Saturday, July 20, 2013

क्योंकि राजनेताओं को सजा दिलाने का कोई इतिहास नहीं है

पलाश विश्वास
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कहने को भारत लोक गणराज्य है। यानि सिद्धांततः हमारे देश की सत्ता इस देश के नागरिकों में निहित है। सत्ता शिखरों पर बैठे लोग तो जनप्रतिनिधि या जनसेवक हैं। जिन्हें संविधान की शपथ लेकर लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत काम करना होता है। लेकिन असल में भारतीय नागरिक के कोई अधिकार हैं ही नहीं। न ही उनके कोई प्रतिनिधि हैं। सत्ता के शिखरों पर बैठे लोग संविधान की हत्या जब तब करते रहते हैं। लोकतंत्र का कोई वजूद है ही नहीं। लोकतांत्रिक तमाम प्रतिष्ठान ध्वस्त है। हम खुले बाजार के उपभोक्ता हैं, नागरिक नहीं। हमारी संप्रभुता हमारी क्रयशक्ति सापेक्ष है।

सबसे खतरनाक बात तो यह है कि देश में आजादी के बाद से अब तक किसी शीर्ष राजनेता को अपराध प्रमाणित होने के बावजूद कभी सजा नहीं हुई है। न हो सकती है। हमारे यहां मानवता के विरुद्ध तमाम अपराधों के लिए अभियुक्तों को सजा हो ही नहीं सकती। तमाम घोटालों का पर्दाफाश अखबारी सुर्खियां बनाने के लिए है ंया चुनावी मुद्दे तय करने के मकसद से है। किसी घोटाले में आजतक किसी शीर्ष नेता को सजा नहीं हुई। आपातकाल में जिसतरह नागरिक औरमानवाधिकारों का हनन हुआ, वह अभूतपूर्व है। लेकिन बाद में हम सब भूल गये। उस दौर के तमाम राजनेताओं को हमने पलक पांवड़े पर बिठा लिया। आपातकाल, बाबरी विध्वंस,सिखों के नरसंहार, भोपाल गैस त्रासदी,गुजरात नरसंहार से लेकर मरीचझांपी नरसंहार और मुजफ्फरनगरकांड के अपराधी  हमारे राष्ट्रनेता हैं।

इस देश में न्याय इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि राजनेताओं को सजा दिलाने का कोई इतिहास नहीं है।इसके विपरीत हमारे पड़ोस में बांग्लादेश के एक विशेष न्यायाधिकरण ने वर्ष 1971 में हुए मुक्ति संग्राम के दौरान मानवता के खिलाफ अपराधों को अंजाम देने के जुर्म में कट्टरपंथी पार्टी जमात-ए-इस्लामी के एक शीर्ष नेता को आज मौत की सजा सुनाई। जमात के 65 वर्षीय महासचिव अली अहसन मोहम्मद मुजाहिद को अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण (2) ने मौत की सजा सुनाई। इस फैसले से दो दिन पहले ही जमात ए इस्लामी के 91 वर्षीय प्रमुख गुलाम आजम को एक न्यायाधिकरण ने 90 साल की सजा सुनाई। यह सजा उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ज्यादतियों का प्रमुख षड्यंत्रकारी होने के आरोप में सुनाई गई।

सांप्रदायिक हिंसा और धर्मोन्माद वोट बैंक साधने का कला कौशल है। हिंसा और दंगा के जरिये वोटरों का ध्रूवीकरण होता है और उसीके मुताबिक मिले जनादेश से देश चलता है। इसलिए बाबरी विध्वंस, सिख नरसंहार, गुजरात नरसंहार जैसे जघन्य युद्ध अपराधों के सर्वजनविदित अपराधी राजनीति के शीर्ष पर हैं। भोपाल गैस त्रासदी के अपराधी कठघरे में खड़े ही नहीं किये गये। किसानों की आत्महत्या की जिम्मेवारी किसी पर नहीं होती। विकास के नाम बेदखली के जरिये आम जनता के विरुद्ध जो निर्मम अपराध होते हैं, उसके पीछे राजनीतिक मस्तिस्क होते हैं। अफसरों को तो भ्रष्टाचार और नागरिक व मानवाधिकार के लिए सजा मिल ही जाती है, लेकिन एक भी नजीर ऐसा नहीं है कि किसी राजनेता को कभी सजा हुई हो।

औद्योगीकरण और शहरीकरण के अभियान में जो प्रोमोटर बिल्डर कारपोरेट माफिया गिरोहबंद हैं, उनके रिमोट कंट्रोल भी राजनेताओं के पास हैं। अपराधकर्म के बाद भी कहीं कोई रपट दर्ज नहीं होती। बाहुबली सीधे जनप्रतिनिधि बनकर संसद और विधानसभाओं में बहुमत तय करते हैं और सरकारें चलाते हैं। राजनीति रंग बिरंगी अस्मिताओं के बहाने एकतरफा घृणा अभियान में तब्दील है।

बंगाल में मरीचझांपी नरसंहार 1979 में हुआ। उसके बाद 34 साल बीत चुके हैं। कही रपट दर्ज नहीं हुई। उत्तराखंड की महिलाओं के साथ उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर में जो बेशर्म सलूक हुआ, उसका फैसला अलग उत्तराखंड बनने के बाद भी नहीं हुआ।सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के तहत कश्मीर और मणिपुर में दशकों से जो चल रहा है, तमाम आदिवासी इलाकों में जो हो रहा है, वह अपराध भारतीय न्याय प्रणाली और लोकतांत्रिक व्यवस्था के दायरे से बाहर है।

फर्जी मुठभेड़ तो राजनीतिक संस्कृति हो गयी है। बंगाल ने सत्तर के दशक में तो पंजाब ने अस्सी के दशक में इसका व्यापक इस्तेमाल देखा। इशरत जहां का मामला कोई अनोखा मामला नहीं है। उत्तरप्रदेश में ऐसे सैकड़ों मामले हैं, जिसकी जनसुनवाई नमानवाधिकार जननिगरानी समिति के तत्वावधान में जस्टिस सच्चर केनेतृत्व में हुई और वह रपटभ भी आ चुकी है। पुलिस हिरासत और जेल में जो होता है, उसके लिए ताजा उदाहरण सोनी सोरी हैं। गुजरात, मुंबई , कश्मीर, मणिपुर से लेकर तमिलनाडु तक सर्वव्यापी राजनीतिक भूगोल है फर्जी मुठभेड़ों का, जिसकी सीधे तोर पर राजनीतिक वजहें हैं और राजनेताओं के इशारे पर ही इन कांडों को अंजाम दिया जाता है।


ऐसे में चीन के किसी मंत्री को भ्रष्टाचार के अपराध में फांसी की सजा सुनकर हम यही निष्कर्ष निकालते रहेंगे कि चीन में लोकतंत्र नहीं है, वहां वैसा हो ही सकता है। दुनियाभर की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में राजनेता कटघरे में खड़े होते हैं और उन्हें मृत्युदंड तक की सजा होती है। हमारे हिसाब से तो वे देश लोकतांत्रिक नहीं हैं।

अब बांग्लादेश में रजाकर वाहिनी के सरगना बनकर मुक्ति युद्ध के दौरान अमानवीय युद्धअपराध करने वाले जमायते इस्लाम के शीर्ष नेता, जो विपक्षी गठबंधन के नेता भी रहे हैं, उनको अदालती सजा के बारे में हमारा आकलन इसके सिवाय क्या हो सकता है कि वह तो सत्ता संघर्ष है!

यानी सत्ता प्रतिष्ठान के अंग बनने के बाद किसी को सजा देना ही लोकतंत्र विरुद्ध है।

बहरहाल न्यायाधीशों के तीन सदस्यीय दल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति ओबैदुल हस्सा ने फैसले का अहम हिस्सा पढ़ते हुए कहा ‘उन्हें तब तक फांसी पर लटकाया जाए जब तक उनकी मौत नहीं हो जाती।’ उन्होंने कहा कि मुजाहिद के खिलाफ लगाए गए सात में से पांच आरोप संदेह से परे हैं और अदालत मुक्ति समर्थक कई कार्यकर्ताओं को मार डालने में उनके निजी तौर पर संलिप्त रहने के दो आरोपों पर उन्हें मौत की सजा सुनाती है। मुजाहिद, जमात की तत्कालीन छात्र शाखा के प्रबंधन से संचालित होने वाले कुख्यात अल-बदर मिलीशिया बल में दूसरे नंबर की हैसियत रखते थे। शुरू में जब उन्हें कटघरे में लाया गया तो उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। लेकिन सजा सुनाए जाने पर वह बेहद निराश नजर आए।

अल-बदर ने मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सेना की सहायक बल की भूमिका निभाते हुए प्रमुख बांग्ला कार्यकर्ताओं को मारा था। मुजाहिद को ज्यादतियों के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था। न्यायाधीकरण ने कहा कि मुजाहिद ने वरिष्ठ पत्रकार सिराजुद्दीन हुसैन की हत्या का हुक्म दिया था और पाकिस्तान के एक सैन्य अधिकारी को कई प्रमुख लोगों को यातना देने तथा हत्या करने के लिए उकसाया था। इनमें मशहूर संगीतकार अल्ताफ महमूद और स्वतंत्रता सेना रूमी भी शामिल थे।

इस फैसले को लेकर जमात ने कल राष्ट्रव्यापी हड़तान का आह्वान किया है। युद्ध अपराध के मामलों की सुनवाई आरंभ होने के बाद मुजाहिद जमात के छठे ऐसे नेता हैं जिन्हें न्यायाधीकरण ने दोषी ठहराया है। मुजाहिद से पहले आजम को 90 साल तथा अब्दुल कादिर मुल्ला को उम्रकैद की सजा सुनाई गई। इनके अलावा अबुल कलाम आजाद, दिलवर हुसैन सईदी तथा मुहम्मद कमरूजमां को मौत की सजा सुनाई गई।



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