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भाजपा की बड़ी दीदी यानी सुषमा स्वराज का वर्तमान रेड्डी बंधुओं के कारण विवादों में फंसा हुआ हैं। यह विवाद क्या गुल खिलाएगा यह तो कुछ दिनों में पता चल ही जाएगा लेकिन उनके लिए सबसे चिन्तादायक खबर यह है कि उनका भविष्य अधर में लटकने वाला है। भाजपा से प्रधानमंत्री पद की संभावित दावेदारों में से एक लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज को भी इसका अभास हो गया है। उन्हें यह खतरा दिख रहा है उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की धर्मपत्नी साधना सिंह से।
यायावर राजनेता रहीं सुषमा स्वराज को लगभग ढाई दशक बाद विदिशा संसदीय क्षेत्र के रूप में एक सुरक्षित ठिकाना मिला है। हरियाणा विधानसभा से 1977 में शुरू हुआ उनका राजनीतिक सफर, अंबाला कैंट, करनाल, दिल्ली, बेल्लारी और उत्तराखंड होते हुए मप्र आकर विराम ले रहा है। श्रीमती स्वराज अब खुद को मध्यप्रदेश निवासी साबित करने के साथ हमेशा उस विदिशा से ही जुड़े रहना चाहती है, जो भाजपा के लिए देश में सर्वाधिक सुरक्षित दो संसदीय क्षेत्रों में से एक है।
शिवराज को विदिशा इतना प्यारा है कि उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद यहां से पार्टी की वरुण गांधी को लोकसभा भेजने की इच्छा को भी मान्य नहीं किया। वरुण की काट के तौर पर क्षेत्र की जनता ने मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी साधना सिंह का नाम आगे बढ़ाया। समझौता मुख्यमंत्री के खास मित्र रामपाल सिंह के नाम पर हुआ, जिन्हें मंत्री पद से इस्तीफा दिला कर शिवराज ने लोकसभा भेजा तो केवल इसलिए कि विदिशा पर उनकी विरासत बरकरार रहे। उनके इसी विदिशा पर सुषमा की नजर गड़ गई। हरियाणा में दो बार विधायक रहीं सुषमा स्वराज अपने गृह प्रांत में लोकसभा का एक भी चुनाव नहीं जीत पाईं। उन्होंने करनाल से 1980, 1984 और 1989 में लगातार तीन लोकसभा चुनाव लड़े और तीनों में पराजय हाथ लगी। ओजस्वी वक्ता और महिला होने के नाते भाजपा को उनकी संसद में जरूरत थी तो उन्हें 1990 में राज्यसभा भेज दिया गया। इसके बाद हरियाणा के बजाए दिल्ली उनका मुकाम हो गया और उन्हें 1990 में राज्यसभा भेज दिया गया और उन्होंने 1996 तथा 1998 के चुनाव दक्षिण दिल्ली से लड़े। वे लगभग तीन माह दिल्ली की मुख्यमंत्री भी रहीं, लेकिन वहां के विधानसभा चुनाव में अपनी सरकार न बनवा पाईं।
सुषमा को उनका कद बढ़ाने वाली पराजय मिली सोनिया गांधी के हाथों। 1999 में भाजपा ने उन्हें कर्नाटक के बेल्लारी से श्रीमती गांधी के खिलाफ उतारा और इसके बाद वे भाजपा के लिए खासमखास हो गईं। श्रीमती स्वराज को पार्टी ने 2000 में उत्तराखंड से राज्यसभा भेजा। यह कार्यकाल पूरा होने के बाद उन्हें 2006 में मध्यप्रदेश से उच्च सदन पहुंचाया गया। मध्यप्रदेश से जुड़ाव ने उन्हें यहां स्थायी डेरा जमाने की प्रेरणा दी और सुषमा ने मप्र में लोकसभा सीट पर दावा जता दिया। अंदरखाने की बातें हैं कि मुख्यमंत्री उन्हें विदिशा नहीं देना चाहते थे, इसलिए भोपाल संसदीय क्षेत्र की पेशकश की गई। सुषमा को यह जम भी गया, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री और भोपाल के सांसद कैलाश जोशी का वीटो भारी साबित हुआ। हारकर शिवराज को विदिशा से अपने मित्र रामपाल सिंह को होशंगाबाद भेजना पड़ा, जहां रामपाल को पराजय नसीब हुई और विदिशा में सुषमा को विजय। अब कभी भोपाल में मुख्यमंत्री का आवास रहा शानदार बंगला सुषमा स्वराज का है। यहीं से वे विदिशा का अपना साम्राज्य संभालती है। वे कह भी चुकी हैं कि अब अंतिम समय तक विदिशा से उनका नाता बना रहेगा। बताते हैं कि सुषमा के विदिशा प्रेम ने शिवराज सिंह को हरकत में ला दिया है और सुषमा का यह विदिशा प्रेम ही साधना को राजनीति में सक्रिय होने का मुख्य कारण बन गया है।
अपने पति द्वारा सहेज कर रखे गए संसदीय क्षेत्र से बेदखल होने की पीड़ा ने उन्हें राजनीति की मुख्य धारा में ला दिया। प्रदेश भाजपा के अनुकूल माहौल में उन्होंने महिला मोर्चा का उपाध्यक्ष पद लिया है और उनकी सक्रियता पहले से कही अधिक है। वे हर बुधवार विदिशा में बनवाए गए मंदिर जाती हैं तो वहां के लोगों की समस्याएं भी प्राथमिकता से हल करवाती हैं। कहना नहीं होगा कि विदिशा के लिए अब दो महिला नेत्रियां सक्रिय हैं, एक सांसद दूसरी सांसद बनने की संभावना को खारिज कर चुकी हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता और क्षेत्र के प्रति समर्पण इस बात की चुगली कर रहा है कि मौका मिला तो वे चुनाव जरूर लड़ेंगी। ऐसे में उनकी पहली प्राथमिकता विदिशा ही होगी। इसलिए अभी कहा नहीं जा सकती कि भाजपा के बड़े नेताओं का लांचिंग पैड रहा विदिशा अगली बार किसको संसद पहुंचाएगा।
बताते हैं कि अभी तक अपने आपको मध्य प्रदेश की राजनीति तक ही सीमित रखने का मन बना चुकी साधना सिंह को केंद्रिय राजनीति का सपना दिखा रही हैं महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष स्मृति ईरानी। भाजपा के सूत्र बताते हैं कि हमेशा अपने पति(शिवराज सिंह चौहान) के साथ साए की तरह रहने वाली साधना सिंह को राजनीति की पाठशाला के गुण-दोष सिखाने का जिम्मा भी स्मृति ईरानी ने उठा रखा है।
साधना सिंह के संभावित प्रयासों को भांप कर सुषमा स्वराज ने भी दिल्ली की अपनी व्यवस्तताओं में से विदिशा के लिए अधिक से अधिक समय निकालना शुरू कर दिया है। उनकी हरियाणवी टीम के लोग संसदीय क्षेत्र में घूम-घूम कर फीडबैक लेते रहते हैं। एक तरह से क्षेत्र की पूरी कमान ही श्रीमती स्वराज के इन खास लोगों के हाथों में है। स्थानीय नेतृत्व को किसी भी काम के लिए इन्हीं लोगों से संपर्क करना पड़ता है। श्रीमती स्वराज हर माह का एक सप्ताह विदिशा और भोपाल को देकर नब्ज टटोलती रहती है। क्षेत्र के लिए मोबाइल एंबुलेंस सहित कई सौगातें भी वे दे रही हैं। उधर विदिशा को अपना घर बना चुके शिवराज सिंह चौहान और उनकी धर्मपत्नी साधना सिंह विदिशा से किसी भी कीमत पर दूरी नहीं बनाना चाहते हैं। उनके लिए यह क्षेत्र उतना ही खास है, जितना वर्तमान संसद के लिए है। शिवराज के प्रदेश भर में सक्रिय रहने को देखते हुए साधना सिंह ही विदिशा से संबंधित मामले देखती हैं। उनका गांव-गांव के कार्यकर्ताओं से नाता है और क्षेत्र में वेयर हाउस, मकान भी हैं।
क्षेत्र के एक पूर्व विधायक कहते हैं कि शिवराज सिंह समूचा संसदीय क्षेत्र पैदल ही नाप लेते थे। वे ऐसे सांसद थे, जिनका जनता से सीधा जुड़ाव था, अगर भैया को फुरसत नहीं मिलती थी तो भाभी (साधना सिंह) समस्याओं को हल करवा दिया करती थीं, मगर अब वो बात नहीं रही। इस लिए हम चाहते हैं कि भैया न सही भाभी तो अपने लोगों का प्रतिनिधित्व करें। वहीं शिवराज समर्थक संघ के एक नेता ने भी उन्हें चेताते हुए कहा है कि सुषमा की आदत है कि वह पहले उंगली पकड़ती हैं और मौका मिलते ही उस आदमी को धकेल कर उसकी जगह ले लेती हैं। वह कहते हैं कि हरियाणा की राजनीति से बेदखल होने के बाद जब सुषमा राजनीति करने दिल्ली पहुंची तो पहले उन्होंने वहां के दबंग नेता मदन लाल खुराना की उंगली पकडऩी चाही लेकिन खुराना ने सुषमा स्वराज को कोई विशेष महत्व नहीं दिया सो वे उनकी सरकार के मंत्री सज्जन सिंह वर्मा के साथ दिल्ली में अपनी पकड़ बनाने में जुट गईं।
वर्मा के ही दम पर उन्होंने दक्षिण दिल्ली लोकसभा का चुनाव भी जीता। समय आने पर खुराना की जगह सज्जन सिंह वर्मा को फिट करा दिया और बाद में स्वयं उस पद पर (दिल्ली की मुख्यमंत्री) बैठ गईं। 1998 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव सुषमा स्वराज के नेतृत्व में लड़ा गया, जिसमें सरस्वती पुत्री को 84 के दंगों के दागी नेताओं ने मिलकर धूल चटा दी। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि भाजपा के टिकट वितरण में सबसे ज्यादा सुषमा स्वराज की ही चली थी और नतीजे आने पर दिल्ली से भाजपा का ऐसा सफाया हुआ कि आज तक उस सदमें से नहीं उभर पाई। ऐसे में मध्य प्रदेश में सत्ता और संगठन को इस विषय पर मंथन करने का अभी पर्याप्त समय है। अब देखना है की सुषमा स्वराज की खिलाफत में मध्य प्रदेश की राजनीति में उठा बवंडर शांत होता है या आंधी का रूप धारण करता है।
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