विगत लगभग पांच वर्षो से माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की निरंतर अवमानना होती आ रही है।
भारतीय लोकतंत्र में यदि ऐसे निरंकुश आई.ए.एस. हाकिमों और ऐसे मर्यादाहीन सामंतों का जहां गठजोड़ हो जाता है तो फिर वहां कुछ भी होना संभव है। जाहिर हैं कि वहां '' जिसकी लाठी उसकी भैंस '' जैसी उक्ति का सूत्र कारगार हो जाता है। इस हकीकत का ब्यौरा भी कुछ इसी तरह है।
कटनी जिला के मार्बल जोन में स्थित गांव निमास के ख-न- 220 के रकवा 29-31 हेक्टेयर में 1-96 हेक्टेयर छोड़कर मार्बल उत्खनन हेतु कुछ लीजें लीज धारकों के आवेदन पर शासन द्वारा 2005 में स्वीकृत की गई थी। जिनके विरूद्ध सामाजिक संस्था एकता परिषद् के जगत बहादुर सिंह द्वारा देश के सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गई थी जिसकी सुनवाई पश्चात् अंतिम निर्णय तक की अवधि के लिये माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विगत दिनांक 16-09-2005 को संबंधित भू-क्षेत्र के उत्खनन कार्य पर पूर्ण रोक का आदेश जारी किया गया था। माननीय सर्चोच्च न्यायालय के उक्त आदेश की प्रमाणित प्रतियों की छाया प्रतिंया भेजकर याचिकाकर्ता ने स्वत: संबंधित सभी विभागों को आगाह भी कर दिया था ताकि, किसी भी स्तर पर किसी तरह- माननीय न्यायालय की गरिमा भंग न हो सके। बावजूद इसके रसूखदार मार्बल उद्योगपतियों ने हार नही मानी और जिले के आला अफसरों से गठजोड़ का सिलसिला शुरू कर दिया।
इस गठजोड़ से जोड़-तोड़ बिठाया और रास्ता भी खोज निकाला। सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रतिबंधित भू-क्षेत्र में धड़ल्ले से उत्खन्न किया जाता रहा और इसे बाजार में बेचा जाता रहा।
इसकी शिकायत भी कई बार प्रदेश शासन के मंत्रियों तथा सचिवों के साथ माननीय उच्चतम न्यायालय तक भी पहुचाई गई किन्तु, हाकिमों और सामंतों की संयुक्त पैतरेबाजी, माननीय न्यायालय को निरंतर गुमराह करती रही। सन 2010 में हुई शिकायतों के बाद से यह प्रकरण समाचारों की सुर्खियां बनने लगा। ऐसी दशा में अब यह मामला अपनी मूल विषय वस्तु से भटककर सीमांकन के सत्यापन जैसे विवाद का विषय बन गया है।
कटनी जिलें के मार्बल जोन में अनेक विसंगतियों के लिये बहुचर्चित एक गांव हैं निमास। जिसके भू-गर्भ में बेशकीमती अकूल खनिज सम्पदा का भण्डारण सफेद सोना यानि मार्बल के रूप में दबा पड़ा है। यही कारण है कि देश भर के मार्बल माफियाओं में इस क्षेत्र को हथियाने की प्रतिस्पर्धा चलती रही और इसी स्वार्थ के चलते यहां के मार्बल माफियाओं ने राज्य सरकार से लेकर केन्द्र तक के संबंधित लगभग सभी महकमों की कार्य शैली को कुछ इस तरह पंगु कर दिया कि, आज उनकी सारी कार्य प्रणाली '' बूझो तो जाने” जैसी पहेली बन कर रह गई है।
ग्राम '' निमास ” तहसील बहोरीबंद जिला कटनी मध्यप्रदेश के खसरा नं- 220 की भूमि रकवा 29-31 हेक्टेयर यानी-73 एकड़ लगभग दस्तावेजों में दर्ज है। इसी खसरा नंबर में दर्ज भूमि के नाम जोख में हुई हेरा-फेरी के चलते, विगत वर्ष 2005 से सरकारी महकमों के आला अफसर बड़े और अपच भ्रष्ट्राचार के लिये जितने बदनाम हुए है अब उतना ही यह भू-क्षेत्र उनके गले की फांस बनता नजर आने लगा है। इसके कारणों में कई तरह की बातें कही-बताई जा रही है इस भू-भाग का विवाद आज भी अनसुलझा और संदेहों की परिधि में बना हुआ है।
प्रथम तो यह कि इस भू-क्षेत्र निमास के खसरा नं- 220 तथा इसके इर्द-गिर्द के क्षेत्र में वन्य प्राण्यिों की बहुतायत होने और खासकर बाघों तथा उनके शावकों के मौजूद होने की बात को प्रमाणित करते हुए विगत सन् 2000 में इस सम्पूर्ण राजस्व भू-क्षेत्र को वन विभाग ने अपने अधिपत्य में ले लिया था। (जिसे वन विभाग के दस्तावेजों में भूमि बैंक के रूप में दर्शाया भी गया है।
तत्ससंबंधी प्रक्रिया कमोवेश अंतिम दौर तक पहुंच ही चुकी थी मात्र, सरकारी राजपत्र में प्रकाशन होने की ओैपचारिकता शेष रह गई थी। इसी दौरान न जाने ऐसा क्या हुआ और वन- विभाग ने पांच सालों तक अपने अधिपत्य में रखी इस क्षेत्र की पूरी भूमि को 2005 में राजस्व विभाग के हवाले वापस लौटा दी? संदेहों के इसी तथ्य को आधार बनाकर याचिकाकर्ता ने जनहित याचिका के माध्यम से देश की सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय उक्त भू-क्षेत्र में उत्खनन कार्य प्रतिबंधित करने का आदेश जारी किया गया।
दूसरी बात यह रही कि, निमास ख-न- 220 के रकवा 29-31 हेक्टेयर के भू-भाग की सीमांकन भी '' भू बंदोबस्त के साथ” बीती सदी के सन् 1988-89 में हुआ था। इस दौरान बंदोबस्त के अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा अन्य गांवों की तरह निमास गांव की सीमा का निर्धारण कर, उक्त भू-क्षेत्र में 12 चांदे-मुनारे स्थापित किये गए थे। कालान्तर में इस भू-क्षेत्र में मार्बल लीजे स्वीकृत हुई। तब लीजधारकों में भू-अधिकार क्षेत्र को लेकर सन् 2005 में विवाद निर्मित हुई तब लीजधारकों में भू-अधिकार क्षेत्र को लेकर सन् 2005 में विवाद की स्थिति निर्मित होने लगी। इसी दौरान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उत्खनन कार्य पर रोक संबंधी आदेश जारी हो जाने के कारण यह विवाद कुछ ठंडा तो हुआ लेकिन शीतयुद्ध की तर्ज पर चलता रहा। इस विवाद का प्रमुख कारण यह था कि बंदोबस्त विभाग द्वारा 1988-89 में स्थापित किये गए चांदे व मुनारे पूरी तरह नदारत थे। फिर जैसे तैसे 2007 में बंदोबस्त मुख्यालय ग्वालियर से एक जांच दल कटनी आया, जिसने कटनी जिले के राजस्व अमले के साथ क्षेत्र का सर्वेक्षण किया और अंतत: चांदे व मुनारे खोजने में पूरी टीम और उनके उपकरण तक असफल रहे।
यह बात '' तूल न पकड़े ” इस गरज से कटनी जिला मुख्यालय में भू- बंदोबस्त ग्वालियर एवं जिला राजस्व विभाग की त्वारित बैठक कलेक्टर के निर्देशन में हुई और आगामी दो दिनों की समयावधि में ही विवादित भू-क्षेत्र में अनुमानित आधार पर (सन् 2007 में) पुन: 12 चांदे व मुनारे स्थापित करवा दिये गए। मामला फिर शांत पड़ गया। कुछ समय बीता। मार्बल माफिया और जिला प्रशासन के गठजोड़ ने रास्ता खोज निकाला।
भू-गर्भ का दोहन फिर शुरू हो गया जबकि, माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की मर्यादा बनाए रखने हेतु मध्यप्रदेश शासन, खनिज विभाग के सचिव द्वारा कार्य पर रोक लगाए रखने के निर्देश लिखित तौर पर, पहिले से ही सभी को प्राप्त हो चुके थे बाबजूद, इसके मार्बल उत्खनन का कार्य जारी रहा। इसके विरूद्ध शिकायतों का सिलसिला भी फिर चल पड़ा । लेकिन इस बार अप्रेल मई 2010 में मामला कुछ ज्यादा ही गरमा गया। निमास ख-न- 220 में स्वीकृत लीजों की सीमा निर्धारण करने हेतु इस बार आई-बी-एम-(इंडियन माइंस ब्यूरो) तथा सी-एल-आर (भू-बंदोबस्त) ग्वालियर की संयुक्त टीम 17 मई 2010 को जिला मुख्यालय कटनी पहुंची। जिसने कटनी जिला राजस्व तथा खनिज विभाग की टीम के साथ दिनांक 17,18, और 19 मई 2010 तक सर्वेक्षण किया।
आश्चर्य की बात यह रही कि, इस बार भी विगत 2007 में स्थापित किये गए चांदे व मुनारे फिर गायब हो गए? यह जादू था या कुछ और? कोई नही जानता। मामला '' ढाक के तीन पात ''जैसा बनकर फिर ''जस का तस ''रह गया।
अब प्रश्न यह उठता है कि , वे चांदे व मुनारे कहां गुम जो गए,? जबकि सीमांकन के दौरान दोनो बार (1988-89 तथा 2007 में भी चांदा के गढ़े गए पत्थरों को अन्य सांकेतिक सामग्री के साथ जमीन की सतह से पांच फुट नीचे गढ्ढों में रखकर ढांका गया था। और उसके ऊपर चतूबतरानुमा पक्के मुनारे खड़े कर दिये गये थे। यह सब भू-बदोबस्त विभाग द्वारा इसलिये किया जाता है ताकि, कभी किसी विवाद की स्थिति में जरीब की कडिय़ा डालकर भूमि की नाप-जोख करके सीमांकन का सत्यापन किया जा सके। लेकिन खसरा नं- 220 निमास के भू-भाग में उपजे इस विवाद से सरकारी महकमों के सारे आला अधिकारी आज भी कतराते नजर आ रहे है।? इसकी मात्र एक वजह है कि चंदा-मुनारा की निशान देही तक कहीं नजर नहीं आती । इतनी बड़ी धोखाधड़ी कब कैसे, क्यों और किसने की? शायद! प्रशासन के आला अफसर सब कुछ जानते समझते तो हैं लेकिन, ना समझी का मलम्मा परत दर परत चढ़ाते चले आ रहे है?
इस विवाद की तीसरी मुख्य वजह यह भी बताई जा रही हैं कि निमास ख-न- 220 में मूल रकवा 29-31 हेक्टेयर है जिसमें 1-96 हेक्टेयर का रकवा मंदिर रोड़ एवं हाईटेंशन लाइन के लिये छोड़कर शेष 4-80 हेक्टेयर सरिता मार्बल, 10 हेक्टेयर शारदा मार्बल तथा 12-55 हेक्टेयर एस-अंकुन मिनरल्स प्रा-लि- को 16-03-2005 को मार्बल उत्खनन हेतु स्वीकृत लीज के रूप में शासन द्वारा उक्त लीजधारकों को दिया गया है। जिसमें कटनी कलेक्टर द्वारा 31-03-2008 को भू-प्रवेश की अनुमति भी दे दी गई थी। इसी के समानांतर एक बात यह भी है कि ख-न- 220 के चारों ओर पूर्व से अन्य लीज धारकों की खदानें है जो विवादित भूमि से सटी हैं।
इनमें ही, एक लीज धारक जिसे 12-55 हेक्टेयर रकवा की भूमि स्वीकृत हुई है। उस लीजधारक फर्म एस अंकुन मिनरल्स प्रा-लि- के डायरेक्टर का कहना हैं कि उनके स्वीकृत क्षेत्र में तीन दिशाओं से अतिक्रमण कर अन्य लीज धारकों द्वारा अवैधानिक तरीके से अरबों रूपयें का मार्बल (लीज स्वीकृत के पूर्व से अभी तक) उत्खनन करके बाजार में बेच लिया गया। लिहाजा उक्त भू-दोहन से हुई आय तथा शासकीय राजस्व की क्षतिपूर्ति का जिम्मेदार कौन रहेगा? इस वाजिव प्रश्न का जबाव भी शायद ! कटनी जिला प्रशासन के आला अफसरों के पास नही है! और यही कारण है उक्त लीजधारक नाप जोख कर सीमांकन की जिद् पर अड़ गया है। वजह यही रही कि उसने स्वीकृत लीज पर अभी तक काम का श्री गणेश भी नही किया ।
ऐसे हालातों में सीमांकन का सत्यापन कैसे होगा और कौन करेगा? यदि यह कार्य दुष्कर नहीं, तो नाप- जोख करने से शासन व प्रशासन कतरा क्यों रहा?
दूसरा यह कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना करते हुए जिस तरह का कुचक्र चलाकर मार्बल माफिया ने प्रतिबंधित क्षेत्र का भू-दोहनकर अरबों रूपये के मार्बल का अवैधानिक कारोबार किया और जिला प्रशासन अपनी नाक के नीचे होते इस अवैधानिक कारोबार की अनदेखी करता रहा, उसके लिये माननीय सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना संबंधी भंग हुई मर्यादा की क्षतिपूर्ति कैसे हो सकेगी? और कौन कर पाएगा?
तीसरी यह कि यदि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जनहित याचिका की अंतिम सुनवाई के उपरांत किसी दशा में देश की संसदीय शासन व्यवस्था पर विचार करते हुए उक्त लीजों के आबंटन को वैध करार घोषित कर दिया गया तो, उस दशा में उस लीजधारक की क्षतिपूर्ति कैसे हेा सकेगी? जिसके स्वीकृत क्षेत्र में अन्य लीजधारकों ने अतिक्रमण कर अकूत खनिज सम्पदा (मार्बल) को निकालकर उसे बाजार की भेंट चढ़ दिया और करोड़ो रूपये अपनी तिजोरी में सजा लिये ?
अंतिम प्रश्न यह कि देश के लोकतंत्र में रसूखदारों से गठजोड़ बनाकर प्रशासन के आला अफसर इसी तरह न्यायालय के आदेशों की अवमानना कर ऐसी ही अनदेखी करते रहेंगे तो देश की बुनियादी सामाजिक न्याय व्यवस्था का क्या होगा? शोषित और पीडि़त जिलें के वे दलित नागरिक कहां जाकर किसे अपना माई-बाप (सरपरस्त) कहेगे? जो बुनियादी न्याय पाने की आस लगाए इनके दरों पर भूखे प्यासे बैठे रहते है।
इन सारी विसंगतियों के चलते इस पूरे मामले की छानबीन करके निर्णय लेना माननीय सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय अब इस मामले की छानबीन के लिये देश की महापंचायत संसद की और यह प्रकरण भेजती है या किसी एजेन्सी से जांच करवा कर दोषियों को दण्डित करने की मनसा रखती है अथवा इन युक्तियों के अतिरिक्त और भी कोई विकल्प हैं,जिससे, लोकतंत्र की न्याय व्यवस्था को फिर कोई आघात न पहुंचा सके।
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