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प्राकृतिक, सांस्कृतिक एवं पुरातत्वीय धरोहर हमारे जीवन को समृद्धि प्रदान करती है। मानव इतिहास की धारा में असंख्य षिलालेख, अनोखे गढ़, कलाचित्र और षिल्प कला के सुन्दर नमूने हमारे बीच छोड़ गये है, आज इन कला, सांस्कृतिक एवं पुरातत्वीय धरोहर को सहेजने, संरक्षण प्रदान करने के लिये, इन नष्ट होती प्रदेष की धरोहर की सुध किसी को नहीं ।
आर एस पटेल
माबाईल 8989535323
हाल ही में यूनेस्कों ने विष्व विसारत की सूची में राजस्थान के छह किलों को शमिल किया है। हमारे राज्य पुरातत्व विभाग, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग एवं केन्द्रीय संस्कृति मंत्रालय को मालवा के मॉडु एवं असीरगढ़ व बुंदेलखण्ड के कालिंजर के किला को ऐसी मान्यता दिलाने के लिये कोषिष करनी चाहिए। हमें यह भी देखना चाहिए कि अपने प्रदेष के तमाम ऐतिहासिक स्थलों एवं स्मारकों की क्या हालात है। जिन्हं एक खास श्रेणी में मान लिया जाता है उनकी तरफ ध्यान दिया जाता है एवं दूसरी तरफ अपने में बहुत कुछ समेटे इन धरोहरों की अनदेखी की जाती है, हमारा पुरातत्व विभाग वैधानिक चेतावनी की तख्ती टांग अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेता है । आषा कि जानी चाहिए की यूनेस्कों का ताजा फैसला हमें हमारी धरोहरों के प्रति और जिम्मेदार रुख अपनानें के लिए प्रेरित करेगा । बहरहाल हम आलेख षीर्षक पर आते है।
ऋग्वेद में दक्षिणापथ और रेवान्तर से उल्लेखित इस प्रदेष में प्रागैतिहासिक सभ्यता के निषान होषगाबाद के पास गुलआं भोपाल के पास भीमबैठका, कटनी के झिझंनी, सागर के निकट नरयावली, बरोदा, आवचन्द, मंदसौर के षिवनी नदी किराने की पहाड़ियों, नरसिंहगढ़, रायसेन, आदमगढ़ पन्ना, रीवा की कंदराओं में प्रचुर मात्राओं में षैलचित्र मिलते है। सभ्यता के दूसरे चरण में पाषण और ताम्रकाल के रुप में विकसित हुआ । नर्मदा घाटी एवं चंबल घाटी में यह सभ्यता ईसा के दो हजार वर्ष पूर्व मोहन जोदड़ो और हड़प्पा के समकालीन रही, महेष्वर, नावड़ा, टोड़ी, कायथा, नागदा, बरखेड़ा और एरन इसके केन्द्र रहे। इन क्षेत्रों में खुदाई से मिले मृदभण्ड, धातु के बर्तन और औजार मिले है। कैम्ब्रिज विष्वविद्यालय ने सन् 1932 में सभ्यता के चिन्ह जबलपुर और बालाघाट के कुछ क्षेत्रों में देखे जहां ताम्रकालीन औजार मिले थे ।
डॉ सांकलिया ने नर्मदा घाटी के महेष्वर, नावड़ा टोड़ी, चोली तो डॉ वाकणकर ने नागदा कायथा की खोज की थी । नवीन पुरासंपदा की खोज में खुजराहों जैसे मंदिर मंदसौर, षिवपुरी, छतरपुर एवं अन्य जिले में मिले है। मध्यप्रदेष की संस्कृति विविधवर्णी है, यहां पांच लोक संस्कृतियों - लोकजीवन, साहित्य, संस्कृति, इतिहास, कला, बोली और परिवेष है, जिनका हर क्षेत्र और भूभाग अलग अलग है। षबर, कोल, किरात, पुलंद, और निषादों के अधीन रहे प्रदेष में सभ्यता, संस्कृति, षिल्प व संगीत से मालवा तथा ग्वालियर के भू-क्षेत्र से षेष मध्यप्रदेष से अपेक्षाकृत अधिक आगे रहे हैं। इन संस्कृतिक क्षेत्रों में अनूप, (निमाड़) मालवा, बुंदेलखण्ड़, बघेलखण्ड़, ग्वालियर (चंबल ), धार, झाबुआ, मंडला और बालाघाट, छिंदवाड़ा और होषंगावाद, खंड़वा - बुरहानपुर, बैलूत रीवा-सीधी, षहडोल आदि जनजातीय क्षेत्रों में विरक्त है
मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक परम्पराओं की जड़े काफी गहरी हैं। होषंगाबाद के पास आदमगढ़ तथा छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में उपलब्ध प्रागैतिहासिक काल गृहा-चित्र इसके साक्षी हैं। तद्यपि इतिहास की दृष्टि से सम्पूर्ण मध्यप्रदेष एक इकाई के रूप में कभी नहीं रहा । उत्तर भारत तथा दक्षिण भारत में स्थापित महान राज्यों का प्रभाव क्षेत्रों से दूरी, उत्तर भारत और दक्षिण भारत की संधि स्थल होना, सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से प्राचीन होने पर भी षेष भारत के मान से अर्धविकसित होना, आर्य और अनार्य का संगम स्थल होना तथा पर्वतों एवं वनों की दुर्गमता इसके कुछ कारण हो सकते हैं। ये कारण मध्यप्रदेष की हर घटक इकाई के रुप में बिल्कुल समान रुप से लागू नहीं होते, किन्तु इनका प्रभाव कहीं कम कहीं अधिक है अवष्य । स्वतंत्र इतिहास की नजर से मध्यप्रदेष का इतिहास अत्यंत गौरवषाली रहा है, किन्तु भारत वर्ष के वृहत्तर संदर्भ में दृष्टिपात करने पर ज्ञात होगा कि मध्यप्रदेष की बिखरी हुई राज्य श्रंृखला का सूत्र अधिकतर पाटिलपुत्र या दिल्ली सल्तनत के हाथों रहा।
राज्यों की सीमाएं बना या बिगाड़ सकने की स्थितिप्रायः नहीं रही । फिर भी वास्तविक प्रभुत्व अपने अपने क्षेत्रों स्थानीय षासकों का ही होता था, क्योंकि भारत के केन्द्रस्थ राज्यों के सम्राट अपने युद्ध अभियान के दौरान इन पर विजय हासिल करके, इनकी द्वारा अधीनता स्वीकार लेने पर इन क्षेत्रों में स्थानीय अधिपतियों को ही पदस्थ कर देते थे। 1861 ईस्वी में पष्चिमोत्तर देष से सागर नर्मदा टेरीटरीज को षामिल कर मध्यप्रदेष के जन्म का बीज बोया गया, जो राज्यों के पुनर्गठन की नीति के तहत आधुनिक मध्यप्रदेष का जन्म 1 नवम्बर 1956 में हुआ, लेकिन आज हम जिसे मध्यप्रदेष के नाम से जानते हैं उसका स्वरुप कल कैसा था। सभ्यता के आदिकाल से पुनर्गठन तक कितने उतार-चढ़ाव देखे हैं, कौन कौन से भूभाग उसकी सीमाओं में आते रहें और उनका क्या इतिहास रहा है -यही सब इस आलेख का बिषय हैं जिसे कूर्मि क्षत्रिय जागृति पत्रिका इतिहास के ग्रन्थों से षोधपूर्वक अध्ययन का परिणाम सर्वप्रथम आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहीं है, बहरहाल हम महाकौषल, मध्यभारत और विंध्यप्रद्रेष की पृथक इकाईयों में विकसित मध्यप्रदेष, धूमिल इतिहास के आईने में आज कुछ इस तरह से देखा जा सकता है।
अतीत में महाकौशल
कौशल आज के छत्तीसगढ़ का अत्यन्त प्राचीन नाम है । ऐसा ज्ञात होता है कि कौषल अर्थात अयोध्या के क्षेत्र से इसका भेद दर्षाने के लिए छत्तीसगढ़ तथा आसपास के वृहत्तर इलाके को दक्षिण कौषल कहा गया, जो कालान्तर में महाकौषल के नाम से विख्यात हुआ। रामायण काल में यही क्षेत्र दण्डकारण्य के नाम से प्रसिद्ध रहा तथा इसके एक भाग को महाकांतार भी कहा जाता था, यमुना से गोदावरी का विस्तृत भाग राजनीतिक दृष्टि से अयोध्या के अधीन रहा । बौद्ध मत स्वीकारने बाले सम्राट कनिष्ट के वंषज रूदसेन का ईस्वी 388 में वध कर चंदगुप्त द्वितीय ने गुप्त साम्राज्य में मिला लिया । गुप्त साम्राज्य के विघटन के बाद 5 वी सदी में तोरमाण के नेतृत्व में ष्वेत हूणों ने अपना अधिकार जमा लिया। परन्तु 528 ई में मगघ सम्राट यषोवर्धन ने हूणों को पराजित किया । पुरातन काल में यह पूरा इलाका मगध के गुप्त वंषीय सम्राटों के अधीन रहा। अषोक तथा अषोक के बाद भी समुद्रगुप्त तक संभवत यह सिलसिला अविच्छित रहा, जिसके प्रमाण हमें कटनी जिले के रूपनाथ मंे ईस्वी सन् 232 से पूर्व के अषोक के षिलालेख की मौजूदगी के रूप में मिलता है, वही महाकौषल के भंादक / भद्रपत्तन के षिलालेख में इसके राजा बौद्धों के आश्रयदाता सूर्य घोष का उल्लेख भी मिलता है।
गुप्तों के काल में ईस्वी सदी सन् 3 सौ से 6 सौ के मध्य यहॉ का षासन परिव्राजक, उच्छकल्प, राजर्षिकुल तथा वाकाटक वंषीय राजाओं के हाथ में रहा। राजर्षिकुल संभवतः कौषलाधिपति महेन्द्र का कुल था, जिसकी पराजय समुद्रगुप्त के हाथों हुई थी । उच्छकल्पीय राजा जयनाथ के पिता व्याघ्रराज की समुद्रगुप्त से पराजय का उल्लेख भी इतिहास मंे मिलता है। व्याघ्रराज तथा उसके वंषज, जो महाकांतार के अध्रिपति थे, वाकाटक वंषीय राजाओं का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था, गुप्तों का हा्रस तथा वाकाटको के उदय के मध्य संधिकाल में कुछ काल तक यहां सातवाहन वंष का भी प्रभुत्व रहा। पष्चिमी महाकौषल तथा विदर्भ के प्रदेषों में 6 वीं षताब्दी से 8 वीं षताब्दी तक और 11 वीं से 12 षताब्दी में चालुक्य षासक प्रभुत्वषाली बने रहे । इस पूरे काल खण्ड के मध्यातंर का भाग 753 ईस्वी से 943 ईस्वी तक षासनसूत्र चालुक्यों के हाथ से राष्ट्रकूट या राठौर राजाओं के हाथ में चला गया था, जिन्हंे अन्ततः चालुक्यों ने परास्त करके ही छोड़ा।
राष्ट्रकूटों, चालुक्यांे के षासन का उल्लेख हमें बेतूल के मुलताई, वर्धा के देवली तथा कटनी के बिलहरी के लेखों में मिलते है। चालुक्य षासकों में हर्षवर्धन को पराजित करने वाले महान षासक पुलकेषिन द्वितीय तथा एलोरा की गुफाओं में कैलाष भवन के निर्माता कृष्णराज प्रथम के नाम उल्लेखनीय हैं । चालुक्य तथा राठौर वंषीय षासकों के समान्तातर ही महाकौषल में हैहयवंषी राजाओं का प्रभुत्व छाने लगा, जो आगे चलकर चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुआ। चेंदिदेष के समर्थ राजा कोकल्लदेव से हैहयवंष का उत्कर्ष हुआ। पहले हैहय लोग गुप्तों के अधीन थे किन्तु बाद में राज्याधिपति हो गए। कोकल्लदेव का समय 875 ईस्वी के लगभग माना जाता है, इसी के वंषज कलचुरि कहलाये ।
कलचुरि राजाओं में सर्वाधिक प्रतापी राजा गांगयदेव विक्रमादित्य अर्थात कोकल्यदेव द्वितीय हुआ । जिसका षासन काल 1015 ई ़के लगभग खत्म होता है। गांगयदेव ने अपने पराक्रम से चेदि षक्ति को उत्तरभारत में पराकाष्ठा पर पहुंचाने की कांेषिष की । उसके षत्रु चन्देल भी उसे विष्व विजयी मानते थे। उसका पुत्र कर्णदेव भी महान षासक हुआ, किन्तु चन्देलराजा कीर्तिवमन से उसकी पराजय हुई, त्रिपुरी कल्चुरि सत्ता और संस्कृति का केन्द्र थी। 12 वीं षताब्दी हैहयवंषीय कल्चुरियों के पतन का युग है। यद्यपि रत्नदेव द्वारा रतनपुर ( छ ग ) में 11 वीं सदी तथा सिंहण के द्वारा रायपुर में (15 वीं सदी ) स्थापित इनकी षाखाओं का अस्तित्व भोसलों के अभ्युदय (18वी सदी ) तक बना रहा।
12 वीं सदी में हैहयवंष का प्रताप क्षीण होंने पर राजगोंडों का अभ्युदय हुआ, जिन्होंने महाकौषल पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। वस्तुतः ये राजगोंड की कल्चुरियों के घर भेदिये थे। गोंडों का अभ्युदय काल मदनसिंह ( 1116 ई़ ) से माना जाता है। जिसके द्वारा गढ़ा के निकट बनवाया गया, मुगलषैली का मदनमहल अद्यावधि विद्यमान है। जबलपुर और त्रिपुरी के मध्य कटंगा पर्वत के निकट गढ़ राजधानी बनाने के कारण इसकी राजधानी गढ़कंटगा कहलाई। कालान्तर में मंडला की राजधानी होने पर गढ़कटंगा का स्थान गढ़मंडला ने ले लिया।
मदनसिंह की चौदहवीं पीढ़ी में बावन गढ़ों का अधिपति षूरवीर संग्रामषाह हुआ, इसके बावन गढ़ांे का विस्तार सागर, दमोह, जबलपुर, मंडला, सिवनी, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा, बैतूल, नागपुर, होषंगाबाद और बिलासपुर तक फैला था । ( कृपया गढ़ों के लिए बाक्स देखे ) पिता के हत्यारे संग्रामषाह के पुत्र दलपतेषाह ने हथियार के बल पर अपना विवाह महोवा के चन्देल राजा की पुत्री दुर्गावती (जन्म 5 अक्टूबर 1524 मृत्यु 24 जून 1564) से किया था। चार साल बाद ही विधवा हुई दुर्गावती ने 15 साल कुषल षासन किया। दुर्गावती वीरता में चण्डी थी, इनके सौंदर्य में किसी संस्कृत कवि ने ठीक ही कहा है - मदनसद्दष रुपः सुन्दरी यस्यु दुर्गा । ईस्वी सन् 1564 में अकबर के सूबेदार आसफखां के हमले से गोड साम्राज्य ध्वस्त हो गया, यद्यपि मराठों के अभ्युदय काल तक मुगल सल्तनत की छत्रछाया में ही गोड राजवंष जीवित रहा। 18 वीं सदी में बुन्देलों और मराठों ने गोंड राज्य हथिया लिया। उत्तरी भारत में छत्रसाल तथा पूना के पेषवाओं का तथा जबलपुर, मंडला व दक्षिण भारत में भोंसलों का अधिकार हो गया। क्रमषः सन् 1818 तथा 1854 ई में अंग्रेजों ने पेषवा और भोसलों का राज्य हड़प लिया। नवम्बर 1861 में सागर नर्मदा क्षेत्रों, छत्तीसगढ़ तथा नागपुर को सेन्ट्रल प्राविन्सेस की संज्ञा दे देगी, जिसमें सन् 1903 में निजाम से प्राप्त बरार के चार जिले षामिल कर लिए गये।
अक्टूबर 1905 में इस प्रांत के संबलपुर जिले के अधिकांष भाग तथा कालाहण्डी, पटना, सोनपूर, बामरा, रेहराट बोल आदि देषी रियासतों के सेन्ट्रल प्राविन्सेस से लोअर बंगाल क्षेत्र में तथा छोटा नागपुर की सरगुजा, उदयपुर, जषपुर, कोरिया, चांदभखार आदि रियासतों के लोअर बंगाल से सेन्ट्रल प्राविन्सेस में षामिल किए जाने से उसकी सीमा में परिवर्तन हुआ । फलस्वरुप संबलपुर जिले का षेष अंष तथा अब छत्तीसगढ़ के रायपुर व बिलासपुर जिले के कुछ भागों से जनवरी 1906 में दुर्ग जिले का निर्माण हुआ । देष की आजादी के बाद जनवरी 1948 में सरगुजा, कौडिया, खैरागढ़, कवर्धा, छुईखदान आदि रिसायतें प्रांत में मिला दी गई एवं 1956 में पुनगर्ठन के फलस्वरुप मध्यप्रदेष की नई रुपरेखा बनी ।
अतीत में मध्य भारत
मध्यभारत का इतिहास भी अपने प्रांरभिक काल में गुप्तों के काल में अर्थात गुप्तों के काल तक महाकौषल से प्रायः अभिन्न रहा, क्योंकि सम्पूर्ण मालवा और ग्वालियर प्रदेष भी उन दिनों के संपूर्ण उत्त्रभारत की तरह पाटिलपुत्र के सषासनधीन रहा। सांची का प्रसिद्ध स्तूप और उदयगिरी की प्रसिद्ध गुफाएं अध्यावधि अषोक तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के ऐष्वर्य की गाथाएं कह रहीं है। कालीदास का मालविकाग्नि मित्रम् अग्निमित्र के मालवा के साथ संबंधों का अद्वितीय स्मारक है।
षुंगों के बाद आन्ध्र सातवाहनों का तथा कनिष्ठ का षासन यहां कुछ काल तक रहा, किन्तु षीध्र ही मालवों का उत्कर्ष हुआ। मालव पंचनंद क्षेत्र की एक लडा़कू जाति थी। जिसका उल्लेख सिकन्दर के आक्रमण के संदर्भ में इतिहास मिलता है। इसी मालव जाति के नाम पर यह क्षेत्र मालवा कहलाया। गुप्त वंष के अवसान से पुनः मालवराज यषोधर्म का उत्थान हुआ, जिसने यहां अपना एक छत्र राज्य स्थापित किया। 6 वीं सदी में समस्त मध्यभारत पर हर्ष का अधिकार हो गया । हर्ष के उपरान्त मुसलमानों के अभ्युदय तक मालवा पर परमार जाति ने सुव्यवस्थित षासन किया । अवन्तिका को सांस्कृतिक वैभव प्रदान करने का श्रेय उसके वाकपति, मंुज, भोज, उदयादित्य तथा अर्जुन वर्मन जैसे कीर्तिमान परमार षासकों को है।
मुहम्मद षाह के 1389 से 1394 ई के राज्यकाल दिलावर खां गोरी ने स्वयं स्वतंत्र करके मालवा पर अपना अधिकार कर लिया। उसका पुत्र होषंगषाह हुआ, जिसने अपनी राजधानी मांडू बनाई।
होषंगषाह के बाद यहां का षासन क्रमषः महमूदखान खिलजी, गयासुद्दीन, महमूद द्वितीय, बहादुरषाह, हुमायूं, षेरषाह, षुजाखान तथा बाजबहादुर के हाथ रहा । माण्डव का जहाजमहल बाजबहादुर के द्वारा ही निर्मित है। ग्वालियर में ईसा पूर्व 6 वीं सदी तक नंदन वंष तथा मौर्य का षासन था, जिसका उत्तराधिकार षैषुगों को मिला। तदनंतर ईसा की पहली सदी में नागों ने अपना राज्य स्थापित किया था नागवंषीय षासको को कुषानों ने अपदस्थ कर दिया। किन्तु इनका परभ्युदय हुआ। तीसरी और चौथी सदी में यहां नागों के प्रभुत्व का तथा नागवंषीय भावनाग, गनपति, एवं नागसेन नामक षासकों का उल्लेख अभिलेख में मिलता है। नागसेन की मृत्यु अपने आमात्य के षडयंत्र से हुई तथा यहां का षासन नागों के हाथों से चला गया । पांचवी सदीं में यहां गुप्तों का राज्य रहा था, जो अपने अवसान काल में हूण सरदार मिहिर कुल के अधीन हो गया।
8 वीं सदी में कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों का उत्थान हुआ। 9 वीं सदी के उत्तारार्ध में इसी वंष का भोज प्रतिहार ग्वालियर का प्रसिद्ध षासक हुआ। 10 वीं सदी में राजा महेन्द्रपाल द्वितीय का षासनोपरान्त इस वंष का ह्रास हुआ, जिससे अधीन सांमतों ने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। चन्देल राजा धांग ने अपने गुर्जर - प्रतिहार स्वामी को पराजित कर इसी काल में ग्वालियर का किला जीत लिया और ब्रजदामन कच्छप घट को यहां का षासन सौफ दिया। इसी के वंषज कीर्तिराज कच्छपघट ने मालवा के विख्यात राजा भोज परमार को बुरी तरह पराजित किया था। इस वंष का अंतिम राजा लोकनायक दूल्हाराय हुआ, जिसने अपने राज्य का त्याग कर दिया। इस अवधि की घटनाओं में गजनबी का आक्रमण (1021-1022 ) ई महत्वपूर्ण है। जिसे स्थानीय राजपूत षासन ने उपहारादि से प्रसन्न करके बिदा कर दिया। 2 वीं सदी के अन्त में गोरी के सेनापति कुतुबद्दीन ऐवक ने ग्वालियर पर विजय प्राप्त की तथा इल्तुतमिष को उसने अपना प्रतिनिधि/अमीर नियुक्त किया।
तदानन्तर 14 वीं सदी तक यहां रजिया सुल्ताना, नासिरुद्दीन, बलबन, आलाउद्दीन खिलजी तथा मुहम्मद तुगलक का राज्य रहा। तैमूर के हमला के समय उथल-पथल में ग्वालियर का किला तोमरों के हाथ में पड़ गया, जिसका स्थापक वीरदेवसिंह माना जाता है। फलतः तोमर लोग मुगलों के अधीन रहे, किन्तु बाद में उन्हौने अपनी स्वतंत्र सत्ता बना ली ।15 वीं सदी के आरंभ में डूंगरसिंह यहां का असाधारण कीर्तिवान षासक हुआ। जिसने मुगलों के छक्के छुड़ा दिये । इस वंष का महानतम राजा मानसिंह (1486 से 1517 ई ) हुआ, जो एक ओर लोदियों से निरन्तर संघर्षरत रहने वाले स्वतंत्रप्रिय और योद्धा के रूप में तथा दूसरी ओर एक महान संगीतज्ञ के रूप में इतिहास में प्रसिद्ध हुआ।
16वीं सदी में बाबर के द्वारा ग्वालियर का किला जीता जा चुका था तथा इस काल के बाद षेरषाह को छोड़कर ग्वालियर प्रायः मुगलों के अधीन रहा। अकबर से षहाजहॉ तक सम्पूर्ण काल में मालवा तथा ग्वालियर के क्षेत्र अर्थात सम्पूर्ण मध्यभारत पर मुगलों का आधिपत्य रहा। औरंगजेब की संकीर्ण राजनीतिक सूझबूझ तथा षिवाजी के नेतृत्व में मराठों के उत्कर्ष ने मुगल षासन की जड़े कमजोर कर दीं। सन् 1732 के आसपास छत्रसाल ने मध्यभारत के उत्तरपूर्वी भाग पर अपना अधिकार कर लिया। सन् 1766 में पूना के बाजीराव पेषवा के हमले से मध्यभारत का षेषभाग मुगलों के हाथ से मराठों के हाथ में चला गया। इन हमलों के नायकों राणाजी सिंधिया तथा मल्हारराव होल्कर ने तथा कालांतर में इनके वंषजों ने ग्वालियर प्रदेष तथा मालवा पर पेषवा के प्रतिनिधि के रूप में राज्य किया। 19 वीं सदी के मध्य में अंग्रेजों ने पेषवाई राज्य हड़प कर रियासतों की निगरानी अपने हाथ में ले ली । आजादी के बाद सरदार पटेल की नीति के उपरान्त अनुरूप ग्वालियर, इन्दौर तथा तेईस अन्य छोटी छोटी रियासतों को अनुबंध से विलीनीकरण कर मई 1948 में मध्य भारत नामक द्वितीय श्रेणी ( ब श्रेणी ) का राज्य बनाया गया जो सन् 1956 में वर्तमान मध्यप्रदेष का एक अंग हो गया।
अतीत में विन्धप्रदेश
विंध्यप्रदेश के इतिहास में नागों तथा चन्देलों का षासन विषेषतः उल्लेखनीय रहा है। षेष इतिहास अंषों में मध्यभारत तथा महाकौषल दोनों से ही संबंध रहा है। मगन के षुभंगवंषीय षासक के अवसान के समय यहां नागों का अभ्युदय हुआ, जिनका प्रभाव महाकौषल और मध्यभारत में भी उन दिनों बढ़ रहा था। विंध्यप्रदेष में ईस्वी सन् 132 से 370 के आसपास नागों ने सुद्दढ़ षासन किया। नागवंषी राजा यादववंषीय क्षत्रिय थे, जिन्हें षकों के हमलों के कारण भेलसा का अपना राज्य छोड़ना पड़ा। ये षेव मतावलंबी थे तथा जनता के प्रतिनिधियों द्वारा गठित नागसंघ द्वारा इनका षासन चलाया जाता था, जो कि अपनी गणतंत्रतात्मक प्रणाली एवं अनुपम स्थापित्य के कारण प्रसिद्ध हैं। नागों के बाद विंध्य षक्ति पर वाकाटक प्रभावषील हुए किन्तु समुद्रगुप्त ने उन्हें पराजित करके इस प्रदेष को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया। 7 वीं से 9 वीं सदी तक इसका इतिहास प्रायः मध्यभारत के इतिहासवत् रहा।
9 वीं सदी से इसका इतिहास मध्य पष्चिमी विंध्य प्रदेष, अर्थात बघेलखण्ड का अधिकांष कलचूरियों के तथा पूर्वी विंध्यप्रदेष अर्थात बुंदेलखण्ड क्षेत्र चंदेलों के अधीन रहा । प्रसिद्ध कलचुरि नरेष गांगदेव विक्रमादित्य के पुत्र कर्णदेव की पराजय चंदेलराज कीर्तिवर्मन के हाथों हुई थी। 12 वीं सदी में कलचूरियों का पराभव हुआ तथा चंदेलों का प्रभुत्व संपूर्ण विंध्य प्रदेष पर हो गया। यही काल गोडों के अभ्युदय का काल था, अतः चंदेलों और गोडों के बीच संघर्ष भी यंत्र-तंत्र होता रहा। चंदेल भी संभवतः हिन्दु गोडों के वंषज थे। ऐसा प्रतीत होता है कि 10 वीं सदी से पूर्व चंदेल लोग कन्नौज के राजा प्रतिहार भुज के अधीन थे। 10 वीं सदी के आरंभ में ही चंदेलों ने अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना लिया। चंदेल राजा यषोवर्मन ने कन्नौज के राजा देवपाल को पराजित किया था । उसका पुत्र सुविख्यात राजा धांग हुआ जिसने 910 से 990 ईस्वी तक राज्य किया। कीर्तिवर्मन तथा परमाद्रिदेव इन्हीं चंदेलों के वंषज थे।
1182 ईस्वी में पृथ्वीराज से परमाद्रिदेव की हार से चंदेल राज्य छिन्न-भिन्न हो गया यद्यपि उसका अस्तित्व रियासतों में ब्रिटिष साम्राज्य के अभ्युदय तक बना रहा। लोक गायक आल्हा-ऊदल की गाथाएॅं अब भी परमाल के युग की याद कराती है। खुजराहों का विष्व प्रसिद्ध षिल्प चंदेलों के ऐष्वर्य का जीवन प्रतीक है। 17 वीं सदी में व्याघ्रदेव के वंषज बांधवगढ़ नरेष वीरभद्र के पुत्र विक्रमादित्य ने अपनी राजधानी रीवा ( रीमा ) को बना ली। एकोत्तर बांधवगढ़ के लेख से ज्ञात होता है, कि जहॉगीर बादषाह ने बादषाहत मिलने के उपरांत ही इन्हें 18 परगनों की जागीर का फरमान दिया था। तभी से बांधवगढ़ नरेषों की श्रृंखला बघेलखण्ड की सीमा में आगे बढती रही है। 18 वीं सदी में छत्रसाल के अभ्युदय से पूर्व यह समस्त प्रदेष मुगल षासन के प्रभाव में था। मराठों और छत्रसाल के अवसान के बाद यहॉ अंग्रेजों का प्रभुत्व छा गया। कालांतर में इसे मध्यभारत एजेंसीज का एक अंग बना दिया गया। 2 अप्रेल 1948 मे रीवा तथा बुंदेलखण्ड के 34 राज्यों के संयोग से विंध्यप्रदेष का गठन किया गया, जो सम्पत्ति मध्यप्रदेष की एक घटक इकाई है।
मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक परपंरा
कहा जाता हैं कि विंध्य पर्वत हिमालय से भी ऊंचा था और उसे पार करना असंभव था । अगस्त्य ऋषि ने उत्तर से दक्षिण की ओर जाना चाहा था तब ऋषि को देख पर्वत ने झुककर नमस्कार किया। ऋृषि ने आर्षीवाद देते हुए कहा वत्स, तुम अब इसी तरह झुके रहो, जब तक में वापस न आ जाऊं । ऋषि उस रास्ते पुनः लौट कर नहीं आये, संभवतः उनकी प्रतीक्षा में आज तक विंध्य पर्वत झुका हुआ है। जो भी हो इतना तो तय हैं कि अगस्त्य ऋषि पहले यात्री थे, जिन्होंने उत्तर भारत से दक्षिण भारत की यात्रा की उसके बाद विंध्य पर्वत के आस पास बस्तियां बसने लगी। विंध्य से लगी नर्मदा घाटी में विष्व की आदिम सम्यता का विकास और विस्तार हुआ। प्राचीन ग्रंथों में इसे विंध्याटवी या विंध्य मेखला कहा गया है। भारत के मध्य होने के कारण विंध्य मेखला नाम सार्थक लगता है। मध्यप्रदेष का पूर्ण रुप यही है। इसका इतिहास इसकी संस्कृति और इसकी सभ्यता अत्यन्त प्राचीन है। क्षेत्रफल के हिसाब से मध्यप्रदेष भारत का सबसे बड़ा एक अदभुत राज्य है। हरे-भरे मैदान, ऊंचे-पर्वत, गहरी नदियां एवं घाटियां और रेगिस्तान जैसा उजाड़ हिस्सा।
राज्य के बीच नर्मदा बहती है तो उसके आसपास ताप्ती, चबंल, वेतवा, टौस, सोन, केन, बेबस, धसान, व्यारमा, और क्षिप्रा है। नर्मदा के उत्तर में विंध्याचल तो दक्षिण में सतपुड़ा। इस विविधता का असर यह हुआ कि सूरज एक ही है, जो कहीं सीधा तो कहीं तिरछा कहीं टेढ़ा गिरता है। विष्व धरोहर में षामिल भीम बैठका की सभ्यता से लेकर आज की नवीन सभ्यता के विकास तक मध्यप्रदेष की संस्कृति में, उसके जन जीवन में न जाने कितने मोड़ आये हैं। मध्यप्रदेष एक विषम भूखण्ड है। कोयले से लेकर हीरे और पन्ने तक खानें यहां पाई जाती है।
भारत के उत्तर में हिम भरा हिमालय है तो मध्यप्रदेष में विंध्याचल और सतपुड़ा जैसे उंचे पर्वत है। गंगा उत्तर के मैदान को सींचती है। नर्मदा मध्यप्रदेष को प्राण देती है। कहते है, गंगा के नहाने से आदमी पाप मुक्त हो जाता है। लेकिन नर्मदा के दर्षन से ही आदमी को पुण्य मिलता है। गंगा का पानी हड्डियों को गला देता है। नर्मदा का पानी हड्डियों को पत्थर बना देती है जो बाद में वही षिवलिंग की तरह पूजा जाता है।
भोपाल, ग्वालियर, सांची, विदिषा, खुजराहों, भोजपुर महेष्वर, उज्जेैन, धार, मांडू पचमढी, वाघ, भीम बैठका, अमरकंटक आदि मध्यप्रदेष के प्राचीन ऐतिहासिक गौरव के लिए तो विख्यात हैं ही। इसके साथ अन्य स्थान भी अपने प्राचीन अवषेषों, प्राकृतिक सौंदर्य एवं गौरव गाथा के कारण स्मरणीय हैं। खुजराहों की कलात्मक मिथुन मूतियां विष्व विख्यात हैं। खुजराहों से 6 किमी दूर महोबा है ।
यहां चंदेल राजाओं ने अपने षासन काल में कई तालाब और दुर्ग बनवाये। महोबा, अजयगढ़ के दुर्ग, मदनसागर झील, पत्थर का प्राचीन (आल्हा की गली) स्तंभ यहां दर्षनीय है। महान योद्धा आल्हा यही पैदा हुए थे। उनके छोटे भाई ऊदल भी कम वीर नहीं थे। गढ़ा मंडला की गोड़ रानी दुर्गावती महोबा के सांवत और राऊ के जमींदार षालिवाहन की बेटी थी । खुजराहों से 50 कि मी दूर पन्ना, हीरों की खदानों के साथ साथ वीर बुदेला छत्रसाल की राजधानी होने का गौरव संजोये बैठा हैं। पन्ना के आगे चित्रकूट आधा मध्यप्रदेष आधा उत्तरप्रदेष का रमणीक स्थल है, तुलसी ने यहीं उपासना कि थी । चित्रकूट के आगे चचाई का जलप्रपात देखने लायक है। महाराजा विक्रमादित्य की नगरी उज्जैन अपने प्राचीन वैभव के लिए विख्यात है, यहां महाकालेष्वर का मंदिर है। यहां संस्कृत के महाकवि कालीदास का कुछ समय निवास रहा। उज्जैन से आगे छोटा बंबई के नाम से नवाजा गया इंदौर कपड़ा मिलों के कारण विख्यात हैं । 18 वीं सदी में यहां इन्देष्वर मंदिर बना और उसी के नाम से यह षहर इन्दौर कहलाया । महारानी आहिल्यावाई होल्कर की राजधानी इंदौर ही थी । 1857 की गदर में इंदौर का प्रमुख हाथ रहा। इंदौर से लगा हुआ खंडवा हैं जहां से 72 किमी दूर नर्मदा तट पर ओंकारेष्वर है। नर्मदा नदी की दो धाराओं के बीच पहाड़ी पर बारह ज्योति लिंगों में से एक प्रसिद्ध भगवान षिव का प्राचीन मंदिर है। आंेकार माध्यता के मंदिर को सूर्यवंषी प्रतापी राजा मांधाता ने बनवाया था ।
यहां नर्मदा नदी ऊॅं आकार ग्रहण करती है। पहाड़ी को काटकर भगवान महावीर की 52 ऊंची प्रतिमा बनी होने से बड़वानी के पास 52 गजा स्थान विख्यात है। महाकौषल का पूरा क्षेत्र ही पुराने स्मारकों एवं अवषेषों से भरा पड़ा है। बेतूल जिले मुक्तागिरी के प्राचीन जैन मंदिर उल्लेखनीय हैं। होष्ंागाबाद स्थित आदमगढ़ की पहाड़ी के एवं सागर जिले के आवचंद की गुफाओं के आगे गदेरी नदी के पहाड़ कटाव पर मौजूद षिलाचित्र प्रागैतिहासिक काल के है। होषंगाबाद के घाट भी निराले और मनोरम है। होष्ंागाबाद भोपाल मार्ग पर भीम बैठका के षैलाश्रय हैं, जिनमें बने षैल चित्र आदिम कालीन सभ्यता के प्रतीक है। मंदसौर और पवाया भी ऐतिहासिक नगर है। अफीम की खेती एवं धर्म राजेष्वर मंदिर के लिए विख्यात मंदसौर में ऐतिहासिक दुर्गो, मंदिरों के साथ रावण की विषाल मूर्ति और बौद्ध बिहारों के अवषेष, समीपस्थ सौंधनी सम्राट यषोधर्मन के युद्धांे और विजयों के विवरण वाले टूटे स्तंभ भी मौजूद है। नागवंषी राजाओं की वैभव षाली नगरी पवाया में भी ऐतिहासिक स्मारक है। मध्यप्रदेष की राजधानी तो भोपाल है परन्तु सांस्कृतिक धानी तो जबलपुर ही है । त्रिपुरी के कलचुरि वंष से लेकर अब तक साहित्य और कला का विकास इसी क्षेत्र में यहीं से हुआ। स्वामी वल्लभाचार्य के चार प्रमुख षिष्यों में एक कुंभनदास गढ़ा के ही निवासी थे।
चतुभुजदास भी यहीं के थे। रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि बिहारी भूषण, मतिराम, पदमाकर, संस्कृत के कवि कालीदास, भोज, भवभूति, मंडन मिश्र, गंगाधर मध्यप्रदेष के ही थे। तानसेन, बेजू बावरा (बैजनाथ प्रसाद ) की संगीत कला की उज्जवल कीर्ति आज तक रंचमात्र भी घूमिल नही हो सकी। यहां की लोक संस्कृति भी कम सराहनीय नहीं है । गांव के ऊंचे चौपालों में वर्षा ऋतु में आल्हा के बोल- जा दिन जनम भयो उदले कै, पृथ्वी धॅंसी अढ़ाई हाथ गूंज उठते है । आल्हा ऊदल की वीरता और साहस की गाथा आल्हा गीतों के साथ युग-युगांतर तक गाई जाती रहेगी । हरदौल की मार्मिक कहानी लोक-जीवन एवं संगीत का पाथेय बन गई। राजा जुझारसिंह की पत्नी और अपनी भाभी से हरदौल को प्यार है - पवित्र प्यार। भाभी अपने देवर को प्राणों से प्रिय मानती है। संदेह की आग में जलता जुझारसिंह अपनी रानी से निर्दाेष हरदौल को बिष दिलवा देता है। हरदौल का बलिदान गांव बालों के लिए लोकगीतों का स्वर बनकर फूट पड़ता है। इसूरी की फागें भड्डरी की कहावतें सम्पूर्ण प्रदेष में लोकप्रिय है। डाकू कालापहाड़ अपने अत्याचारों के कारण बुंदेलखण्ड में भय के साथ याद किया जाता था। विंध्य सतपुड़ा के घने जंगल, साल सागौन षेखआ के वृक्ष बांसों की झुरमुट और वादियों में गाते आदिवासी गोंड, मुड़िया, माडिया, पांड़ों कोरबा, उरांव, मंुडा, कोरकु, बैगा, परजा, मतरा तथा भील-भिलाला । मध्यप्रदेष की जन जातियां जितनी प्राचीन है उतना ही प्राचीन है इसका इतिहास ।
मध्यप्रदेष का इतिहास अत्यन्त प्राचीन और बिखरा हुआ है। पहले विदर्भ मध्यप्रदेष का अंग था, 1956 ई में राज्यों के पुर्नगठन के बाद विदर्भ से अलग होकर भोपाल राजधानी बनी । तब विंध्यप्रदेष अलग था मालवा का हिस्सा मध्यभारत कहलाता था उसका अलग अस्तित्व था, महाकौषल और छत्तीसगढ़ के हिस्से पुराने मध्यप्रदेष में षामिल थे, जाहिर हैं जहां अनेक टुकड़े मिले हो, वहां का इतिहास उतना ही अलग अलग और बड़ा होगा। विंध्याचल और सतपुड़ा में निषाद जाति लोग रहते थे, आर्यो से उनका सम्पर्क था। नर्मदा घाटी उस समय की सभ्यता की केंद्र थी। ऋग्वेद में कहीं भी नर्मदा नदी एवं विन्ध्य का उल्लेख नहीं मिलने से यह तय है कि उस समय तक आर्य यहां नही पहंुचे थे। रामायण महाभारत और पुराणों में इस राज्य का उल्लेख हैं। इस प्रदेष में चंद्रवंषीय के बाद सूर्यवंषीय का षासन रहा। इस वंष के राजाओं ने नर्मदा तट पर एक नगर बसाया, आगे चलकर हैहय राजाओं ने इस नगर नाम माहिष्मती रख दिया, उस काल में मध्यप्रदेष में भृगु वंष के ऋषियों का व्यापक प्रभाव था, जमदाग्नि के बेटे परषुराम जिनका मंडला के नर्मदा तट पर आश्रम था। बड़े बहादुर थे, उन्हौनें क्षत्रियों का कई बार संहार किया।
सहसबाहु ने अपनी हजार भुजाओं से नर्मदा के प्रवाह को रोकने की कोषिष की थी । राजा रघु के बेटे अज ने विदर्भ की कन्या इन्दुमति से ब्याह किया था। मध्यप्रदेष के जंगलों में कई साल बिताने वाले राम के पिता दषरथ इंदुमति के ही पुत्र थे (मंडला के कान्हा किसली में दषरथ मचान एवं श्रवण तालाब दोनों मौजूद है, कहते है कि दषरथ ने यहीं श्रवण को तीर यही मारा था नई खोज में पाया गया कि रावण सीता का हरण कर अमरकंटक के पास लंकापुरी ले गया था यही लंकादुर्ग भी है । वही कई अयोध्या है तो कई बाल्मीक आश्रम हैं यथा-थाई लेण्ड में भी अयोध्या, तो नेपाल में भी बाल्मीक आश्रम है)।
मध्यप्रदेश के राजाओं ने महाभारत के युद्धों में कौरव एवं पांडवों के साथ भाग लिया। श्रीकृष्ण की पत्नी रुकमणी भी विदर्भ की थी। महाभारत के बाद परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने राज्य किया। जनमेजय ने अंवती को अपने अधिकार में ले लिया था। अंवती में मालवा निमाड़ और मध्यप्रदेष से लगे हुए हिस्से षामिल थे। इसकी राजधानी माहिष्मती/महेष्वर थी । उत्तरी जिलों का एक बड़ा भूभाग चेदि जनपद के अंतर्गत आता था। वस्तुतः मध्यप्रदेष का सिलसिलेवार इतिहास मौर्य काल से ही उपलब्ध होता है। चन्द्रगुप्त ने चाणक्य से मिलकर नंदवंष को खत्म कर दिया था। चन्द्रगुप्त के षासन के अधीन मध्यप्रदेष भी आता था।
चन्द्रगुप्त के बाद अषोक सम्राट हुआ। अषोक कालीन स्तंभ और षिलालेख मध्यप्रदेष में इधर उधर बिखरे हुए है। सांची के स्पूतों का निर्माण अषोक ने ही कराया था। मौर्यो के बाद षुंगों का षासन मध्यप्रदेष में रहा।, षंुगों की राजधानी भरहुत (सतना) में थी। पुष्य मित्र षुंग प्रसिद्ध षासक था। इसी समय सात वाहन वंष के राजाओं ने त्रिपुरी/तेवर (जबलपुर) और मालवा में अपना राज्य जमाया, इसके बाद कुषान आये। फिर कर्दमक और फिर वाकाटक । गुप्तकाल में मध्यप्रदेष की बहुमुखी प्रगति हुई । कला संस्कृति और साहित्य को खूब प्रश्रय मिला। हूणों के आक्रमणों के कारण गुप्त साम्राज्य का पतन हुआ। 7 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में मध्यप्रदेष पर सम्राट हर्ष का षासन प्रारंभ हुआ। 10 वीं सदी में मालवा के परमार बहुत प्रसिद्ध हुए।
परमार वंषी राजा भोज कला और साहित्य के पारखी थे। उनकी राजधानी धार थी परमारों के बाद चंदेल राजाओं का षासन स्थापित हुआ। खुजराहों चंदेलों की ही देन है। 1 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आये के आज के छत्तीसगढ़ में 6 वीं सदी में षूरवंष का आधिपत्य था एवं रायपुर के आस पास कहीं षरभपुर राजधानी थी। बाद में षूरवंष की राजधानी सिरपुर में आ बसी । सिरपुर में पांडुवषियों का, तो रतनपुर में कलचुरियों का षासन रहा। कलचुरियों ने छत्तीसगढ़ में आठ सौ साल राज्य किया । वहीं छत्तीसगढ़ सरकार के पर्यटन मंडल के अनुसार - सिरपुर छत्तीसगढ़ के गौरवषाली इतिहास को अपने अस्तित्व में समेटे हुए है । 5 वी सदी के मध्य यह दक्षिण कौसल की राजधानी थी। सिरपुर को भारत के सर्वप्रथम ईटों द्वारा निर्मित मंदिर के लिए जाना जाता है। वर्तमान में यहां अनेक बौद्ध मठ एवं विहार है। यहां का लक्ष्मण मंदिर काफी प्रसिद्ध है। 6 वीं षताब्दी के मध्य चीनी यात्री व्हेन सांग ने सिरपुर की यात्रा की थी।
11 वीं सदी में मुसलमानों ने अपना अधिकार इस प्रदेष में जमा लिया। जो तीन साल आपस में हिन्दु-मुस्लिम-राजा नवाव लड़ते रहे। इसी समय ग्वालियर में तोमर राजाओं का अभ्युदय हुआ। मानसिंह तोमर अत्यत्र प्रसिद्ध राजा हुए। मांडू में एक अलग राज्य स्थापित हुआ, होषंगषाह और महमूदषाह प्रसिद्ध थे । धीरे-धीरे मुगलों ने मध्यप्रदेष को अपने राज्य में मिला लिया । ओरंगजेब के समय मराठों ने षिवाजी के नेतृत्व में मध्यप्रदेष के अनेक हिस्सों पर अपना कब्जा जमा लिया अंतिम मराठा षासक माधोजी सिंधिया की मृत्यु 1794 में हो गई। और मराठा संगठन छिन्न भिन्न हो गया।
सिंधिया ने ग्वालियर, होल्कर ने इन्दौर, भोसलों ने नागपुर में अपना राज्य स्थापित किया। मध्यप्रदेष का इतिहास वीर पुरुषों की गाथाओं से भरा पड़ा है गढ़ा मंडला की गौड़ रानी दुर्गावती ने अकबर से लोहा लिया था, उसके समय का पहाड़ी पर मुगल षैली में मदनमहल मौजूद है। संग्रामषाह के समय गौड़ षासन अपने उत्कर्ष पर था । बुदेलखण्ड के पराक्रमी छत्रसाल का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष में बीता। अंतिम समय उन्हौनें बाजीराव पेषवा की षरण ली ।(पेषवा और मस्तानी की अलग प्रेम की दास्तान है)। छत्रसाल की वीरता सारे बुंदेलखण्ड में जाती थी - इत यमुना उत नर्मदा, इत चंबल उत टौंस । छत्रसाल सों लड़न को रहीं न काहु हौंस । ग्वालियर में झांसी की महारानी ने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया । 1857 के वीर सेनानी तात्या टोपे और रामगढ़ की रानी अवंतीबाई ने भी अंग्रेजों को अपनी वीरता से आष्चर्य में डाल दिया। निष्चय ही मध्यप्रदेष की सांस्कृतिक परपंरा अति प्राचीन एवं व्यापक है।
डाक टिकटों में मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेष अपने नाम के अनुरुप भारत के मध्य में स्थित है, और प्रकृति ने भी इसे मनोयोग से सजाया और मानव ने सवारा है । यहां विस्तृत पर्वत श्रंृखलाएं, हरी भरी घाटियां वन प्रांत का वैभव, कल-कल निनाद करती नदियां निर्झर नील झील किसी को भी अनायास अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखती है। प्राकृतिक सुषमा से सम्पन्न यह प्रदेष पुरातत्व और इतिहास की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। प्राचीन काल में अनेक महापुरुषों ने इसे कर्मस्थली बनाया था। त्रेता में श्रीराम, लक्ष्मण और सीता ने वनवास का कुछ समय यहां व्यतीत किया। द्वापर में श्रीकृष्ण अपने भाई बलराम और बालसखा सुदामा के साथ इसी अंचल में महर्षि संदीपन से षिक्षा प्राप्त की थी। इस प्रदेष ने ऐसे रत्न दिये हैं जिन्हौने अपनी आभा से सारे देष को आलोकित किया। इनमें देषभक्त, विचारक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ और षिल्पी आदि की एक सुदीर्घ श्रंृखला है। महाधिराज विक्रमादित्य और उनके नौ रत्नों ने यहां की मिट्टी को पवित्र किया। महाकवि कालीदास, चिकित्सक धन्वंतरि, महान खगोलज्ञ वराह मिहिर आदि की कर्मस्थली महिमामयी नगरी उज्जयिनी रही है। इस प्रदेष में पदमाकर जैसे कवि तो तानसेन, बैजू बावरा, अलाउद्दीन खां जैसे प्रसिद्ध संगीतकार दिए । वीरांगनाएं अहिल्याबाई, दुर्गावती, अवन्तीबाई, कमलावती की ललकार यहां गूंज रही है। नन्हें-मुन्ने साबूलाल जैन और गुलाब कुर्मी की षहादत से यहां की मिट्टी महक रही है। स्वतंत्रप्रिय देषभक्त वीर नारायण सिंह, तात्या टोपे, माखनलाल चतुर्वेदी की अमर कहानी यहीं लिखी गई। देष को महान बनाने में इस प्रदेष का सदा ही अूमल्य योगदान रहा। भारतीय डाक तार विभाग ने समय समय पर कुछ ऐसे डाक टिकट जारी किये हैं जिसमें प्रदेष के बहुमूल्य रत्नों के दर्षन होते है। इन रत्नों में स्वतंत्रता सेनानी, षिक्षा षास्त्री तथा वीरांगनाएं षामिल है। वास्तुकला, मूर्तिकला, वन्यजीवन और लोक जीवन को प्रदर्षित करने वाले डाक टिकट भी है। वीरांगनाओं में दुर्गावती, अहिल्याबाई, अवन्तीबाई को डाक टिकटों जगह मिली, परन्तु भोपाल की कमलावती को स्थान नहीं मिल पाया। मध्यप्रदेष के प्रकाषवान रत्नों में लगभग दो हजार साल प्राचीन नाटय षिल्पी एवं संस्कृत के महाकवि कालीदास इस प्रदेष के पहिले ऐसे व्यक्ति है जिन्हें विदेष और भारतीय डाक तार विभाग ने सर्वप्रथम स्थान डाक टिकट में दिया। उनके सम्मान में 1960 में दो डाक टिकट जारी किये गये।
स्लेटी रंग में छापे गये डाक टिकट पर सुमधुर कृति मेघदूत के प्रमुख पात्र विरहाकुल यक्ष का चित्र तो दूसरे भूरे रंग के टिकट में नाटय रचना अभिज्ञान षकुंतलम की प्रमुख पात्र षकुंतला को उनकी सखियों और हिरन के साथ दिखा गया है। सोवियत रूस विष्व का पहला ऐसा देष है, जिसने कवि कालीदास को अपने 1956 के डाक टिकट में सम्मान दिया । इस टिकट पर कवि की दो पुस्तकें, भारतीय मंदिर और नारियल का पेड़ का सुंदर चित्रण है। मध्यप्रदेष की महिला रत्नों में इन्दौर राज्य की महारानी अहिल्याबाई (1725-1795) का स्थान पहला है जिन्हे भारतीय डाक टिकट सर्वप्रथम सम्मान दिया। आज के जमाने में राष्ट्रीय सम्मान की एक पहचान है डाक टिकट। महारानी को श्रेष्ठ सम्मान 1975 में अन्तराष्ट्रीय महिला वर्ष के अवसर पर एक सुन्दर डाक टिकट जारी कर प्रदान किया था। महिला रत्नों में काव्य वीरांगना सुभद्राकुमारी चौहान 1904-1948 दूसरी महिला रत्न है जिन्हें डाक टिकट का राष्ट्रीय सम्मान 1976 में दिया गया।
25 पैसे मूल्य के इस आनील वभ्रू टिकट पर सुभद्राकुमारी चौहान की मुखाकृति के दर्षन होते है। सुभद्राकुमारी चौहान की जन्म इलाहाबाद जिले के निहालपुर ग्राम में हुआ था किन्तु कर्मस्थली मध्यप्रदेष रहीं । सुभद्रा के काव्य - खूब लड़ी मर्दानी वाली - झांसी की रानी का संबंध जरूर झांसी से रहा पर रणभूमि मध्य प्रदेष ही थी । सागर के स्पूत डा हरिसिंह गौर 1870 - 1949 की गणना प्रदेष के वरद् पुत्रों में की जाती है। वे विख्यात विधिवेक्ता, दूरदर्षी राजनीतीज्ञ, स्वतंत्रता सेनानी, साहित्यकार तथा षिक्षाविद् थे उनका श्रेष्ठ स्मारक सागर विष्वविद्यालय है। सिपाही दषरथ के पुत्र हरिसिंह गौर जिन्होंनें षुक्रवारी टोरी के एक बिजली के खम्बे के प्रकाष से पठन कर, एक करोड़ रुपये दान देकर ज्ञान विज्ञान की प्रदेष की पहली इस महान संस्था की स्थापना 1946 में की एवं प्रथम कुलपति के रुप में उसका मार्गदर्षन भी किया । प्रदेष के इस देदीप्यमान रत्न की स्मृति में 1976 में 25 पैसै का नीलरक्त चित्र सहित डाक टिकट जारी किया गया।
एक भारतीय आत्मा के उपनाम से प्रसिद्ध खंडवा निवासी माखनलाल चतुर्वेदी (1889-1968) एक श्रेष्ठ कवि, पत्रकार संपादक, ओजस्वी वक्ता और प्रथम पंक्ति के सैनानी थे। युवक हृदयों को प्रेरणा देने वाले क्रंातिकारी साहित्य का सृजन कर उन्हौने स्वतंत्रता के संघर्ष में जीवन अर्पित करने की भावना जागृत की थी । भारतीय आत्मा नाम से लिखी उनकी कविताएं राष्ट्रीय साहित्य में सदा अमर रहेगी। इस महान देषभक्त माखनलाल की स्मृति में 1977 में 25 पैसे के डाक टिकट मुखाकृति अंकित कर सम्मान दिया गया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार कामताप्रसाद गुरु 1875 - 1947 का जन्म सागर में निधन जबलपुर में हुआ। इनकी गणना हिन्दी साहित्य के महान उन्नायकों में की जाती है । आज हिन्दी को जो सुगठित सुंदर रूप प्राप्त हुआ है वह इन्हीं के अथक परिश्रम का परिणाम है। हिंदी भाषा में सर्वमान्य हिन्दी व्याकरण का अभाव था। इस अभाव की पूर्ति कर कामता ने हिन्दी की प्रगतिका मार्ग प्रषक्त किया।
इनकी रचना हिन्दी व्याकरण का कई विदेषी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। इसी रचना के कारण कामताप्रसाद को हिन्दी का पणिनि कहा जाता है। इनके सम्मान में एक डाक टिकट 1977 में जारी किया गया । 25 पैसे के भूरे रंग के टिकट पर कामता के चित्र के साथ हिन्दी व्याकरण की पुस्तक भी छपी है। मध्यप्रदेष के प्रखर रत्नों में ऐसे कई ख्याति प्राप्त रत्न है। जिन्हें देष की जनता अभी तक डाक टिकटों में देखने से भी वचिंत है। स्वतंत्रता के बाद एक लम्बे समय तक इस प्रदेष को डाक टिकटों में आने का मौका नहीं मिला। 1975 से 1977 तक तीन वर्षो की अवधि के एक दषक बाद डाक विभाग का ध्यान गया और उसने 31 दिसम्बर 1987 को अंग्रेजो के समय डिप्टी कमिष्नर रहे कटनी मुडवारा के ( जन्म 1 अक्टूबर 1867 मृत्यु 19 अगस्त 1934 ) इतिहास कार डॉ हीरालाल राय की याद में 60 पैसे के मूल्य का बिना जल चित्र बाला एकरंगी डाक टिकिट जारी किया गया, भारतीय सिनेमा के सौ पूरे हो गये परन्तु मध्यप्रदेष के रंगमंच एवं सभी कला क्षेत्रों के नायकों की डाक विभाग ने हमेषा इसकी उपेक्षा की, सन् 2000 में पांच रुपये का एक मात्र रंगीन डाक टिकिट दादामुनि अषोककुमार पर जारी किया । इसके बाद हमारे डाक विभाग और हमारे तथाकथित सियासतदारों का ध्यान इस ओर से हट गया है।
आर एस पटेल
माबाईल 8989535323
पता - साईपुरम कालोनी किदवईवार्ड कटनी म प्र
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