पार्टी पर भारी कमलनाथ की महत्वकांक्षाऐं, बिखरती कांग्रेस में मस्त कमलनाथ |
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- विजया पाठक
कमलनाथ नेतृत्व पर खड़े होते सवाल, उप चुनावों से पहले कांग्रेस को लग रहें झटके पे झटका
महत्वकांक्षाऐं पालना अच्छी बात है, लेकिन महत्वकांक्षाऐं इतनी भी नही पालनी चाहिए कि स्वयं के साथ-साथ दूसरों का भी अहित हो जाए। कुछ ऐसा ही मध्यप्रदेश में कांग्रेस पार्टी के साथ हो रहा है। वर्तमान में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ 70 पार होने के बावजूद इतनी महत्वकांक्षाऐं पाले हुए है कि उन्हें भविष्य की तस्वीर ही नजर नही आ रही है।
सत्ता के लालच में वे इतने अंधे हो गए है कि धीरे-धीरे उनका कुनबा ही सिमटता जा रहा है और वे मस्त मोला बने बैठे हैं। वर्तमान में कमलनाथ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष तो है ही और दोबारा मुख्यमंत्री बनने की दावेदारी भी ठोंक रहे हैं। इतना ही नहीं नेता प्रतिपक्ष भी वह खुद बनना चाहते है। यानि वन मैन आर्मी की तरह प्रदर्शित होने की कोशिश में लगे हैं। यह महत्वाकांक्षा नही है तो क्या है। ऐसा लग रहा है जैसे कमलनाथ के सिवा कांग्रेस में कुछ नही है।
इसी महत्वाकांक्षा का नतीजा है कि आज कांग्रेस धीरे-धीरे कर बिखरती जा रही है और विरोध के स्वर भी उभरने लगे है। हाल ही में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री गोविंद सिंह ने भी प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल खड़े कर दिए है। उन्होंने बयान दिया कि अब पार्टी में नेताओं और कार्यकर्ता की सुनवाई ही नही हो रही है। ऐसा लगता है मानो समूची कांग्रेस नेतृत्व विहिन हो चुकी हो। तकरीबन प्रदेश कांग्रेस कमेटी में हजार के करीब पदाधिकारी है।
परंतु दो तिहाई से ऊपर के पदाधिकारियों को यह भी नही मालूम कि प्रदेश कांग्रेस कार्यकारणी में क्या हो रहा है क्या निर्णय लिये जा रहे है, इसका ज्वलंत प्रमाण है कि प्रदेश कांग्रेस दफ्तर में कौए बोलते नजंर आते हैं, दूर-दूर तक कार्यकर्ता नही दिखाई देते है। यही कुछ हालत विधायकों के है यह नही मालूम कि वह कांग्रेस पार्टी किस कारण छोड़ रहे है। आज भी कांग्रेस का नेता, कार्यकर्ता व विधायक पूर्णत: उपेक्षित है। प्रदेश में कुशल नेतृत्वकर्ता का पूर्णत: अभाव हो गया है। क्योंकि पिछले दो सप्ताह में ही कांग्रेस के दो विधायक बीजेपी में शामिल हो गए है।
हकीकत से अनजान कमलनाथ अभी भी उप चुनावों में जीत की आस लगाए बैठे है। जबकि गोविंद सिंह उन्हीं क्षेत्रों से आते है जहां आगामी समय में उपचुनाव होने वाले है। पूर्व मंत्री गोविंद सिंह कांग्रेस की चिंता करते हुए इस अव्यवस्था के ऊपर बयान देते रहते है। हम अंदाजा लगा सकते हैं कि इन चुनावों के क्या परिणाम होने वाले है। बड़े ताज्जुब और हैरान करने वाली बात है कि प्रदेश में कांग्रेस की ऐसी दुर्दशा हो रही है और पार्टी हाईकमान मौन धारण किए हुए है।
क्या सचमुच कांग्रेस अपने आप को मारने पर तुली है। स्थिति मध्यप्रदेश तक ही सीमित नही है, राजस्थान में भी यही हो रहा है। डेढ़ साल में कांग्रेस की स्थिति इस कदर बदतर हो जाएंगी किसी ने कल्पना नही की थी। दिसम्बर 2018 में आए मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम में कांग्रेस सबसे ज्यादा 114 सीटों पर विजय होकर सरकार बनाने में कामयाब रही थी, आज स्थिति यह है कि कांग्रेस के पास केवल 90 विधायक बचे है। क्योंकि एक अंतराल के बाद विधायक बीजेपी में शामिल होते जा रहे है। 24 विधायक तो कांग्रेस से जा चुके है, उसके बावजूद भी प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व पर कुछ असर देखने को नहीं मिल रहा है।
इतना सब कुछ होने के बाद तो पार्टी में उथल-पुथल मच जानी चाहिए थी, लेकिन कमलनाथ अपनी महत्वाकांक्षा को दबा ही नही पा रहे हैं। लगता है उन्हें पार्टी को नहीं खुद को स्थापित करना है। अभी तक वह अपनी मर्जी में सफल भी है। समस्त प्रदेश के मालवा निमाड़ के नामीग्रामी नरेन्द्र नहाटा पूर्व मंत्री, पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरूण यादव, वरिष्ठ नेता गजेन्द्र सिंह राजूखेड़ी आदिवासी नेता, विंध्य से राजमणी पटेल राज्य सभा सांसद, बुंदेलखण्ड से राजा पटेरिया पूर्व मंत्री और तो और विवेक तन्खा जैसे कानून विशेषज्ञ व राज्य सभा सांसद इत्यादि- इत्यादि नेताओं की कांग्रेस के निर्णयों में कोई हिस्सेदारी नही होती।
उधर बीजेपी को कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई और नाराजगी का भी भरपूर लाभ मिल रहा है। भाजपा असंतुष्ट नेताओं से संपर्क साधकर उनको अपनी पार्टी में लाने में सफल हो रही है। यह भी सच है कि कांग्रेस जितना कमजोर होगी बीजेपी उतनी ही मजबूत होती चली जाएंगी। ऐसा भी नही है कि प्रदेश के इस राजनीतिक उठा-पठक का असर सिर्फ कांग्रेस तक सीमित है बल्कि अंदर ही अंदर बीजेपी में विरोध के स्वर देखे जा सकते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि बीजेपी का विरोध सामने नहीं आ पाता है। बीजेपी में नेतृत्वकर्ता कमजोर नहीं है। उनमें साथ रखने और मनाने की कला मौजूद है। जबकि कांग्रेस में ऐसा नही है।
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