गौरवशाली अतीत की दस्तक से संवर सकता है भविष्य
सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
अतीत की स्मृतियों को ताजा करके सुखद संवेदनाओं को अंगीकार करने का क्रम हमेशा से चलता रहा है। कहानियों में जीवित पात्रों ने कभी रेखा चित्रों के माध्यम से दस्तक दी, तो कभी फोटो फ्रेम के अन्दर कैद अपने जीवन्त काल से रोमांचित किया। चलचित्र के अविष्कार के बाद तो कहने-सुनने की परम्परा को ही एक नये मोड पर खडा कर दिया।
देखने-दिखाने की क्षमता ने तात्कालिक परिस्थितियों तक की पुनरावृत्ति कर डाली। किवदन्तियों की मौखिक हस्तांतरण वाली रीतियां, अब अतिशयोक्ति के अलंकरण में इठलाने लगीं। समय के साथ बदलाव की बयार आई और प्रमाणित ऐतिहासिकता को हाशिये पर ढकेला जाने लगा। मनोरंजन तक सीमित रहने वाले नये आयाम, अपनी आधुनिकता की आंधी से देश, काल और परिस्थितियों तक को बदलने लगे। इस तरह की समीक्षायें अक्सर विचार मन में हलचल उत्पन्न करती रहती थी।
इसी मध्य मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा आयोजित खजुराहो अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आमंत्रण मिला। फिल्मों का श्रृंखलावद्ध प्रदर्शन, उनके निर्माण से जुडे दिग्गजों का जमावडा और दर्शकों की मूल्यांकन करती बातों में बहुत कुछ खोजा जा सकता था। सो निर्धारित स्थान और समय पर पहुंच कर हमने भी अतीत को प्रकाशित करने के प्रयास में गहराई तक उतरने की ढानी। महोत्सव में फिल्मी दुनिया की ढेर सारी स्थापित प्रतिभाओं से मुलाकात हुई। अपने जमाने के जानेमाने खलनायक प्रेम चोपडा के साथ कुछ ही समय में औपचारिकतायें दर किनार हो गई।
अपनत्व और बेबाक बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। बुंदेली ‘फिल्म कर्ज का चक्रव्यूह’ के प्रीमियर के बाद एकांत मिलते ही हमने उन्हें अतीत के समुन्दर में डुबोना शुरू कर दिया। गुजरे पल लौटने लगे जब बुरे इंसान की भूमिका में भावुक दर्शकों की गालियों ने उन्हें निर्देशकों से लेकर फाइनेंसरों तक का चहेता बना दिया। कहीं दूर अंतरिक्ष में कुछ खोजने की कोशिश करते हुए उन्होंने कहा कि उस जमाने में प्रतिभा पूजी जाती थी, कला को आराधना माना जाता था और वरिष्ठ साथियों के अनुभवों को गांठ में बांधने का उपक्रम होता था। धन, पहुंच और प्रभाव बहुत कुछ था, परन्तु सब कुछ नहीं था।
समझौता करने की सीमा निर्धारित थी। आदर्श, सिद्धान्त और व्यवहार में सामंजस्य था। वर्तमान में भी अच्छा ही नहीं, बहुत अच्छा करने वाले भी हैं। हो भी रहा है परन्तु बाहुल्य किसी और का ही है। हमने इस परिवर्तन की थाह नापने की गरज से बीच में ही प्रश्न उछाल दिया। कारणों को रेखांकित करने के सवाल पर वे गम्भीर हो गये। काले चश्मे के पीछे छुपी उनकी आंखों ने कठोर शब्दों के प्रवाह में अपना अक्स प्रस्तुत कर ही दिया। विदेशों की रीतियों का अंधा अनुसरण करने की व्यापकता को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि फिल्मों के बजट ने बडे बजट से कोसों आगे बढकर भारी-भरकम बजट का स्वरूप ले लिया है।
विदेशी तकनीक, उपकरण और कथानकों को पकडा नहीं, लपका जा रहा है। लोकप्रियता के पैमाने बदलने लगे हैं। नवकुबेरों की पसन्द को आम आवाम पर थोपने का क्रम चल निकला है। संवाद, कहानी और गीतों के साथ-साथ संगीत के वास्तविक मापदण्ड ध्वस्त होते जा रहे हैं। बाजार पर कब्जा करने के लिए नीतियां-रीतियां नहीं बल्कि हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं। लोगों तक पहुंच बनाने की गरज से नये-नये फार्मूले आजमाये जाने लगे हैं। परम्परागत संस्कृति, आत्मिक संस्कार और वास्तविक सामन्जस्य कहीं खो से गये हैं। उन्हें वापिस लाना होगा। गौरवशाली अतीत की दस्तक से संवर सकता है भविष्य परन्तु इसके लिए आवश्यक है कि वर्तमान को सीख लेना।
इस तरह के महोत्वस हमें स्वयं के मूल्यांकन का अवसर ही नहीं उपलब्ध कराते बल्कि तुलनात्मक अध्ययन के लिए वातावरण भी निर्मित करते हैं। तीन पीढियों को एक साथ देखने वाले सशक्त अभिनेता से हमने तब और अब में अन्तर स्पष्ट करने के लिए कहा तो वे मुस्कुराते हुए बोले कि इस प्रश्न का उत्तर हमारी आने वाली फिल्म ‘उडन छू’ को समीक्षक की दृष्टि से देखने पर स्वतः ही मिल जायेगा।
पहले के प्रेम चोपडा और वर्तमान के प्रेम चोपडा में आपको स्पष्ट अन्तर देखने को मिलेगा। बात चल ही रही थी कि उनके अगले कार्यक्रम का निर्धारित समय नजदीक आ गया सो हमने उनको 5 जनवरी को रिलीज होने वाली ‘उडन छू’ को सफलताओं के नये कीर्तिमान स्थापित करने हेतु शुभकामनायें देकर इस विषय पर फिर कभी चर्चा करने के आश्वासन के साथ विदा ली। इस बार बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए खुदा हाफिज।
ravindra.arjariya@yahoo.com
+91 9425146253
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