पहले समाज सेवा और लोगों को जोड़ने के लिये संत एवं नेता पैदा हुआ करते थे, जबकि आज समाज को तोड़ने के लिये भी प्रायोजित तरीके से साधु-संत और नेता पैदा किये जा रहे हैं। पहले अखबार दबी-कुचले लोगों की आवाज हुआ करते थे, जबकि आज धनाढ्यों की आवाज हैं। पचास साल बाद इन सबके कु-प्रतिफल क्या होंगे? कल्पना करना असम्भव है!
पिछली पीढी को आज की पीढी के प्यार में व्यभिचार और दुराचार नजर आता है। आज की पीढी की मोबाइल संस्कृति में दोषों के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता है। इस कारण से नयी पीढी को हर मंच पर खूब कोसा जाता रहता है, लेकिन इस सबसे नयी पीढी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है।
ऐसे में विचार का विषय ये होना चाहिये कि आज केवल प्यार ही क्यों हर विषय के मायने और हर अवधारणा को समझने के अंदाज क्यों बदल रहे हैं?
आज का दौर बदलाव का दौर है, जो अपनी गति से आगे बढ रहा है, जिसे रोकना या प्रतिबन्धित करना लगभग असंभव हो चुका है! अनेक लेखकों और विचारकों का मानना है कि आज हम संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं! जबकि सच ये है कि हर एक पीढी संक्रमण के दौर से गुजरती रही है। क्योंकि हर दौर में, उस समय की परिस्थितियों के हिसाब से बदलाव और परिवर्तन होते रहे हैं और उस समय के लोगों में से कुछ के लिये बदलाव रास आते हैं, जबकि अनेकों के लिये निराशा पैदा करने वाले होते हैं। बदलाव हमेशा होता रहा है और हर दौर में प्रत्येक पिछली पीढी को, नयी पीढी की बातों और आदतों से नाइत्तफाकी सदैव से रहती आयी है!
आज के दौर की सबसे बड़ी समस्या ये है कि आज से सौ साल पहले के दौर में जो बदलाव होते थे या जो बदलाव हुए, उनकी तुलना में आज के दौर के बदलाव कई सौ गुना तेजी से हो रहे हैं, जिन्हें पुरानी पीढी के लिए समझना मुश्किल और आत्मसात करना तो लगभग असंभव ही लगता है! ऐसे में पुरानी पीढी, नयी पीढी की आलोचना करके, पीढियों के बीच की दूरी बढा रही है। जिससे वैचारिक मतभेद तेजी से बढ रहे हैं और घरों में संघर्ष तेज हो रहा है। फिर भी अनेक लोग आज के बदलावों के खिलाफ लगातार संघर्ष करके अपनी ऊर्जा का विसृजन कर रहे हैं। उन्हें इसी में सुकून मिलता है।
आज जो भी बदलाव आ रहे हैं, उन्हें स्वीकार करने के अलावा पिछली पीढी के पास कोई विकल्प भी नहीं हैं, क्योंकि इसके आलावा उनके पास कोई रास्ता भी तो नहीं है। हम सभी जानते हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है! जिसे अस्वीकार करना अपने आप को धोखा देने के समान है! बेशक आज की पीढी की नजरों में पुरानी पीढी द्वारा गढ़ी या सृजित की गयी नीति और नीतियों का मूल्य समाप्त होता जा रहा है, या हो चुका है, लेकिन ये भी तो सच है कि इसकी शुरूआत भी तो पुरानी पीढी ने ही की थी!
आज की पीढी पर जितनी भी तोहमतें हैं, जिन भी बुरे आचरणों, दुष्कर्मों और अनैतिकताओं का आरोप है, क्या पचास साल पहले की पीढी में वे सारे दोष नहीं थे? बेशक आंशिक ही सही, मगर ये सारे दोष पचास साल पहले भी थे। जिसे तब के नीति-नियन्ताओं और समाज के ठेकेदारों ने जाने अनजाने अनदेखा किया! कुछ ने तो प्राश्रय भी दिया। इस सबका वही परिणाम हुआ जो प्राकृतिक नियमानुसार होना चाहिये था।
एक बीज चाहे आम का हो या बबूल का हजारों लाखों की संख्या में फल देता है! इसलिये किसान हर उस पौधे को अपने खेत में पनपने नहीं देता, जिससे फसल को नुकसान हो सकता है, लेकिन पचास साल पहले के समाज के बुद्धिजीवी लोगों में इतनी सी समझ नहीं थी, जिसे अनदेखा करते हुए, पचास साल पहले पैदा होने वाले लोग आज की पीढी को कोस रहे हैं।
जिस प्रकार विषेला पौधा विषैले फल देता है, उसी प्रकार से संस्कार और कथित कुसंस्कार भी अवश्य ही फल देते हैं! जिसका आकलन करना हो तो हमें अपने आसपास देख लेना चाहिये। आज भी अनेक विषेले पौधे उग रहे हैं। भाई, बहनों से, चाचा भतीजियों से, मामा भानजियों से, दादा पोतियों से यौन सम्बन्ध बना रहे हैं। परिवार और समाज इनकी अनदेखी कर रहे हैं। इसी प्रकार पहले समाज सेवा और लोगों को जोड़ने के लिये संत एवं नेता पैदा हुआ करते थे, जबकि आज समाज को तोड़ने के लिये भी प्रायोजित तरीके से साधु-संत और नेता पैदा किये जा रहे हैं। पहले अखबार दबी-कुचले लोगों की आवाज हुआ करते थे, जबकि आज धनाढ्यों की आवाज हैं। पचास साल बाद इन सबके कु-प्रतिफल क्या होंगे? कल्पना करना असम्भव है!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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पिछली पीढी को आज की पीढी के प्यार में व्यभिचार और दुराचार नजर आता है। आज की पीढी की मोबाइल संस्कृति में दोषों के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता है। इस कारण से नयी पीढी को हर मंच पर खूब कोसा जाता रहता है, लेकिन इस सबसे नयी पीढी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है।
ऐसे में विचार का विषय ये होना चाहिये कि आज केवल प्यार ही क्यों हर विषय के मायने और हर अवधारणा को समझने के अंदाज क्यों बदल रहे हैं?
आज का दौर बदलाव का दौर है, जो अपनी गति से आगे बढ रहा है, जिसे रोकना या प्रतिबन्धित करना लगभग असंभव हो चुका है! अनेक लेखकों और विचारकों का मानना है कि आज हम संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं! जबकि सच ये है कि हर एक पीढी संक्रमण के दौर से गुजरती रही है। क्योंकि हर दौर में, उस समय की परिस्थितियों के हिसाब से बदलाव और परिवर्तन होते रहे हैं और उस समय के लोगों में से कुछ के लिये बदलाव रास आते हैं, जबकि अनेकों के लिये निराशा पैदा करने वाले होते हैं। बदलाव हमेशा होता रहा है और हर दौर में प्रत्येक पिछली पीढी को, नयी पीढी की बातों और आदतों से नाइत्तफाकी सदैव से रहती आयी है!
आज के दौर की सबसे बड़ी समस्या ये है कि आज से सौ साल पहले के दौर में जो बदलाव होते थे या जो बदलाव हुए, उनकी तुलना में आज के दौर के बदलाव कई सौ गुना तेजी से हो रहे हैं, जिन्हें पुरानी पीढी के लिए समझना मुश्किल और आत्मसात करना तो लगभग असंभव ही लगता है! ऐसे में पुरानी पीढी, नयी पीढी की आलोचना करके, पीढियों के बीच की दूरी बढा रही है। जिससे वैचारिक मतभेद तेजी से बढ रहे हैं और घरों में संघर्ष तेज हो रहा है। फिर भी अनेक लोग आज के बदलावों के खिलाफ लगातार संघर्ष करके अपनी ऊर्जा का विसृजन कर रहे हैं। उन्हें इसी में सुकून मिलता है।
आज जो भी बदलाव आ रहे हैं, उन्हें स्वीकार करने के अलावा पिछली पीढी के पास कोई विकल्प भी नहीं हैं, क्योंकि इसके आलावा उनके पास कोई रास्ता भी तो नहीं है। हम सभी जानते हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है! जिसे अस्वीकार करना अपने आप को धोखा देने के समान है! बेशक आज की पीढी की नजरों में पुरानी पीढी द्वारा गढ़ी या सृजित की गयी नीति और नीतियों का मूल्य समाप्त होता जा रहा है, या हो चुका है, लेकिन ये भी तो सच है कि इसकी शुरूआत भी तो पुरानी पीढी ने ही की थी!
आज की पीढी पर जितनी भी तोहमतें हैं, जिन भी बुरे आचरणों, दुष्कर्मों और अनैतिकताओं का आरोप है, क्या पचास साल पहले की पीढी में वे सारे दोष नहीं थे? बेशक आंशिक ही सही, मगर ये सारे दोष पचास साल पहले भी थे। जिसे तब के नीति-नियन्ताओं और समाज के ठेकेदारों ने जाने अनजाने अनदेखा किया! कुछ ने तो प्राश्रय भी दिया। इस सबका वही परिणाम हुआ जो प्राकृतिक नियमानुसार होना चाहिये था।
एक बीज चाहे आम का हो या बबूल का हजारों लाखों की संख्या में फल देता है! इसलिये किसान हर उस पौधे को अपने खेत में पनपने नहीं देता, जिससे फसल को नुकसान हो सकता है, लेकिन पचास साल पहले के समाज के बुद्धिजीवी लोगों में इतनी सी समझ नहीं थी, जिसे अनदेखा करते हुए, पचास साल पहले पैदा होने वाले लोग आज की पीढी को कोस रहे हैं।
जिस प्रकार विषेला पौधा विषैले फल देता है, उसी प्रकार से संस्कार और कथित कुसंस्कार भी अवश्य ही फल देते हैं! जिसका आकलन करना हो तो हमें अपने आसपास देख लेना चाहिये। आज भी अनेक विषेले पौधे उग रहे हैं। भाई, बहनों से, चाचा भतीजियों से, मामा भानजियों से, दादा पोतियों से यौन सम्बन्ध बना रहे हैं। परिवार और समाज इनकी अनदेखी कर रहे हैं। इसी प्रकार पहले समाज सेवा और लोगों को जोड़ने के लिये संत एवं नेता पैदा हुआ करते थे, जबकि आज समाज को तोड़ने के लिये भी प्रायोजित तरीके से साधु-संत और नेता पैदा किये जा रहे हैं। पहले अखबार दबी-कुचले लोगों की आवाज हुआ करते थे, जबकि आज धनाढ्यों की आवाज हैं। पचास साल बाद इन सबके कु-प्रतिफल क्या होंगे? कल्पना करना असम्भव है!
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