Sunday, July 15, 2018

सहज संवाद : कर्तव्यपरायणता के मूल मंत्र से लक्ष्य भेदन सम्भव

Dr. Ravindra Arjariya Accredited Journalist TOC NEWS
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सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
राजनैतिक दलों की सरकारों और प्रशासनिक तंत्र के मध्य सहयोगात्मक व्यवहार के साथ-साथ अधिकारों की सीमाओं का भान होना राष्ट्रीय विकास के निर्धारित मापदण्डों का सर्वाधिक महात्वपूर्ण कारक होता है। दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के मध्य हो रही अधिकारों की जंग ने न्यायपालिका को संवैधानिक विवेचना के लिए बाध्य होना पडा।
अन्य राज्यों में भी कर्तव्यों के प्रति उदासीनता के तले दिन गुजारने वालों ने अपनी अकर्मण्यता को दूसरों पर आरोपित करना शुरू कर दिया है। ऐसे में राष्ट्र हित का चिन्तन किसी नारे से अधिक महात्व नहीं रखता। व्यक्तिगत संचय की प्रवृत्ति ने स्वार्थ का खुलेआम तांडव शुरू कर दिया है। अवसर की तलाश में रहने वाले लोग सरकारी योजनाओं के मध्य निजी लाभ के अवसर तलाशने से नहीं चूकते।
आखिर देश के लिए कुछ कर गुजरने वालों की संख्या शायद स्वाधीनता के बाद से केवल सेना तक ही सीमित होकर रह गयी है। वर्तमान के आधार पर भविष्य की कल्पना मात्र से ही सिहरन पैदा होने लगी। विचारों की गति ने कार की गति को पछाड दिया था। तभी ड्राइवर ने गाडी रोक दी। हम मंजिल तक पहुंच गये थे। पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार उत्तर प्रदेश के जिलाधिकारी महोबा सुहदेव जी से मुलाकात निश्चित थी। समय और स्थान निर्धारित था। कुछ समय बाद हम आमने-सामने थे। उन्होंने आत्मीयता भरा स्वागत करने के बाद चैम्बर में पहले से मौजूद अधिकारियों को उनकी विभागीय समस्याओं के निदान हेतु दिशा निर्देश देकर विदा किया।
प्रदेश सरकार की विभिन्न योजनाओं के सफल क्रियान्वयन हेतु उनके द्वारा दिये जाने वाले निर्देशों के व्यवहारिक स्वरूप ने हमें खासा प्रभावित किया। जन-सहयोग से लेकर क्षेत्रीय प्रतिभाओं, विशेषज्ञों और प्रतिष्ठित लोगों तक की भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रयासों पर दिये जाने वाला जोर वास्तव में सकारात्मक परिणामों को मूर्त रूप देने में सक्षम था। आपसी कुशलक्षेम का आदान-प्रदान करने के बाद हमने विचारों के प्रवाह से उत्पन्न प्रश्नों को उनके सामने रखा। सकारात्मक सोच को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि अधिकारों से पहले कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहना आवश्यक होता है।
नियमों के माध्यम से हमें सैद्धान्तिक अनुशासन का भान तो होता है परन्तु उसे व्यवहारिक ढांचे में ढालने के लिए विवेकपूर्ण निर्णय का सहारा लिया जाना चाहिये। यह विवेक स्वयं के अनुभव, व्यवहारिक ज्ञान और परिस्थितियों के अनुरूप आचरण से ही प्राप्त होता है। स्वयं के उदाहरण के द्वारा ही अधीनस्तों को इच्छित दिशा मे बढने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। टकराव की स्थिति केवल अहम के कारण ही होती है। जटिल से जटिल समस्याओं का निदान आपसी सामंजस्य से किया जा सकता है। हमने उन्हें बीच में ही टोकते हुए निर्वाचित सरकारों की दलगत नीतियों वाली मानसिकता से प्रेरित योजनाओं के अनुपालन से संबंधित प्रश्न उछाल दिया।
अनेक पार्टियों की सरकारों के साथ कार्य करने के अनुभव को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि कोई भी सरकार अपने क्षेत्र की अवनति नहीं चाहती। आखिरकार चयनित जनप्रतिनिधियों को निर्धारित समय के बाद मूल स्वरूप में ही वापिस जाना होता है। उनका उत्तरदायित्व ही उन्हें धनात्मकता की ओर ले जाता है। कार्यपालिका की क्रियाशीलता संवैधानिक दायरे में रहते हुए भी विकास के सोपान तय करती है, व्यवहारिकता को अंगीकार करते हुए सामाजिक प्रगति सुनिश्चित करती है और करती है सुखद भविष्य की परिकल्पना को साकार। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अपने-अपने अनुशासन हैं।
जहां भी अनुशासनहीनता के प्रयास किये जायेंगे वहीं समस्या का जन्म होगा। कर्तव्यपरायणता के मूल मंत्र से लक्ष्य भेदन सम्भव होती है। जटिलताओं का परित्याग, सरलता का अंगीकरण, मानवीय दृष्टिकोण, सकारात्मक चिन्तन, गहन अध्ययन, विवेकपूर्ण निर्णय, समय-सीमा जैसे अनेक कारक हैं जिन्हें जीवन में उतारकर तनाव रहित कर्तव्यपरायण बना जा सकता है। सामाजिक व्यवस्था पर चल रही चर्चा का रुख अध्यात्मिक दिशा में मुडता देखकर हमने प्रशासनिक जटिलताओं से संबंधित प्रश्न कर दिया।
उनके मुस्कुराते चेहरे ने गंभीरता ओठ ली। शब्दों में भारीपन आ गया। अंतरिक्ष में कुछ पल देखने के बाद उन्होंने कहा कि जटिलताओं का संबंध तो हमारे जन्म के समय से ही है। कठिनाइयां हर पल सामने होतीं है। चुनौतियों का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। प्रशासनिक ढांचा भी इससे अछूता नहीं है। प्रत्येक मनुष्य की अपनी प्रकृति होती है। उसका अपना काम करने का ढंग और गति होती है। सभी की प्रतिभाओं और क्षमताओं में भी भिन्नता होती है। ऐसे में प्रशासनिक अधिकारी को कार्य विभाजन के दौरान सभी कारकों को दृष्टिगत रखना पडता है। आपसी सामंजस्य हेतु संतुलन की स्थिति निर्मित करना होती है। निरीक्षण, परीक्षण और विवेचना के आधार पर निर्णय लेना होते हैं।
तभी निर्धारित कार्यों के माध्यम से कीर्तिमान गढना सम्भव होता है। चर्चा चल ही रही थी कि नौकर ने गर्मागर्म चाय और कुछ स्वल्पाहार मेज पर सजाना शुरू कर दिया। बातचीत में व्यवधान उत्पन्न हुआ, परन्तु तब तक हमें अपनी सोच को पडाव देने की पर्याप्त सामग्री प्राप्त हो चुकी थी। सो इस विषय पर फिर कभी लम्बी बैठक के आश्वासन के साथ हम चाय और स्वल्पाहार का सम्मान करने लगे। फिलहाल बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए खुदा हाफिज।

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