Saturday, December 30, 2017

सहज संवाद // वास्तविक आनन्द के लिए आवश्यक है पुरातन बेडियों से मुक्ति

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सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया

विश्व में प्रकृति संरक्षण की उपाय तेज होने लगे हैं। ‘आओ प्रकृति की ओर लौट चलें’ का नारा बुलंद होने लगा है। जागरूकता के उपायों को मूर्त रूप देने की वकालत होने लगी है। देश की सदियों पुराने सांस्कृतिक मूल्य चारों ओर दस्तक देने लगे हैं। मानव से लेकर जीव-जन्तुओं तक, खनिज सम्पदा से लेकर भू-गर्भीय भण्डारों तक और प्रदूषण से लेकर पर्य़ावरण संरक्षण तक के लिए सामूहिक प्रयासों पर बल दिया जाने लगा है।

अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के स्थान पर विशुद्ध प्राकृतिक चिकित्सा के विभिन्न पक्षों को व्यवहार में लाया जाने लगा है। आयुर्वेद के सूत्रों पर औषधियों के निर्माण ने गति पकड ली है। शारीरिक व्याधियों से लेकर मानसिक विकृतियों तक के निदान के लिए प्राकृतिक वरदानों का खुलकर उपयोग होने लगा है। जब आयुर्वेद के सूत्रों में स्वस्थ जीवन का रहस्य छुपा है तो फिर इतने लम्बे समय तक इसे हाशिये पर रखने का कारण भी गम्भीर होगा।
स्वास्थ की कीमत पर होता रहा क्यों होता रहा पाश्चात्य संस्कृति का अंधा अनुशरण। इसी तरह के अनेक प्रश्न धीरे-धीरे मुखरित होकर एक बडे पुंज के रूप में विकसित होकर उत्तरों की मांग करने लगे। दिमाग पर जोर डाला तो मध्य प्रदेश के आयुर्वेदिक विभाग में लम्बे समय तक योगदान देकर सेवा निवृत हुए जानमाने वैध पण्डित हरिश्चन्द्र चौबे का चेहरा उभने लगा।
पं. चौबे आयुर्वदिक औषधियों के ज्ञाता होने के साथ-साथ प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के खासे जानकार हैं। विलम्ब किये बिना हमने उन्हें फोन लगाकर प्रत्यक्ष मुलाकात का समय निर्धारित कर लिया। निश्चित समय पर हम उनके आवास पर पहुंच गये। दरवाजे पर दस्तक देते ही उन्होंने स्वयं ही दरवाजा खोला और उत्साहवर्धक स्वागत किया। अभिवादनों का आदान-प्रदान होने के बाद वे हमें लेकर अपनी औषधि प्रयोगशाला में लेकर आये।
कमरे में रखे मूढे, चौकियां और चटाइयां देखकर अतीत ने अपना चलचित्र प्रारम्भ कर दिया। हम अपने गांव, गांव की चौपाल और नदी के किनारों में खोते, उसके पहले ही उन्होंने मूढे पर आसन ग्रहण करने के लिए कहकर मन के भटकाव पर पूर्णविराम लगा दिया। बिना भूमिका के हमने उनके सामने अपनी जुग्यासायें रखीं। हमेशा मुस्कुराते रहने वाले पं. चौबे के मुख-मण्डल पर गम्भीरता दिखाई देने लगी।
आयुर्वेद के अनेक सूत्रों का संस्कृत में उच्चारण करते हुए कहा कि गुलामी की जंजीरों में जकडे देश में सत्ताधारी सबसे पहले उनका स्वास्थ, फिर उनकी संस्कृति और अन्त में उनकी सम्पत्ति से उन्हें वे दखल कर स्वयं का कब्जा करते हैं। अपने अनुरूप ढालने के लिए चाटुकारों और लालचियों के माध्यम से अपनी अधकचरा व्यवस्था थोपते हैं। ऐसा ही हमारे साथ भी हुआ।
लम्बे समय तक पराधीनता का दंभ भोग रहे लोगों की अपनी सोच, अपनी व्यवस्था और अपनी सम्पन्नता दासता की दीमक ने चट कर ली। अंग्रेजी दवाइयों के हानिकारक प्रकोप, पाश्चात्य की भौडी नकल और कथित अभिजात वर्ग में होने का हवा में तैरते अभिमान ही हमारी थाथी बनकर रह गया। हम इतराने लगे। सत्ताधारियों के दरवारों में प्रवेश जी मिल गया था।
समाज में शासकों के डंडे के साथ हमारे मेल-मिलाप ने लोगों को दिखावटी सम्मान की स्थिति निर्मित कर दी। दर्शन और दार्शनिकता मे ज्यादा गहराई तक उतरते देखकर हमने उन्हें बीच में ही टोकते हुए कहा कि ‘आओ प्रकृति की ओर लौट चलें’ के पीछे के विश्व कारणों को रेखांकित करें ताकि जिग्यासा का मूल नष्ट होने से बच सके।
उनके हौठों ने मुस्कुराहट के लिए फैलने का उपक्रम किया। आज विश्व में शुगर, ब्लडप्रेशर, अपच, गैस जैसी अनेक बीमारियां आम हो गईं है। नेत्रों से लेकर दांतों तक, स्वांस से लेकर त्वचा तक और स्नायुसंस्थान से लेकर हृदय तक की अनजानी बीमारियों ने लोगों के शरीर में डेरा डाल लिया है। जबरन कब्जाधारियों को हटाने के लिए किसी बडे असामाजिक तत्व का सहारा लेने वाले बाद में उस बडे को हटाने के लिए बहुत बडे की शरण में जाते हैं।
बाद में उस बहुत बडे का कब्जा ही स्थाई हो जाता है, जिसे हटाना दूर की कौडी लाना होता है। वही दूर की कौडी लाने के लिए ही तो हम ‘आओ प्रकृति की ओर लौट चलें’ की युगों पहले स्थापित की गई की जीवन संजीवनी को फिर तलाशने लगे हैं, जब कि उसका मूल स्वरूप तो आक्रांताओं व्दारा पहले ही हथिया लिया गया था। हथियाये गये सूत्रों को पेटेंट, रजिस्टर्ड, कापीराइट जैसे एकाधिकार स्थापित करने वाले कानूनों की सीमा में पुनः कैद कर दिया गया है।
यह कानून भी कथित शक्तिशाली देशों ने समूचे विश्व पर जबरन थोपा है और उसे मानने के लिए बाध्य है। गम्भीर परिणाम भुगतने की धमकी देने वाले राष्ट्र अपने विशेषाधिकारों की पूरी तरह संरक्षित करके अन्य प्रतिभा सम्पन्न देशों को अपने षडयंत्र का शिकार बनाकर आज भी ‘फूट डालो, राज्य करो’ की नीतियों को मूर्त रूप देने में लगे हैं। जीवन के वास्तविक आनन्द के लिए आवश्यक है बेडियों से मुक्ति।
बातचीत चल ही रही थी कि उनके सहयोगी वैध ने कमरे में प्रवेश कर हमारे सामने चौकी रखी और उस पर कई तरह का मुरब्बा, आयुर्वेदिक काढा और अनेक तरह के अवलेह कटोरियों में सजा दीं। चल रही चर्चा को विराम देना पडा। संस्कृति और संस्कारों से जुडे स्वागत-भोज्य की खुशबू कमरे में फैलने लगी। इसी बीच उन्होंने हमें सभी पदार्थों के बारे में विस्तार से बताया। जिग्यासा से जुडा बबंडर काफी हद तक शांत हो चुका था, सो पुनः मिलने का आश्वासन देकर उनसे विदा ली। इस बार बस इतना ही। अगले हफ्ते एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए खुदा हाफिज।
Dr. Ravindra Arjariya
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